फटा है समाज सेवा का ढोल

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सतीश सिंह

क्नॉट सर्कस को दिल्ली का दिल माना जाता है। विगत दो सालों से इस दिल के एम ब्लॉक में तकरीबन प्रति दिन मेरा आनाजाना है। इन दो सालों में मैंने लगभग 3035 लावारिस लाशों को अपनी आँखों से इस ब्लॉक के आसपास देखा है। दायरा ज्यादा बड़ा नहीं है एम, जी, एन, एच ब्लॉक के अलावा शिवाजी ब्रिज, शंकर मार्केट और सुपर बाजार।

किसी लाश के मुँह पर मक्खी भिनभिनाती रहती है तो किसी लाश की आँखें खुली होती हैं तो किसी की बंद। हर आम आदमी नाकमुँह सिकोड़ कर आगे बढ़ जाता है। न किसी के मन में दया है और न ही संवेदना। ‘साला स्मैकिया होगा’, फुसफुसाते हुए लाश के सामने से अक्सर लोग गुजर जाते हैं। जबकि मरने वालों में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी हैं। कैसे और क्यों मरा ? इसकी पड़ताल करने की जहमत कोई उठाना नहीं चाहता। सभी अपने जीवन को जेट की रफ्तार से जीने में मशगूल हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में समाज कल्याण के बारे में चर्चा की गई है। इस अनुच्छेद में साफ तौर पर कहा गया है कि समाज के दबेकुचले, अपंग, मानसिक रुप से विकलांग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के सदस्यों का विशोष ध्यान रखा जाना चाहिए। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहाँ अशक्त और असमर्थ नागरिक अपनी स्वभाविक जिंदगी को जीएं, इसके लिए संविधान में सामाजिक कल्याण की संकल्पना को समाहित किया गया है। निश्चित रुप से यह तभी संभव है जब उनके उत्थान के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर ईमानदारी पूर्वक प्रयास किया जाए।

अफसोस की बात है कि आजादी के 63 सालों के बाद भी समाज सेवा सरकार का काम समझा जाता है। कहने के लिए तो भारत में अनेकानेक गैर सरकारी संगठन सामाजिक कल्याण के लिए समर्पित माने जाते हैं।

पर इनमें से कुछेक ही अपने काम को दिल से अंजाम दे रहे हैं। बाकी दान के धन से अपना जेब भरने में मग्न हैं। ध्यातव्य है कि गैर सरकारी संगठनों को विदेशों से करोड़ों रुपये दान के रुप में मिलते हैं।

शिक्षा एवं स्वास्थ अब कारोबार का जरिया बन गया है। भोपाल का पीपुल्स ग्रुप ऐसा ही एक संस्थान है। भारत में सैकड़ों ऐसे निजी संस्थान हैं जो शिक्षा व स्वास्थ को नोट छापने की मशीन मानते हैं।

वैसे आजकल निजी क्षेत्र की कंपनियाँ भी समाज सेवा का दंभ भरती हैं। कुछ कंपनियाँ मसलन, टाटा जरुर इस मुद्दे पर गंभीर भी है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, टाटा मेमोरियल सेंटर इत्यादि संस्थान सामाजिक स्तर पर अपना योगदान दे रहे हैं।

भारत जनसंख्या के दृष्टिकोण से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। किसी एक देश में गरीबी के प्रतिशत को देखा जाए तो भारत में सबसे अधिक गरीब निवास करते हैं। यहाँ गरीबी इतनी अधिक है कि सरकार अभी तक गरीबों की संख्या का सहीसही आकलन नहीं कर पाई है। तेंदुलकर समिति और सरकारी आंकड़ों में अभी भी फर्क है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के आंकड़ों में भी अंतर है। आंकड़ों के मायाजाल में सभी उलझे हुए हैं।

मूल रुप से स्वास्थ, रोजगार व शिक्षा को समाज सेवा का हिस्सा माना जा सकता है, क्योंकि इनमें सुधार करके हम बहुत हद तक समाज में संतुलन ला सकते हैं। इस फं्रट पर सरकार का प्रयास जिम्मेदारी के रुप में अहम है।

सरकार अपनी योजनाओं के द्वारा स्वास्थ, रोजगार व शिक्षा को दुरुस्त करने में लगी हुई है। स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना, स्वर्ण जंयती शहरी रोजगार योजना, पीएमईजीपी, स्वंय सहायता समूह एवं मनरेगा के माध्यम से सरकार रोजगार सृजन का प्रयास कर रही है। वहीं स्वास्थ व शिक्षा के क्षेत्र को चुस्त व दुरुस्त करने के लिए सरकार दूरदराज के इलाकों में प्राथमिक शाला व प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र भी खोल रही है।

भले ही भ्रष्टाचार व लालफीताशाही के कारण सरकार अपने मनसूबे में कामयाब नहीं हो पाई है। फिर भी हम सरकार के प्रयास को एक सिरे से खारिज नहीं कर सकते हैं।

क्या हमारे देश में निजी क्षेत्र की समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है ? जबकि यह क्षेत्र सरकार से जमकर फायदा उठा रहा है। सेज व कलकारखानों के नाम पर औनेपौने दामों पर किसानों की जमीन कॉरपोरेट घरानों को उपलब्ध करवाई जा रही है। उत्तरप्रदेश में तो मायावती की सरकार ने औधोगिक विकास के नाम पर अधिगृहीत की हुई किसानों की जमीन को बिल्डरों को दे दिया।

इस संदर्भ में पर्यावरण के मापदंडों का भी जमकर उल्लघंन किया जाता है। औघोगिक घरानों की करतूतों के कारण ही आज गंगा व यमुना अपनी अंतिम सांसे गिन रही हैं। वर्तमान प्रदूषित माहौल में हमारा भी सांस लेना दुर्भर हो गया है।

बैंकों के मार्फत से सरकार आयातनिर्यात में संतुलन बनाये रखने के नाम पर निजी कंपनियों को सब्सिडी दे रही है। रिजर्व बैंक के द्वारा बेस रेट की नई नीति शुरु करने के बाद से कॉरपोरेट घरानों को ब्याज दर में रियायत देने की परम्परा पर जरुर थोड़ा सा लगाम लगा है। बावजूद इसके अभी भी प्राईसिंग व प्रोसेसिंग में आंकड़ों की बाजीगरी के द्वारा इनको जमकर फायदा पहुँचाया जा रहा है। करों में भी कॉरपोरेट घरानों को सरकार छूट दे रही है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह सारी प्रकि्रया एकतरफा है। कॉरपोरेट घराना फायदा तो ले रहे हैं, लेकिन अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने से कतरा रहे हैं। साथ ही निजी कंपनियां आज घोटालों का सबसे बड़ा कारक भी हैं। रोजगार का छोड़ दें तो निजी कंपनियाँ समाज को कुछ भी नहीं दे रही हैं। रोजगार भी तथाकथित मिडिल क्लॉस को मिल रहा है। आम आदमी आज भी हाशिए पर खड़ा है।

अब सरकार को भी अक्ल आ गई लगती है। कंपनी मामलों के राज्य मंत्री श्री पी एन सिंह ने कंपनी बिल 2009 के आलोक में यह बयान दिया है कि निजी कंपनियों को अपने शोयरधारकों को यह बताना पड़ेगा कि उन्होंने अपने निवल लाभ का 2 फीसदी हिस्सा सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए खर्च किया है कि नहीं है। इसके लिए कंपनी बिल 2009 में संशोधन का प्रस्ताव रखा गया है। इस प्रस्तावित संशोधन के अनुसार कंपनियों को अपने 3 साल के निवल लाभ का 2 फीसदी हिस्सा सामाजिक कल्याण के मद पर खर्च करना होगा।

गौरतलब है कि औघोगिक घरानों ने इसका जमकर विरोध किया है। उनका कहना है कि सामाजिक सेवा करने का फैसला औघोगिक घरानों को स्वंय करना चाहिए। इस मामले में सरकार को दखल नहीं देनी चाहिए। इसके बरक्स में हमें याद रखना चाहिए कि कॉरपोरेट जगत पहले भी निजी क्षेत्र में आरक्षण का विरोध कर चुकी है। सच कहा जाए तो निजी क्षेत्र का यही असली चेहरा है। यह सिर्फ गरीबों का खून चूस करके लाभ कमाना चाहती है।

एक तरफ तो करोड़ों भारतीय एक अदद छत से महरुम हैं तो दूसरी तरफ अंबानी करोड़ोंअरबों के मकान में रहते हैं। भारत में अमीर व गरीब के बीच इतनी बड़ी खाई क्यों है ? इस मसले पर सरकार को जरुर मंथन करना चाहिए।

हालांकि औघोगिक संगठन फिक्की का रुख इस मसौदे पर सकारात्मक प्रतीत होता है। इस संगठन का कहना है कि कंपनी मंत्रालय के नये फैसले से हम सहमत हैं। अपितु जानकारों का मानना है कि फिक्की मजबूरी में अपनी सहमति जता रहा है।

उल्लेखनीय है कि सामाजिक कल्याण के लिए निजी कंपनियों द्वारा अपने मुनाफे का 2 फीसदी हिस्सा देने का प्रस्ताव संसद की स्थायी समिति की तरफ से आया था। इस प्रस्ताव के आधार पर कंपनी मामलों के मंत्रालय ने यह प्रस्ताव रखा कि 500 करोड़ या इससे ज्यादा के नेथवर्थ वाली कंपनियां या फिर 1000 करोड़ रुपए या इससे ज्यादा के टर्नओवर या पाँच करोड़ या इससे अधिक मुनाफा कमाने वाली हर कंपनी को सामाजिक कल्याण के मद पर अपनी निवल लाभ का 2 फीसदी हिस्सा आवश्यक रुप से खर्च करना होगा।

प्रस्तावित बिल में यह भी प्रावधान है कि अगर कोई कंपनी मुनाफा नहीं कमा रही है और इस कारण से वह सामाजिक कल्याण के मद पर खर्च नहीं कर पा रही है तो कंपनी के निदेशकों को अपनी सालाना रिर्पोट में इसका माकूल कारण भी बताना होगा। ऐसा नहीं है कि यह नियम केवल निजी कंपनियों के ऊपर ही थोपा जा रहा है। यह नियम थोड़े फेरबदल के साथ सरकारी कंपनियों पर भी लागू होगा।

जिन सरकारी कंपनियों का निवल लाभ 100 करोड़ रुपयों से कम है उनको 3 से 5 फीसदी तक अपने मुनाफे से सामाजिक कार्यों पर व्यय करना होगा। इसी के बाबत जो कंपनी 100 से 500 करोड़ रुपये निवल लाभ के रुप में अर्जित कर रही है, उसकी जिम्मेदारी आम आदमी के उत्थान पर 2 से 3 फीसदी खर्च करने की होगी। जबकि 500 करोड़ या उससे अधिक लाभ कमाने वाली सरकारी कंपनियां महज अपने निवल लाभ का 0.5 से 2 फीसदी तक का हिस्सा ही सामाजिक मामलों पर खर्च करेगीं।

भारत में सामाजिक कल्याण की संकल्पना संविधान से ली गई है। लिहाजा भारत जैसे एक गरीब मुल्क में कल्याणकारी कार्यो का बदस्तुर होना परम आवश्यक है। सरकार की वर्तमान नीतियां ऐसी हैं कि सामाजिक स्तर पर खाई ब़ती जा रही है।

उदारीकरण, नई आर्थिक नीति और विकास के नाम पर यूपीए सरकार ने देश को बर्बादी के कगार पर ला दिया है। राहुल बाबा पैदल यात्रा करके एक तरफ अपने को किसानों का हितैषी बता रहे हैं तो दूसरी तरफ मंहगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मौनी बाबा बने हुए हैं।

आज भूमि अधिग्रहण का कानून सरकार के लिए मलाई खाने का जरिया बन चुका है। सिंगुर, ग्रेटर नोयडा, यमुना एक्सप्रेस वे, फार्मूला वन या रायबरेली में प्रस्तावित रेल कोच के कारखाने के लिए किसानों की जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण किया गया है।

दिलचस्प है कि कांग्रेस, मायावती सरकार को एक तरफ जमीन अधिग्रहण के मामले को लेकर घेर रही है ,वहीं दूसरी तरफ रायबरेली में नंगी खड़ी है।

ज्ञातव्य है कि नोयडा में 1087 रुपये ग्रेटर नोयडा में 889.58 रुपये, हाथरस में 370.65 रुपये, अलीग़ के टप्पल एवं आसपास के क्षेत्रों में 543 रुपये तथा कुशीनगर में 300 रुपये वर्गमीटर के हिसाब से किसानों को मुआवजा दिया गया है तो वहीं रायबरेली में महज 71.66 रुपये से लेकर 107.49 रुपये वर्गमीटर के हिसाब से ही किसानों को मुआवजा दिया गया है।

इतना ही नहीं 2007 में श्रीमती सोनिया गाँधी ने इस कोच कारखाने का शिलान्यास किया था। प्रभावित किसानों के घरों से एक व्यक्ति को नौकरी देने का वायदा भी सरकार ने किया था। जून 2011 समाप्त हो चुका है, फिर भी प्रस्तावित रेल कोच का ढ़ाचा तक खड़ा नहीं हो पाया है। कहने का तात्पर्य है कि भारत की सभी पार्टियां हमाम में नंगी हैं। किसी को सामाजिक कल्याण से कोई सरोकार नहीं है। जब सरकार की फितरत ऐसी है तो निजी कंपनियों की चाँदी तो रहेगी ही।

इस विपरीत स्थिति में कंपनी मामलों के मंत्रालय का यह कदम स्वागत योग्य है। 2009 के कंपनी बिल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके जद में निजी एवं सरकारी कंपनियों दोनों को लाया गया है। अब देखना है कि इस प्रस्तावित बिल का अनुपालन कितनी गंभीरता से सरकार करती है। सामाजिक कल्याण नारे तक तो ठीक है, परन्तु इस सिंद्घात का जमीनी स्तर पर अमलीजामा पहनाना अभी भी टे़ीढ़ खीर है।

 

 

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