कुछ यूँ ही बीत रहा होता था जीवन

 alone-man

पीड़ा कैसे व्यक्त हो सकती थी?

वह तो थी

जैसे

कोमल, अदृश्य से रोम रोम में

गहरें कहीं धंसी हुई,

भला वह कैसे

बाहर आ सकती थी?

 

चैतन्य दुनियादारी की आँखों के सामनें

पीड़ा स्वयं

एक रूपक ही तो थी

जो नहीं चाहती थी

कभी किसी को दिख जाने का प्रपंच.

 

रूपंकरों के उन दुनियावी संस्करणों में

जहां पीड़ा को नहीं होना होता था अभिव्यक्त

वहां वह बहुत से प्रतीकों के साथ

और

मद्दम स्फुरित स्वरों के साथ

बहनें लगती थी

शिराओं में-धमनियों में.

 

पथिक उस नई-गढ़ी राह का

हो रहा था अभ्यस्त

और समझ रहा था

पीड़ा को और उसके सतत प्रकट होते

नए अध्यायों को.

 

पीड़ा के लेख-अभिलेख

लिखें होतें थे कुछ नई लिपियों में

नए नए से कोमल शब्दों के साथ

और वह किसी शिशु सा

सीखता रहता था उसके उच्चारणों को.

 

पीड़ा को ही नहीं

उसे व्यक्त करते

निरीह नौनिहाल शब्दों को भी संभालना होता था

उन्हें भी चुप कराना होता था

समय-समय जब भी वे होनें लगते थे स्फुरित.

 

कुछ यूँ ही बीत रहा होता था जीवन. 

 

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