भारी मतदान से दलों में मचा हडकंप

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विनायक शर्मा

उत्तर प्रदेश में अभी तक पांच चरणों के संम्पन्न हुए चुनावों में भारी मतदान के समाचारों से न केवल सभी आश्चर्यचकित हैं बल्कि राजनैतिक दलों में भीतरखाते हडकंप सा मच गया है विशेषकर बसपा और कांग्रेस में जिन्हें यहाँ होने वाली पराजय पर वर्तमान और भविष्य में बहुत कुछ खोना पड़ेगा. एक और जहाँ बसपा की मायावती को चुनाव हारने पर राज्य की सत्ता से हाथ धोना पड़ेगा वहीँ कांग्रेस के महासचिव की प्रतिष्ठा व भविष्य भी दावं पर है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पराजय होने पर सारा ठीकरा राहुल पर ही फोड़ा जायेगा. जहाँ तक सपा और भाजपा का प्रश्न है, तो इन दोनों दलों की न तो वहां सरकार है और न ही राष्ट्रीय परिपेक्ष में इन्हें कोई विशेष हानि का सामना ही करना पड़ेगा. हाँ, यदि भाजपा का प्रदर्शन पहले से अच्छा नहीं रहा तो इस वर्ष के अंत तक होने वाले हिमाचल सहित कुछ अन्य राज्यों के चुनावों में भाजपा को तो हानि की आशंका हो सकती परन्तु उत्तर प्रदेश तक सीमित क्षेत्रीय दल सपा को तो कतई नहीं. जहाँ तक पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और अमर सिंह का ताल्लुक है, तो यह दोनों नेता भाजपा और सपा से अपनी खुन्नस मिटाने के लिए ही चुनाव में उतरे हैं और यदि इन दोनों को एक-एक सीट भी मिल जाये तो बहुत अचरज की बात होगी. हाँ, एक दल अवश्य ही ऐसा है जिसको किसी भी प्रकार की हानि का अंदेशा नहीं है और हर दृष्टी से लाभ ही लाभ है. वह हैं केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री चौधरी अजीत सिंह का राष्ट्रीय लोक दल, जिसका वजूद केवल प्रदेश के जाट बहुल पश्चिम उत्तर प्रदेश में ही है. बिना किसी विचारधारा के, मात्र अपनी लाभ-हानि के लिए समय-समय पर विभिन्न दलों से समझौत और फिर उसे तोड़ने के लिए प्रसिद्द राष्ट्रीय लोक दल के अजीत सिंह ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से समझौता करके अपने लिए मंत्रीपद तो सुनिश्चित कर ही लिया है. प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी तो वहां भी कुछ मंत्री पद हासिल कर लेंगे, अन्यथा उनका अपना मंत्रीपद तो सुरक्षित ही है.

अभी तक के पांच चरणों के चुनावों में हुए भारी मतदान का कारण जानने को सभी उत्सुक हैं वहीँ चुनाव लड़ रहे राजनीतिक दलों और तमाम अन्य विशेषज्ञों की राय भी अलग-अलग है. वास्तविकता का पता तो ६ मार्च को मतगणना के पश्चात् ही चलेगा. सात चरणों में संपन्न होने वाले प्रदेश के चुनावों में अभी तक के पांच चरणों में ६० प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ है जबकि इसके ठीक विपरीत पूर्व के चुनावों में ५० प्रतिशत से कम मतदान होता रहा है. आम तौर से यह धारणा है की यदि कोई विशेष लहर पक्ष या विपक्ष में न चल रही हो तो अधिक मतदान को सत्तारूढ़ दल के विरोद्ध का कारण माना जाता है जिसके चलते उसकी पराजय निश्चित होती है. सत्तारूढ़ दल बसपा सहित सभी दल इस भारी मतदान को अपने-अपने पक्ष में बता रहे हैं. लेकिन यदि किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला किस-किस दल का गठबंधन हो सकता है इसकी भी सम्भावना अभी से तलाशी जा रही है. यूँ तो सभी दल अपने बहुमत का दावा कर रहे हैं और सतही तौर से कोई भी किसी के साथ गठबंधन के लिए राजी नहीं दिखता, परन्तु हमें खबर है कि भीतरखाते सभी दल ऐसी संभावनाओं की तलाश में लगे है. अपनी फजीहत से बचने के लिए कांग्रेस मायावती की बसपा और भाजपा से कभी समझौता नहीं करेगी. हाँ, आवश्यकता पड़ने पर यदि मायावती को कांग्रेस का समर्थन मिलता है तो मायावती को कोई गुरेज नहीं होगा, वैसे ऐसी सम्भावना बहुत ही क्षीण है. इसी प्रकार समाजवादी और बसपा दोनों की दूरियां बरकरार रहेंगी. जबकि समाजवादी और कांग्रेस व समाजवादी और भाजपा में समझौते की किरण दिखाई देती है जबकि ये सभी दल न समर्थन देने और न लेने की बात करते आये हैं. अब एक प्रचंड सम्भावना दिखाई देती है भाजपा और बसपा में. अतीत के कटु अनुभव के कारण वैसे ये इतना आसान लगता तो नहीं परन्तु कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों की निगाहें २०१४ के लोकसभा के चुनावों पर लगी हैं और बड़ा राज्य और लोकसभा की अधिक सीटें होने के कारण यही राज्य केंद्र में सरकार बनाने का मार्ग सुनिश्चित करता है. यह बात दोनों ही दल भली-भांति समझते है. वैसे दो चरणों के चुनाव अभी होने बाकि हैं और मतगणना के पश्चात् ही स्थिति स्पष्ट हो पायेगी. विपक्षी दलों, विशेषकर भाजपा को समझना होगा कि राहुल को गुस्सैल युवानेता प्रदर्शित कर उसके नेतृत्व में उत्तरप्रदेश में चुनाव लड़ रही कांग्रेस मात्र प्रदेश में सरकार बनाने के लिए संघर्षरत नहीं है. उसकी तो निगाहें अर्जुन की तरह लक्ष्य २०१४ पर हैं. इतना तो कांग्रेस भी जानती है कि वर्तमान में वहाँ उनकी सरकार बनना बहुत कठिन है. इसी लिए कांग्रेस अभी तो उत्तर प्रदेश में २२ वर्षों से खिसके अपने जनाधार को पुनः एकत्रित कर २०१४ के समर के लिए पूर्वाभ्यास कर रही है.

यह दावा तो नहीं किया जा सकता परन्तु परिस्थितियां कुछ ऐसी ही बन रही हैं की उत्तर प्रदेश में किसी भी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में भाजपा + सपा, भाजपा + बसपा, या कांग्रेस + सपा में समझौते और अन्दर से या बाहर से समर्थन देकर सरकार बनाने की संभावनाएं ही दिखाई देती हैं. और जहाँ तक चुनाव के दौरान दिए गए वक्तव्यों जिसमें किसी को न तो समर्थन देने और न ही किसी से समर्थन लेने की के दावों का सवाल है तो चुनाव पूर्व किये वादों का चुनाव संपन्न हो जाने के बाद कोई अर्थ नहीं रह जाता है. वैसे भी इन राजनैतिक दलों और इनके नेताओं के तरकश में अपनी बात को तर्कसंगत बताने के लिए, लोकतंत्र की रक्षा के लिए, गरीब प्रदेश को पुनः एक चुनाव से बचाने के लिए या फिर सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए या गुंडों-भ्रष्टाचारियों को सरकार बनाने से रोकने के लिए जैसे बहुत से तर्क मौजूद है. इतना ही नहीं कह कर मुकर जाना या मीडिया पर दोष मढ़ देना इनकी पुरानी आदत है. जनता के कर्त्तव्य की इतिश्री तो बस मतदान करके हो जाती है. उसके पश्चात् वह क्या करेंगे किसके साथ मिलकर सरकार बनायेंगे इन सब बातों से जनता को कोई सरोकार नहीं होना चाहिए उसे तो मात्र मूक दर्शक ही बने रहना है अगले पाँच वर्षों तक.

 

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