सच्चाई से धर्म का पालन करके धरती पर स्वर्ग उतारा जा सकता है – अखिलेश आर्येन्दु

छान्दोग्योपनिषद् में धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु में ‘मन्’ प्रत्यय से बताई गई है। महाभारत में भगवान व्यास ‘धारयति इति धर्मः को विस्तार देते हुए कहते हैं-धारणाद् धर्म मित्याहुर्धर्मों धारयति प्रजाः। यानी जो धर्म को धारण करता है, वह जीवन को धारण करता है। हिन्दू धर्म में धर्म को एक विधि बताया गया है। जीवन को धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की। धर्म को परिभाषित करना उतना ही कठिन है जितना ईश्वर को। दुनिया के तमाम विचारकों ने -जिन्होंने धर्म पर विचार किया है, अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। इस नजरिए से वैदिक ऋषियों का विचार सबसे ज्यादा उपयुक्त लगता है कि सृष्टि के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं। मनुस्मृति में ‘भगवान मनु आचारः परमोधर्मः’ कह कर वेदों को सभी धर्मों का मूल कह दिया। धर्म के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात – जिसे समझना हर किसी को जरूरी है, वह है-धर्म और मत का अंतर। इसे न समझने के कारण मत यानी मजहब को भी धर्म कह कर हर मजहबी टकराव को धर्म का फंसाद कह दिया जाता है। लेकिन सच्चाई यह है धर्म धारण करने की चीज है न कि टकराव पैदा करने की। टकराव वहां पैदा होता है जहां धर्म का लोप हो जाता है। दूसरी बात धर्म किसी एक व्यक्ति के जरिए नहीं उद्धाटित किया जाता है जबकि मत या मजहब एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के जरिए स्थापित या संचालित किया जाता है। इस लिहाज से वैदिक धर्म ही धर्म की कसौटी पर खरा उतरता है, क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के माध्यम से उद्धाटित या स्थापित नही किया गया। पाश्चात्य विचारकों में धर्म के बारे में कोई एक राय नहीं है। प्लेटो ने एक दिन सुकरात से पूछा-‘सुकरात तुम मुझे बता सकते हो कि क्या धर्म सिखाया जाता है?’ इसका उत्तर देते हुए सुकरात ने कहा, ‘धर्म सिखाया नहीं जाता बल्कि उसका अनुस्मरण किया जाता है।’ अनुस्मरण का मतलब हर इंसान को खोज अपने अंदर करनी चाहिए। जाहिर है हमारे अंदर ही आत्मा और परमात्मा है। जो इन दोनों को पाया समझ लेता है, और उनके अनुसार जीवन निर्वाह करने लगता है, उसका जन्म लेना सफल हो जाता है। मीमांसा दर्शन में कहा गया है-‘धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा’ यानी धर्म से ही सारा विश्व प्रतिष्ठित है। वैशेषिक दर्शन में कहा गया है-जिससे इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति हो वह ही धर्म है। और फिर शास्त्रों में यह कह दिया गया कि दूसरों के साथ वैसा बर्ताव या व्यवहार नहीं करना चाहिए जो खुद को प्रतिकूल लगे। इस तरह देखें तो धर्म हमारे सदकर्मों की आत्मा है। जिस तरह से प्राणवायु के बिना जीवन संभव नही है, वही बात सद्कर्म और धर्म पर लागू होती है। हमारे जीवन के परम चार पुरुषार्थ माने गए हैं। इनमें पहला धर्म है। यज्ञ धर्म है, कर्तव्य धर्म है और सारे शुभकर्म धर्म हैं। इस तरह देखे तो जिससे जीवन का निरंतर विकास और विस्तार हो, जिससे विश्व समाज में स्वर्गिक वातावरण स्थापित हो, वह धर्म है। संत तुलसीदास जी राम राज्य को सर्वोपरि बताया है। क्योंकि भगवान राम के राज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को सताते नहीं थे। हर मनुष्य धर्म और अपने कर्तव्यों का पालन करता था। किसी को किसी के प्रति द्वेष, घृणा और आग्रह व दुराग्रह का भाव नहीं था। शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे। यह सब वेद धर्म को धारण करने के कारण सम्भव था। इसका सीधा सा मतलब है जब से वेद धर्म से इंसान अलग हुआ तब से उसे हर तरह के ताप सताने लगें और पाप में फंसता चला गया। इसलिए महर्षियों और धर्मधुरीणों ने वेदों का पढ़ना-पढ़ाना आर्यों का परम धर्म बताया।

मनुष्य धरती पर एक ऐसा प्राणी है जो सत्य और असत्य को विवेक की तराजू पर तौलकर अलग कर सकता है। सत्य का मतलब जो चीज जैसी है उसे वैसा ही कहना, समझना और मानना। और जिस सत्य की बात शास्त्रों में की गई है, वह सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सर्वकल्याणकारी होता है। इसलिए जब भी सत्य और असत्य के भेद की बात की जाए तो इस सूत्र को अवश्य जान और समझ लेना चाहिए। धरती पर आध्यात्मिक रूप से हर जीव बराबर है। क्योंकि जीव की कोई लिंग, जाति और वर्ग नहीं होता है। इसलिए आध्यात्मिक साधक के लिए शास्त्र में सब के साथ बराबर यानी समदृष्टि अपनाने की बात कही गई है। गीता में भगवान समदृष्टा को ही तपस्वी, साधक और महात्मा तथा संत कहा है। ये गुण ही विश्व समाज को सुखमय, शांतिमय और सुंदर बना सकते हैं। धरती से हिंसा, आतंक और अनाचार इससे ही समाप्त हो सकता है। दुख और द्रारिद्र का इससे ही शमन हो सकता है। अधर्म का नाश और धर्म की बृध्दि का भी यही रास्ता है। कहने का भाव यह है कि सारी समस्याओं का निदान सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के बाद ही हो सकता है। इसलिए हर समय सत्य के मार्ग का पथिक बनकर आगे बढ़ें। इससे अपना तो भला होगा ही, मानवता का भी भला होगा। धरती पर सब धन-धान्य से पूर्ण रहें, किसी को न कोई दुख दे और न किसी से कोई किसी तरह का भेद करे, ऐसा ही व्यवहार सर्वजन हिताय और सर्व जन सुखाय के स्वर्गवादी विचार को साकार रूप दे सकता है।

-लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

1 COMMENT

  1. जब हिन्दू ही इसको नहीं समझते तो दूसरों को कौन समझाए ?

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