अशोक गुप्त
एक होता है ईमानदार और एक होता है कट्टर ईमानदार। जैसे एक होता है ब्राह्मण और एक महाब्राह्मण। अंतर तो आप जानते ही हैं.
ईमानदार व्यक्ति को लेबल की आवश्यकता नहीं होती। उसे लोग उसके आचरण से जानते हैं. ईमानदार आदमी दुनिया में अक्सर पीछे रह जाता है क्योंकि दुनिया में आजकल बेईमानी का ही बोलबाला है। ईमानदार को कोई भाव नहीं देता।
मेरे एक परिचित ठेकेदार हैं वैसे काम उन का अच्छा है पर अपनी ईमानदारी के गुण गान कुछ ज्यादा ही करते रहते हैं। उनका कहना है कि वे कभी कमीशन नहीं खाते । वैसे काम वे वहीँ करते हैं जहाँ न सिर्फ लेबर बल्कि माल मटेरियल लाने की जिम्मेदारी भी हो। यह भी जरूरी है कि काम करवाने वाला उन पर आँख मूँद कर विश्वास करने वाला हो। यदि किसी ने कह दिया कि मटेरियल वह स्वयं ला कर देगा तो फिर समझिये कि उन का पारा चढ़ जाता है. दुकानदार कैसे लूटते है ,इस की सैकड़ों कहानियां उन के पास मौजूद हैं।
यह तो हाल में उन पर शक हुआ जितना मटेरियल वे हमारे खर्च से ला रहे थे ,उसका एक भाग उन के गोदाम में जा रहा था जो फिर बाद में हमें ही पेला जा रहा था पर उनका कहना है कि मटेरियल में वे कुछ नहीं कमाते, अतः उसे लाने का खर्च भी भी वे हमसे कई गुना कर के वसूल लेते हैं। बाद में उन के लेबर से यह भी मालूम हुआ कि लेबर के नाम पर हम से जो वसूला जाता है , बेचारे लेबर को उस से बहुत कम दिया दिया जाता है पर वे इतने कट्टर ईमानदार हैं कि उन का जयघोष है ,’मैं किसी से कमीशन नहीं खाता ‘. इसलिए काम पूरा होने के बाद वे खर्चों के अतिरिक्त अपना सुपरविज़न चार्ज अलग से भी वसूल लेते हैं
पर काठ की हांडी कितने दिन तक चढ़ती है। उन की पोलें खुलनी शुरू हुई तो खुलती चली गई।
यही हाल राजनीति का भी है। एक कट्टर ईमानदार नेता शेष सब को बेईमान बता कर राजनीति में आये. आये तो वे इस बेईमानी के सागर में एक नई राजनीति देने के लिए थे पर मौका लगते ही वे बेईमानी के ऐसे मास्टर हो गए कि सब पुराने घाघ बेईमानों को पीछे छोड़ दिया। शराब के तो वे स्पेशलिस्ट हो गए और पूरी दिल्ली में लोगों के लिए एक के साथ एक फ्री की व्यवस्था करवा दी। ऊपर से तुर्रा यह कि वे और उन के चमचे उनके कट्टर ईमानदार होने का जाप करते हैं।
पर फिर वही बात ,काठ की हांडी कितने दिन चढ़ेगी। आखिर वे जेल पहुँच ही गए पर उन के चमचों ने उन की कट्टर ईमानदारी का गुण गान नहीं छोड़ा। जनता के आगे बहुत गिड़गिड़ाए कि उन्हें कट्टर ईमानदारी का प्रमाणपत्र दे दे पर जनता को उन पर तरस नहीं आया। तरस आया तो सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों को जिन्होंने उन्हें शर्तों सहित जमानत दे दी। अब चमचे इसी जमानत को उन की कट्टर ईमानदारी का साबुत बता कर ढोल पीट रहे हैं पर ये जो पब्लिक है ,वो सब जानती है। वह भी अब समझ गई है कि कट्टर ईमानदार को दूर से ही नमस्कार करना अच्छा।
अशोक गुप्त