टेढ़ी खीर है अगले प्रधानमंत्री की भविष्यवाणी

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Waiting for new PMतनवीर जाफ़री

हमारे देश की संसदीय व्यवस्था के अनुसार संसद या विधानसभा में बहुमत से विजयी होकर आने वाले दल का नेता ही संसदीय दल या विधानमंडल दल का नेता माना जाता है तथा संसदीय या विधानमंडल दल द्वारा उसी निर्वाचित नेता को संसद में प्रधानमंत्री अथवा विधानसभा में मुख्यमंत्री के पद पर सुशोभित किया जाता है। परंतु वास्तव में लोकतांत्रिक दिखाई देने वाले इन नियमों का स्वरूप कुछ बदल सा गया है। अब आमतौर पर प्रमुख पार्टियां चुनाव पूर्व ही अपनी पार्टी के योग्य व जनता के बीच लोकप्रिय समझे जाने वाले चेहरों को चुनाव पूर्व ही जनता के सामने पेश कर देती हंै ताकि जनता यह समझ सके कि उनका भविष्य का नेता अथवा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री कौन होगा। हालांकि सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के सब से बड़े घटक दल के रूप में कांग्रेस पार्टी ने इस समय डा० मनमोहन सिंह को अपने योग्य प्रधानमंत्री के रूप में दूसरी बार प्रधानमंत्री का पद उनके सुपुर्द किया हुआ है। परंतु जिस प्रकार यूपीए का दूसरा कार्यकाल देश के सबसे बड़े घोटालों,भ्रष्टाचार व भीषण मंहगाई का कार्यकाल माना जा रहा है उसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस पार्टी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में पुन: मनमोहन सिंह के चेहरे व उनकी शख्सियत को आगे रख कर जनता के बीच जाएगी। हालांकि डा० मनमोहन सिंह व कांग्रेस पार्टी के पास अपने पक्ष में देने के लिए ढेर सारे तर्क भी हैं। फिर भी अगला चुनाव डा० मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, इस बात को लेकर पूरी शंका बनी हुई है। ऐसे में यह नहीं लगता कि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी इस बार पुन: ‘सिंह इज़ किंग’ का उद्घोष करेंगी।

उधर जिस प्रकार गत् आठ वर्षों में कांग्रेस के सांसदों द्वारा राहुल गांधी को ज़ीना-ब-ज़ीना आगे लाने का प्रयास किया जा रहा है और अब पिछले दिनों उन्हें जयपुर में आयोजित चिंतन शिविर में कांग्रेस पार्टी ने पार्टी महामंत्री से प्रोन्नति कर कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष जैसे अति महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया है उसे देखकर ऐसा लगने लगा है कि 2014 में कांग्रेस पार्टी की ओर से संभवत: राहुल गांधी ही कांग्रेस के प्रमुख सेनापति की भूमिका निभाएंगे। और यदि ऐसा हुआ तथा कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी के नेतृत्व में 2014 में बेहतर प्रदर्शन किया तो इस बात की पूरी संभावना है कि कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को अपनी पार्टी के संसदीय दल का नेता चुनकर उनके प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होने की राह हमवार करेगी। कांग्रेस पार्टी व राहुल गांधी के लिए सुखद यह भी है कि इस पार्टी में भले ही कोई दूसरा नेता कितना ही वरिष्ठ या अनुभवी क्यों न हो परंतु वह भी गांधी परिवार की इच्छाओं के अनुरूप ही अपने विचार व्यक्त करता है या अपनी इच्छाओं का इज़हार करता है। लिहाज़ा इस बात की पूरी संभावना है कि जिस प्रकार 2004 में पूरी कांग्रेस पार्टी एक स्वर से सोनिया गांधी के पीछे खड़ी थी उसी प्रकार संसदीय दल एवं पूरी पार्टी राहुल गांधी के साथ भी एकजुट खड़ी नज़र आएगी। ग़ौरतलब है कि 2004 में सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने छाती पीटना शुरु कर दिया था उस निम्रस्तरीय विरोध प्रदर्शन को देखने के बाद संभवत: सोनिया गांधी ने देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर से अपना मुंह हमेशा के लिए मोड़ लिया है। बजाए इसके अब वे ‘किंग मेकर’ की भूमिका में रहकर अधिक राहत महसूस कर रही हैं।

दूसरी ओर देश की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी भी 2014 में सत्ता में आने के सपने देख रही है। भाजपा का सत्ता में आने पर अगला प्रधानमंत्री कौन होगा इसे लेकर पार्टी के भीतर घमासान मचा हुआ है। कभी देश के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री अथवा प्राईम मिनिस्टर इन वेटिंग बताए जाने वाले लालकृष्ण अडवाणी राजनीति में पूरी तरह सक्रिय होने के बावजूद इस समय सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री पद की दौड़ से बाहर दिखाई दे रहे हैं।परंतु हकीकत में इस समय पार्टी के सबसे वरिष्ठ, कद्दावर व योग्य व्यक्ति अडवाणी ही हैं जिन्हें पार्टी प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर सकती है। परंतु पार्टी के राजनैतिक समीकरण इस समय अडवाणी के पक्ष में कतई नहीं हैं। इसलिए वे स्वयं ही अपने-आप को प्रधानमंत्री की दौड़ से अलग रखने में अपनी इज़्ज़त महसूस कर रहे हैं। ऐसे में पार्टी में सबसे तेज़ी से उभर कर आने वाला नाम नरेंद्र मोदी का है। भाजपा का एक बड़ा वर्ग दो कारणों से नरेंद्र मोदी के भावी प्रधानमंत्री होने की पैरवी कर रहा है। एक तो यह कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के बाद अपनी जो विवादित छवि बनाई है उसका लाभ पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्ववादी मतों को संगठित कर उठाना चाहती है। यानी एक आक्रामक हिंदुत्ववादी नेता की नरेंद्र मोदी की बन चुकी छवि का केंद्रीय सत्ता में आने के लिए इस्तेमाल करना। इसके साथ-साथ गुजरात के कथित विकास मॉडल को भी पार्टी का मोदी समर्थक वर्ग 2014 में जनता के बीच ले जाना चाहता है। यशवंत सिन्हा व राम जेठमलानी जैसे पार्टी नेता हालांकि नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़े दिखाई ज़रूर दे रहे हैं परंतु भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना ने सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी पसंद का नेता बताया है। इसके अलावा भी राजनाथसिंह, शिवराज चौहान जैसे और भी कई प्रथम पंक्ति के नेता प्रधानमंत्री बनने की तमन्ना अपने दिलों में पाले हुए हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि भाजपा के लिए न तो अपने संगठनात्मक स्तर पर किसी एक नाम के लिए एकमत होना आसान है न ही प्रधानमंत्री के पद के लिए शिवसेना जैसे प्रमुख सहयोगी के विचारों की पार्टी अनेदखी कर सकती है। ऐसे में भाजपा 2014 से पूर्व किसके नाम को आगे रखकर चुनाव लड़ती है यह देखने लायक़ होगा।

2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम इस बार भी ऐसे नज़र नहीं आते कि किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त हो और वह अपने अकेले दम पर सरकार बना सके। न ही कांग्रेस पार्टी और न ही भारतीय जनता पार्टी। ज़ाहिर है कि ऐसे में एक बार फिर यूपीए व एनडीए के घटक दलों द्वारा सरकार बनाने के लिए अपनी निर्णायक भूमिका अदा की जाएगी। सांप्रदायिक शक्तियों व धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को लेकर नए समीकरण बनेंगे। यानी केंद्र सरकार के गठन में एक बार फिर क्षेत्रीय दलों का सबसे अहम किरदार होगा। ऐसे में सवाल यह है कि क्या एनडीए व यूपीए के शासन काल की ही तरह 2014 में भी प्रधानमंत्री का पद संसदीय सीटों के अनुपात के अनुसार कांग्रेस या भाजपा जैसे दो बड़े राजनैतिक दलों के खाते में जाएगा? या फिर चौधरी चरणसिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह अथवा चंद्रशेखर, जैसी सरकार की पुनरावृति होने की संभावना है? यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि संभव है कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी,जनता दल युनाईटेड, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस अथवा डीएमके जैसी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस या भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों को अपना समर्थन देने के बजाए उनसे समर्थन लेने व क्षेत्रीय दलों के नेेतृत्व में सरकार बनाने की बात करें। भारतीय जनता पार्टी यदि नरेंद्र मोदी के नाम पर सहमत हो जाती है तो भी कई एनडीए सहयोगियों को भाजपा का साथ छोडऩे का माक़ूल बहाना मिल जाएगा। जैसाकि भाजपा के प्रमुख सहयोगी जेडीयू के स्वर पहले से ही कई बार मोदी के विरोध में उठते दिखाई दे चुके हैं। उधर कांग्रेस भी चूंकि मंहगाई व भ्रष्टाचार व घोटालों के भारी बोझ से दबी हुई है इसलिए संभव है कि प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक क्षेत्रीय दलों के नेता इसी विषय को बहाना बनाकर कांग्रेस को भी अपना समर्थन देने के बजाए उससे समर्थन लेने की बात करें।

अब प्रश्र यह है कि यदि उपरोक्त क्षेत्रीय दलों की चली तो क्षेत्रीय दल आपस में किस नेता के नाम पर सहमत होंगे? ऐसी स्थिति में यूपीए व एनडीए का नया स्वरूप क्या होगा? कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी जैसे दल क्या छोटे व क्षेत्रीय दलों के नेतृत्व में सरकार बनाने व उन्हीं के किसी नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए अपना समर्थन देने को राज़ी होंगे? और यदि राज़ी हो भी गए तो वह समर्थन बाहर से दिया जाने वाला समर्थन होगा या सरकार में शामिल होकर दिया जाने वाला समर्थन? या फिर कांग्रेस व भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल सबसे अधिक सीटें जीतकर लोकसभा में पहुंचने वाली पार्टी के नेता को ही प्रधानमंत्री बनाए जाने का ही दावा पेश करेंगे? और इन्हीं सबसे जुड़ा एक और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्र यह भी है कि जोड़-तोड़ से बनने वाली संभावित गठबंधन सरकार का भविष्य क्या होगा और वह कितनी टिकाऊ व स्थिर सरकार होगी? इन हालात में इस बात की भी क्या गांरटी है कि 2014 में गठित होने वाली सरकार अपना पांच वर्ष का कार्यकाल भी पूरा कर सकेगी अथवा नहीं? बहरहाल उपरोक्त सभी परिस्थितियां ऐसी हैं जिन्हें देखकर आसानी से इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि 2014 के चुनाव परिणाम क्या होंगे तथा 2014 में नए सत्ता समीकरण क्या होंगे तथा देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा?

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  1. बिलकुल सही आकलन है आपका. किन्तु कोई दल ,गठबंधन या मोर्चा चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए किसी खास व्यक्ति को ‘प्रतिबिंबित’ करता है तो उसे भी अलोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता.यह उनका जन्म सिद्ध अधिकार है ,यह भी सुनिश्चित है की जब एक खास दल-गठबंधन-या मोर्चे की ओर से किसी को प्रधान मंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया जाएगा तो उस व्यक्ति की सार्वजनिक ‘निंदा-स्तुति’ भी होगी ही. अब चाहे मोदी हों राहुल हों या तीसरे मोर्चे के कोई अद्रश्य नामवर हों सभी के अपने-अपने ठीये तभी स्थिर हो पायेंगे जब लोकसभा की २७२ से ज्यादा सीटें उनके खाते में हों .
    वर्तमान वैयक्तिक विमर्श में किसी को कोई फायदा नहीं होगा.यदि एनडीए को लगता है की सरकार बस उनकी ही बनने जा रही है तो इसका कारण नरेन्द्र मोदी नहीं बल्कि यूपीए सरकार की कुछ भूलें ,कुछ जन विरोधी नीतियाँ ,महंगाई और भृष्टाचार इत्यादि ही हैं.
    यदि तीसरे मोर्चे और वाम मोर्चे को भी लगता है की वे सत्ता में आ सकते हैं तो भी इसकी वजह वे नहीं बल्कि एनडीए की वे नीतियाँ हैं जो १९९९ से २००४ तक केंद्र में जरी थी और जिनके परिणाम स्वरूप वे सत्ता से बाहर हो गए थे.इंडिया साइनिंग या फील गुड के दुष्प्रचार से ततकालीन भाजपाई नेताओं ने अपने ही कार्यकर्ताओं की मेहनत की फसल केवल अपने स्व्वार्थों में खपा दी थी. इसीलिये तीसरा मोर्चा सोचता है की यूपीए एनडीए के संघर्ष में २७२ का आंकड़ा कहीं नहीं आने वाला सो केंद्र में इन क्षेत्रीय पार्टियों का समूह सता में आ सकता है और कांग्रेस तथा वाम मोर्चा आपस में द्व्न्द्रत होते हुए भी बाहर से ‘विश्नाथ प्रताप सिंह सरकार’ की तरह साथ दे सकते हैं . फर्क सिर्फ इतना है की तब भाजपा राईट विङ्ग में थी अब कांग्रेस राइट विङ्ग में रहेगी . तब तक राहुल को इंतज़ार करना होगा. मोदी जो को मालूम है की उनकी कट्टरवादिता के कारण देश के धर्मनिरपेक्षतावादी उन्हें सहयोग नहीं करेगे सो वे अपने गुजरात में व्यस्त हैं और अंदरूनी राजनीती में मस्त हैं. सिर्फ हिंदूवादी वोटों का ध्रवीकरण कराने के लिए उनके नाम का स्वांग किया जा रहा है यदि एनडीए को बहुमत आ गया तो भाजपा का कोई ‘धर्मनिरपेक्ष’ व्यक्ति प्रधानमंत्री बनेगा.

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