लो फिर आ गया स्वाधीनता दिवस!

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-लिमटी खरे

14 और 15 अगस्त की दर्मयानी रात को 1947 में गोरे ब्रितानियों ने भारत को अपनी गुलामी की जंजीरों से आजादी दी थी। आजाद भारत को संवारने, दिशा देने में उस वक्त के शासकों ने बहुत सारे सपने देखे थे। इन सपनों को साकार करने का माद्दा भी था तत्कालीन शासकांे में। देश के आखिरी आदमी तक आजादी की खुशबू फैलाने के लिए वचनबद्ध थे उस वक्त देश पर शासन करने वाले कांग्रेस के नुमाईंदे। कालांतन मंे आजादी के मायने सिर्फ रसूखदार, नौकरशाह, जनसेवक और धनाड्य वर्ग के लोग ही समझ पाए। देश के गरीब गुरबे आज भी दो वक्त की रोटी के लिए रोज की मारामारी में इतना उलझकर रह गया है कि उसे इस बात का इल्म ही नहीं रहा कि असल आजादी क्या होती है।

विडम्बना देखिए सुबह उठकर पानी भरने से लेकर रात को सोने तक भारत गणराज्य का आम आदमी करों के भारी भरकम बोझ से लदा फदा ही नजर आता है। लोग टेक्स क्यों चुकाते हैं, जाहिर है कि भारत सरकार के पास नोट का पेड तो नहीं लगा है, जो वह आधारभूत संरचना, संस्थागत खर्चे, स्थापना व्यय आदि का भोगमान भोग सके। आजाद भारत में छः दशकों बाद आम आदमी की थाली में अनाज और नौकरशाह और जनसेवकों की मोटी पगार का ही अनुपात देख लिया जाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो सकता है। आज चहुंओर भ्रष्टाचार, अनाचार की गूंज मची है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली सवा सौ साल पुरानी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस सबकों देख सुनकर आंखें मीचे न केवल बैठी है, वरन एसा उपजाउ माहौल प्रशस्त कर रही है कि इन सारी बातों की फसल और अच्छी तैयार हो सके।

हालात देखकर हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज का युवा आजादी के मायने पूरी तरह से भूलता जा रहा है। सत्तर के दशक के उपरांत तो ब्रितानियों के कहर को चित्रित करने वाली रोंगटें खड़े कर देशवासियों के मन में देशप्रेम का सागर हिलोरे मारे इस तरह की फिल्में ही बनना बंद हो गईं। इस सबसे के लिए निश्चित तौर पर देश का सूचना और प्रसारण मंत्रालय ही जवाबदार माना जा सकता है। आज देशप्रेम का जज्बा जगाने के लिए 15 अगस्त, 26 जनवरी और 02 अक्टूबर के दिन ही जगह जगह गाने बजाए जाते हैं।

कितने जतन के बाद भारत देश में 15 अगस्त 1947 को आजादी का सूर्योदय हुआ था। देश को आजाद कराने, न जाने कितने मतवालों ने घरों घर जाकर देश प्रेम का जज्बा जगाया था। सब कुछ अब बीते जमाने की बातें होती जा रहीं हैं। आजादी के लिए जिम्मेदार देश देश के हर शहीद और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की कुर्बानियां अब जिन किताबों में दर्ज हैं, वे कहीं पडी धूल खा रही हैं। विडम्बना तो देखिए आज देशप्रेम के ओतप्रोत गाने भी बलात अप्रसंगिक बना दिए गए हैं। महान विभूतियों के छायाचित्रों का स्थान सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार जैसे आईकान्स ने ले लिया है। देश प्रेम के गाने महज 15 अगस्त, 26 जनवरी और गांधी जयंती पर ही दिन भर और शहीद दिवस पर आधे दिन सुनने को मिला करते हैं।

गौरतलब होगा कि आजादी के पहले देशप्रेम के जज्बे को गानों में लिपिबध्द कर उन्हें स्वरों में पिरोया गया था। इसके लिए आज की पीढी को हिन्दी सिनेमा का आभारी होना चाहिए, पर वस्तुतः एसा है नहीं। आज की युवा पीढी इस सत्य को नहीं जानती है कि देश प्रेम की भावना को व्यक्त करने वाले फिल्मी गीतों के रचियता एसे दौर से भी गुजरे हैं जब उन्हें ब्रितानी सरकार के कोप का भाजन होना पडा था। देशप्रेम की अलख जगाने वाले गीतकारों को ब्रितानियों के कितने जुल्म का शिकार होना पड़ा था इस बात को भी आज की पीढी नहीं जानती।

देखा जाए तो देशप्रेम से ओतप्रोत गानों का लेखन 1940 के आसपास ही माना जाता है। उस दौर में बंधन, सिकंदर, किस्मत जैसे दर्जनों चलचित्र बने थे, जिनमें देशभक्ति का जज्बा जगाने वाले गानों को खासा स्थान दिया गया था। मशहूर निदेशक ज्ञान मुखर्जी द्वारा निर्देशित बंधन फिल्म संभवतः पहली फिल्म थी जिसमें देशप्रेम की भावना को रूपहले पर्दे पर व्यक्त किया गया हो। इस फिल्म में जाने माने गीतकार प्रदीप (रामचंद्र द्विवेदी) के द्वारा लिखे गए सारे गाने लोकप्रिय हुए थे। कवि प्रदीप का देशप्रेम के गानों में जो योगदान था, उसे भुलाया नहीं जा सकता है।

इसके एक गीत ”चल चल रे नौजवान” ने तो धूम मचा दी थी। इसके उपरांत रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जगाने का सिलसिला आरंभ हो गया था। 1943 में बनी किस्मत फिल्म के प्रदीप के गीत ”आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है” ने देशवासियों के मानस पटल पर देशप्रेम जबर्दस्त तरीके से जगाया था। लोगों के पागलपन का यह आलम था कि लोग इस फिल्म में यह गीत बारंबार सुनने की फरमाईश किया करते थे।

आलम यह था कि यह गीत फिल्म में दो बार सुनाया जाता था। उधर प्रदीप के क्रांतिकारी विचारों से भयाक्रांत ब्रितानी सरकार ने प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया, जिससे प्रदीप को कुछ दिनों तक भूमिगत तक होना पडा था। पचास से साठ के दशक में आजादी के उपरांत रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जमकर बिका। उस वक्त इस तरह के चलचित्र बनाने में किसी को पकडे जाने का डर नहीं था, सो निर्माता निर्देशकों ने इस भावनाओं का जमकर दोहन किया। दस दौर में फणी मजूमदार, चेतन आनन्द, सोहराब मोदी, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे नामी गिरमी निर्माता निर्देशकों ने आनन्द मठ, लीजर, सिकंदरे आजम, जागृति जैसी फिल्मों का निर्माण किया जिसमें देशप्रेम से भरे गीतों को जबर्दस्त तरीके से उडेला गया था।

1962 में जब भारत और चीन युद्ध अपने चरम पर था, उस समय कवि प्रदीप द्वारा मेजर शैतान सिंह के अदम्य साहस, बहादुरी और बलिदान से प्रभावित हो एक गीत की रचना में व्यस्त थे, उस समय उनका लिखा गीत ”ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी . . .” जब संगीतकार ए.रामचंद्रन के निर्देशन में एक प्रोग्राम में स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने सुनाया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक सके थे।

इसी दौर में बनी हकीकत में कैफी आजमी के गानों ने कमाल कर दिया था। इसके गीत कर चले हम फिदा जाने तन साथियो को आज भी प्रोढ हो चुकी पीढी जब तब गुनगुनाती दिखती है। सत्तर से अस्सी के दशक में प्रेम पुजारी, ललकार, पुकार, देशप्रेमी, कर्मा, हिन्दुस्तान की कसम, वतन के रखवाले, फरिश्ते, प्रेम पुजारी, मेरी आवाज सुनो, क्रांति जैसी फिल्में बनीं जो देशप्रेम पर ही केंदित थीं।

वालीवुड में प्रेम धवन का नाम भी देशप्रेम को जगाने वाले गीतकारों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। उनके लिखे गीत काबुली वाला के ए मेरे प्यारे वतन, शहीद का ए वतन, ए वतन तुझको मेरी कसम, मेरा रंग दे बसंती चोला, हम हिन्दुस्तानी का मशहूर गाना छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी, महान गायक मोहम्मद रफी ने देशप्रेम के अनेक गीतों में अपना स्वर दिया है। नया दौर के ये देश है वीर जवानों का, लीडर के वतन पर जो फिदा होगा, अमर वो नौजवां होगा, अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं . . ., आखें का उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता. . ., ललकार का आज गा लो मुस्करा लो, महफिलें सजा लो, देश प्रेमी का आपस में प्रेम करो मेरे देशप्रेमियों, आदि में रफी साहब ने लोगों के मन में आजादी के सही मायने भरने का प्रयास किया था।

गुजरे जमाने के मशहूर अभिनेता मनोज कुमार का नाम आते ही देशप्रेम अपने आप जेहन में आ जाता है। मनोज कुमार को भारत कुमार के नाम से ही पहचाना जाने लगा था। मनोज कुमार की कमोबेश हर फिल्म में देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत गाने हुआ करते थे। शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, क्रांति जैसी फिल्में मनोज कुमार ने ही दी हैं, जो फिल्म सादगी भरी कम बजट की होने के बाद भी उस दौर में बाक्स आफिस पर धूम मचा चुकी हैं।

अस्सी के दशक के उपरांत रूपहले पर्दे पर शिक्षा प्रद और देशप्रेम की भावनाओं से बनी फिल्मों का बाजार ठंडा होता गया। आज फूहडता और नग्नता प्रधान फिल्में ही वालीवुड की झोली से निकलकर आ रही हैं। आज की युवा पीढी और देशप्रेम या आजादी के मतवालों की प्रासंगिकता पर गहरा कटाक्ष कर बनी थी, लगे रहो मुन्ना भाई, इस फिल्म में 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के बजाए शुष्क दिवस (इस दिन शराब बंदी होती है) के रूप में अधिक पहचाना जाता है। विडम्बना यह है कि इसके बावजूद भी न देश की सरकार चेती और न ही प्रदेशों की। जनसेवकों ने मुन्ना भाई के उस डायलाग पर ठहाके अवश्य ही लगाए होंगे, पर हंसने वाले जनसेवक यह भूल जाते हैं कि यह कटाक्ष आज के नेताओं पर ही है।

सत्तर के दशक में स्कूल का वो नजारा आज भी हमारे दिलो दिमाग पर जीवंत है, जिसमें पंद्रह अगस्त या 26 जनवरी का दिन छुट्टी का होता है से ज्यादा इस बात के लिए याद किया जाता था, कि इस दिन भारत आजाद हुआ या गणतंत्र की स्थपना हुई थी। इस दिन जिला मुख्यालय में मुख्य कार्यक्रम में जब नेताजी संदेश का वाचन करते थे, तब एक एक शब्द गौर से सुना जाता था। उस वक्त के नेता वाकई आदर्श हुआ करते थे, आज के नेताओं का नैतिक तौर पर इतना पतन हो चुका है कि आजादी के छः दशकों बाद भी देश में जात, पात, मजहब, भाषा, क्षेत्रीयता आदि जैसे मुद्दों पर लोगों को बांटकर राजनीति की जा रही है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत सरकार और राज्यों की सरकारें भी आजादी के सही मायनों को आम जनता के मानस पटल से विस्मृत करने के मार्ग प्रशस्त कर रहीं हैं। देशप्रेम के गाने 26 जनवरी, 15 अगस्त के साथ ही 2 अक्टूबर को आधे दिन तक ही बजा करते हैं। कुल मिलाकर आज की युवा पीढी तो यह समझने का प्रयास ही नहीं कर रही है कि आजादी के मायने क्या हैं, दुख का विषय तो यह है कि देश के नीति निर्धारक भी उन्हें याद दिलाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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  1. यह पन्द्रह अगस्त तो आज़ादी के बाद ६३ बार आ चूका है .अनंत काल तक आता रहेगा ;किन्तु हमें सुधरने के लिए कितने पन्द्रह अगस्त चाहिए ?यह जल्दी निरानीत हो जाये तो ही देश तथा देश के कर्ण धारों के हित में है .एक सवाल और
    लोहिया जी का इस अर्थ में आकलन सही था की “जिन्दा कौम पांच साल का इंतज़ार नहीं करती ” लोहिया जी हम शर्मिंदा हैं …देश के दुश्मन ६३ पन्द्रह अगस्त खा गए और आज भी जिन्दा हैं .जिस कौम पर आपको नाज़ था वो आज भी मानसिक गुलामी में आधी अधूरी आज़ादी में कहने भर को जिन्दा है .
    खरे साब आपका लेखन संतुलित है .बधाई .स्वाधीनता की शुभकामनायें .

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