नए वित्तीय साल से पहले केंद्र सरकार ने आम आदमी को मंहगाई का एक और झटका दिया है। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के दामों में वृद्धि के बाद सरकार ने अब रेल सफर को महंगा करके आम जनता पर महंगाई का एक नया बोझ डाल दिया है। रेल मंत्री पवन बंसल ने रेलवे के सभी दर्जे के किराये में औसतन 15 से 20 फीसद की वृद्धि का एलान कर दिया। जाहिर है कि बेतहाशा मंहगाई के इस दौर में रेल भाड़े में भी वृद्धि हो जाना रेल यात्रियों के लिए और भी तकलीफदेह साबित होगा। लेकिन रेलवे की वित्तीय स्थिति को सामने रखकर देखें तो यह फैसला अलोकप्रिय भले हो, औचित्यहीन बिल्कुल नहीं है। सरकार भले यह सफाई दे कि ताजा बढ़ोतरी का असर आम यात्रियों पर कुछ खास नहीं पडेगा, पर यह जनता पर अकेली मंहगाई की मार नहीं है। स्वाभाविक है कि सरकार का यह फैसला आम जनता को रास नहीं आएगी, लेकिन सभी को यह समझने की जरूरत है कि ऐसा करना रेलवे की सेहत के लिए आवश्यक हो गया था। हांलाकि इस बार किराया बढ़ाने में बेहद सामाजिक तरीका अपनाया गया है, मतलब सभी दर्जों में थोड़ा-बहुत किराया जरूर बढ़ाया गया है। निश्चित रूप से 10 वर्षों के बाद रेल किराए में हुई मामूली वृद्धि से रेल यात्रियों को अपनी जेबें ज़रूर कुछ हल्की करनी पड़ेंगी। परंतु भारतीय रेल व्यवस्था के किसी भी शुभचिंतक को वर्षों के बाद रेल यात्री किराए में हुई वर्तमान वृद्धि पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि रेलवे सालाना 18 फीसदी की दर से घाटे की ओर बढ़ रहा है, जो रेल की सेहत के लिए घातक है। ज़ाहिर है रेल का एकमात्र आय का साधन रेल यात्री किराये तथा मालभाड़ा किराये ही मुख्य हैं। बहरहाल सरकार के इस कदम से जहां रेलवे को साल में तकरीबन 6,000 से 7,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आमदनी होगी। यानी नुकसान 25,000 करोड़ से घटकर 18,000 करोड़ रुपये के आसपास आ जायेगी। लेकिन इस बढ़ोतरी के बाद भी रेलवे के सामने आधुनिकीकरण समेत कई चुनौतियां बरकरार रहेंगी। क्योंकि आज रेलवे को लंबित रेल परियोजनों को पूरा करने के लिए डेढ़ लाख करोड़ की राशि चाहिए। वहीं, दूसरी ओर आम आदमी समेत सभी वर्गों का बजट बिगड़ेगा।
मालुम हों कि पिछले दस सालों से रेलवे का यात्री किराया नहीं बढ़ाया गया था। जिसकी वजह से रेलवे को भारी आर्थिक हानि हो रही थी। हांलाकि 10 साल बाद अचानक रेल किराया बढ़ाने के पीछे पारिख कमेटी का हाथ है। दरअसल एचडीएफसी के अध्यक्ष दीपक पारिख की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय कमेटी ने प्रधानमंत्री से सिफारिश की थी कि रेलवे की माली हालत को सुधारने के लिए यात्री किरायें में वृद्धि करनी चाहिए। रेलवे की वित्तीय हालत काफी चिंताजनक है, क्योंकि इसे अपनी पूरी आय को रेलवे के संचालन में ही झोंक देना पड़ता है और विकास कार्य के लिए कुछ भी बचा नहीं रह जाता है। यहीं वजह है कि इस साल रेलवे को यात्री खंड में 25,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। जो पिछले साल की तुलना में उसका घाटा 4,000 करोड़ रुपए ज्यादा है। बहरहाल पिछले एक दशक से घाटा झेलने के बावजूद रेल यात्रा का किराया जस का तस रखा गया। अब इसे बढ़ाए जाने की जरूरत थी, क्योंकि खर्चा काफी बढ़ गया है। खैर, यदि रेलवे को राजनीति का हिस्सा नहीं बनाया जाता और उसके किरायें में प्रतिवर्ष न सही, दो वर्ष के अंतराल में भी मामूली बढ़ोतरी की जाती तो आज जो नौबत रेलवे के सामने आई उससे बचा जा सकता था। साथ ही, सरकार को भी आनन- फानन नें बजट से ठीक डेढ़ महीनें पहले ऐसा कदम उठाने की जरूरत नहीं पड़ती।
अहम प्रश्र यह है कि आखिर आधुनिकीकरण, सुविधा या सुरक्षा तथा तीव्र गति आदि सुनिश्चित करने का दबाव सहन करने वाला हमारा रेल बिना किराया वृद्धि के किस प्रकार और कब तक राष्ट्र के जीवनरेखा रूपी देश के इस सबसे विशाल तंत्र को संचालित करता रह सकता है़? यहां यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि गत् दस वर्षों में डीज़ल के मूल्य किस कद्र बढ़ गए हैं? कोयला जोकि अभी भी हमारे देश के विद्युत उत्पादन का प्रमुख स्त्रोत है कितना मंहगा हो चुका है? और तो और रेल कर्मचारियों की अपनी तनख्वाहें भी इन दस वर्षों में कहां पहुंच चुकी हैं? परंतु अब तक देश में यदि कुछ मंहगा नहीं हुआ था तो वह था मात्र रेल किराया। और इस किराया न बढ़ाए जाने जैसी लोकलुभावनी रणनीति के जनक बने थे लालू प्रसाद यादव। दरअसल गठबंधन की राजनीति के दौर में रेलवे को सियासी सौदेबाजी का जरिया बना दिया गया, जिसके कारण रेलवे की तमाम योजनाएं ठप पड़ गई। जिसका असर रेलवे के आधुनिकीकरण, उसके विस्तार और यात्री सुरक्षा आदि पर पड़ा।
हांलाकि रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने किराया बढ़ाने के पीछे तर्क दिया कि रेलवे को बढ़ते घाटे और उसकी दशा को सुधारने के लिए इस तरह के कड़े कदम उठाना जरूरी हो गया था। रेल मंत्री ने ने जनता के जख्मों पर मरहम लगाते हुए यह जरूर कहा कि रेल बजट में किराए में कोई वृद्धि नहीं होगी। लेकिन उन्होंने माल भाड़े के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा। माना जा रहा है कि करीब डेढ़ महीने बाद आने वाले रेल बजट में मालभाड़े में भी बढ़ोतरी हो सकती है। अगर माल भाड़ा भी बढ़ाया गया, तो यह आम लोगों पर दोहरी मार होगी, क्योंकि इस कारण महंगाई और बढ़ जाएगी। लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या किराया बढ़ने के बाद अब सुविधाओं को बेहतर किया जाएगा? क्योंकि आम जनता को रेल में उतनी सुविधाएं नहीं मिल पाती जितनी सुविधाओं के लिए वह पैसा खर्च करती है।
ज्ञात रहे, 17 सालों बाद रेल मंत्रालय पूरी तरह कांग्रेस के हाथ में आया है। रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने पदभार ग्रहण करते वक्त ही साफ कर दिया था कि रेल किराया बढाने की जरूरत है। गौरतलब है कि इससे पहले तृणमूल कांग्रेस नेता और तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को सिर्फ इसलिए अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी क्योंकि उन्होंने रेल बजट में किराया बढ़ाने का ऐलान कर दिया था। इसके बाद ममता बनर्जी ने उनसे त्यागपत्र ले लिया था और उनकी जगह मुकुल रॉय को रेलमंत्री बनाया गया था। हांलाकि इसके बाद एसी-1 और एसी-2 को छोड़कर बाकी किरायों को सरकार ने रोलबैक किया था।
रेल किराये में रेल बजट के पहले वृद्धि को लेकर कई राजनीतिक दलों ने अपनी आपत्ति जताते हुए केंद्र सरकार के इस फैसले को जनविरोधी करार दिया है। सरकार के इस फैसले से केवल विपक्ष ही नहीं, बल्कि सरकार की दो बड़ी सहयोगी पार्टी बीएसपी और डीएमके ने आपत्ति जताई है। हांलाकि विभिन्न विपक्षी दलों ने कहा कि किराए में वृद्धि करने के स्थान पर रेलवे को अन्य तरीके से राजस्व जुटाने पर जोर देना चाहिए था। विपक्षी दलों कहा कि किराए में करीब 15 से 20 प्रतिशत तक की वृद्धि आम लोगों के लिए बड़ा झटका है। जबकि मुरूय विपक्षी पार्टी भाजपा ने तो सभी किराये में बढ़ोतरी को वापस लेने की मांग की है। दरअसल इसी राजनीति ने देश के सामने तमाम समस्याएं खड़ी कर दी हैं। वास्तव में जनविरोधी तो रेल के जरिये राजनीति करना है। इसका कोई औचित्य नहीं कि वाहवाही लूटने के लिए रेलवे को घाटे में डुबो दिया जाए। लागत से कम मूल्य पर कोई सुविधा देने की एक सीमा होती है। रेल किराये में वृद्धि का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों से पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने कभी इस पर गौर किया है कि रेल यात्रा की तुलना में सड़क परिवहन कितना महंगा हो गया है? वास्तव में विपक्षी दल अपने इस विरोध से आम लोगों में निश्चित रूप से यही संदेश भेजना भी चाहते हैं कि वे आम जनता की वास्तविक हितैषी हैं। क्योंकि उनकी नज़रें अब 2014 के लोकसभा चुनावों पर लगी हुई हैं। कुल मिलाकर रेल किराया वृद्धि को लेकर संप्रग तथा विपक्षी दलों के भीतर हो रही राजनीति भारतीय रेल के विकास के लिए कतई उचित नहीं है। अच्छा तो यह होता कि रेलवे को राजनीति से मुक्त रखकर व्यावहारिक तरीके से किराये बढ़ाए जाते, जिससे यात्रियों पर भी मार नहीं पड़ता