हिंद स्वराज : गोला- बारूद

नवभवन द्वारा प्रकाशित महात्‍मा गांधी की महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक ‘हिंद स्‍वराज’ का बारहवां पाठ

hind swarajjपाठक: डर से दिया हुआ जब तक डर रहे तभी तक टिक सकता है, यह तो आपने विचित्र बात कही। जो दिया सो दिया। उसमें फिर क्या हेरफेर हो सकता है?

संपादक: ऐसा नहीं है। 1857 की घोषणा बलवे के अंत में लोगों में शान्ति कायम रखने के लिए की गई थी। जब शान्ति हो गई और लोग भोले दिल के बन गये, तब उसका अर्थ बदल गया। अगर मैं सजा के डर से चोरी न करूं तो सजा का डर मिट जाने पर चोरी करने की मेरी फिर से इच्छा होगी और मैं चोरी करूंगा। यह तो बहुत ही साधारण अनुभव है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हमने मान लिया है कि डांट डपटकर लोगों से काम लिया जा सकता है और इसलिए हम ऐसा करते आये हैं।

पाठक: आपकी यह बात आपके खिलाफ जाती है, ऐसा आपको नहीं लगता। आपको स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजों ने खुद जो कुछ हासिल किया है वह मार काट करके ही हासिल किया है। आप कह चुके हैं कि (मार-काट से) उन्होंने जो कुछ हासिल किया है वह बेकार है, यह मुझे याद है। इससे मेरी दलील को धक्का नहीं पहुंचता। उन्होंने बेकार (चीज) पाने का सोचा और उसे पाया। मतलब यह कि उन्होंने अपनी मुराद पूरी की। साधन क्या था इसकी चिन्ता हम क्यों करें। अगर हमारी मुराद अच्छी हो तो क्या उसे हम चाहे जिस साधन से मार काट करके भी पूरा नहीं करेंगे।

चोर मेरे घर में घुसे तब क्या मैं साधन का विचार करूंगा? मेरा धर्म तो उसे किसी भी तरह बाहर निकालने का ही होगा। ऐसा लगता है कि आप यह तो कबूल करते हैं कि हमें सरकार के पास अरजियां भेजने से कुछ नहीं मिला है और न आगे कभी मिलने वाला है। तो फिर उन्हें मारकर हम क्यों न लें। जरूरत हो उतनी मार का डर हम हमेशा बनाये रखेंगे। बच्चा अगर आग में पैर रखे और उसे आग से बचाने के लिए हम उस पर रोक लगायें तो आप भी इसे दोष नहीं मानेंगे किसी भी तरह हमें अपना काम पूरा कर लेना है।

संपादक: आपने दलील तो अच्छी की। वह ऐसी है कि बहुतों ने उससे धोखा खाया है। मैं भी ऐसी ही दलील करता था। लेकिन अब मेरी आंखें खुल गई हैं और मैं अपनी गलती समझ सकता हूं। आपको वह गलती बताने की कोशिश करूंगा। पहले तो इस दलील पर विचार करें कि अंग्रेजों ने जो कुछ पाया वह मार काट करके पाया। इसलिए हम भी वैसा ही करके मनचाहा ही चीज पायें। अंग्रेजों ने मार-काट की और हम भी कर सकते हैं। यह बात तो ठीक है। लेकिन मार-काट से जैसी चीज उन्हें मिली, वैसी ही हम भी ले सकते हैं। आप कबूल करेंगे कि वैसी चीज हमें नहीं चाहिये। आप मानते हैं कि साधन और साध्य, जरिया और मुराद के बीच कोई संबंध नहीं है। यह बहुत बड़ी भूल है। इस भूल के कारण जो लोग धार्मिक कहलाते हैं उन्होंने घोर कर्म किये हैं।

यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। मेरे लिए समुद्र पार करने का साधन जहाज ही हो सकता है। अगर मैं पानी में बैल गाड़ी डाल दूं तो वह गाड़ी और मैं दोनों समुद्र के तले पहुंच जायेंगे। जैसे देव वैसी पूजा। यह वाक्य बहुत सोचने लायक हैं। उसका गलत अर्थ करके लोग भुलावे में पड़ गये हैं। साधन बीज है और साध्य हासिल करने की चीज पेड़ है। इसलिए जितना सम्बन्ध बीज और पेड़ के बीच है, उतना ही साधन और साध्य के बीच है। शैतान को भजकर मैं ईश्वर भजन का फल पाऊं, यह कभी हो ही नहीं सकता। इसलिए यह कहना कि हमें तो ईश्वर को ही भजना है, साधन भले शैतान हो, बिल्कुल अज्ञान की बात है। जैसी करनी वैसी भरनी।

अंग्रेजों ने मार काट करके 1833 में वोट के (मत के) विशेष अधिकार पाये। क्या मार काट कर के वे अपना फर्ज समझ सके। उनकी मुराद अधिकार पाने की थी, इसलिए उन्होंने मार-काट मचाकर अधिकार पा लिये, सच्चे अधिकार तो फर्ज के फल हैं। वे अधिकार उन्होंने नहीं पाये। नतीजा यह हुआ कि सबने अधिकार पाने का प्रयत्न किया लेकिन फर्ज सो गया। जहां सभी अधिकार की बात करें, वहां कौन किसको दे। वे कोई भी फर्ज अदा नहीं करते।

ऐसा कहने का मतलब यहां नहीं है। लेकिन जो अधिकार वे मांगते थे, उन्हें हासिल करके उन्होंने वे फर्ज पूरे नहीं किये जो उन्हें करने चाहिये थे। उन्होंने योग्यता प्राप्त नहीं की। इसलिए उनके अधिकार उनकी गरदन पर जूए की तरह सवार हो बैठे हैं। इसलिए जो कुछ उन्होंने पाया है वह उनके साधन का की परिणाम है। जैसी चीज उन्हें चाहिये थी वैसे साधन उन्होंने काम में लिये।

मुझे अगर आपसे आपकी घड़ी छीन लेनी हो तो बेशक आपके साथ मुझे मार पीट करनी होगी, लेकिन अगर मुझे आपकी घड़ी खरीदनी हो, तो आपको दाम देने होंगे। अगर मुझे बख्शिश के तौर पर आपकी घड़ी लेनी होगी तो मुझे आपसे विनय करनी होगी। घड़ी पाने के लिए मैं जो साधन काम में लूंगा उसके अनुसार वह चोरी का माल, मेरा माल या बख्शिश की चीज होगी। तीन साधनों के तीन अलग परिणाम आयेंगे, तब आप कैसे कह सकते हैं कि साधन की कोई चिन्ता नहीं। अब चोर को घर में से निकालने की मिसाल लें। मैं आपसे इसमें सहमत नहीं हूं कि चोर को निकालने के लिए चाहे जो साधन काम में लिया जा सकता है।

अगर मेरे घर में मेरा पिता चोरी करने आयेगा तो मैं एक साधन काम में लूंगा। अगर कोई मेरी पहचान का चोरी करने आयेगा तो मैं तीसरा साधन काम में नहीं लूंगा और कोई अनजान आदमी आयेगा तो मैं तीसरा साधन काम में लूंगा। अगर वह गोरा हो, तो एक साधन और हिन्दुस्तानी हो, तो दूसरा साधन काम में लाना चाहिये। ऐसा भी शायद आप कहेंगे अगर कोई मुर्दा लड़का चोरी करने आया होगा, तो मैं बिलकुल दूसरा ही साधन काम में लूंगा। अगर वह मेरी बराबरी का होगा, तो और ही कोई साधन मैं काम में लूंगा, और अगर वह हथियारबंद तगड़ा आदमी होगा तो मैं चुपचाप सो रहूंगा। इसमें पिता से लेकर ताकतवर आदमी तक अलग-अलग साधान इस्तेमाल किये जायेंगे।

पिता होगा तो भी मुझे लगता है कि मैं सो रहूंगा और हथियार से लैस कोई होगा, तो भी मैं सो रहूंगा। पिता में भी बल है, हथियारबंद आदमी में भी बल है। दोनों बलों को बस होकर मैं अपनी चीज को जाने दूंगा। पिता का बल मुझे दया से रुलायेगा। हथियारबंद आदमी का बल मेरे मन में गुस्सा पैदा करेगा। हम कट्टर दुश्मन हो जायेंगे। ऐसी मुश्किल हालत हैं। इन मिसालों से हम दोनों साधनों के निर्णय पर तो नहीं पहुंच सकेंगे। मुझे तो सब चोरों के बारे में क्या करना चाहिये यह सूझता है। लेकिन उस इलाज से आप घबरा जायेंगे, इसलिए मैं आपके सामने उसे नहीं रखता। आप इसे समझ लें और अगर नहीं समझेंगे तो हर वक्त आपको अलग साधन काम में लेने होंगे। लेकिन आपने इतना तो देखा कि चोर को निकालने के लिए चाहे जो साधन काम नहीं देगा और जैसा साधन आपका होगा उसके मुताबिक नतीजा आयेगा। आपका धर्म किसी भी साधन से चोर को घर से निकालने का हरगिज नहीं है।

जरा आगे बढ़े। वह हथियारबंद आदमी आपकी चीज ले गया है। आपने उसे याद रखा है। आपके मन में उस पर गुस्सा भरा है। आप उस लुच्चे को अपने लिए नहीं लेकिन लोगों के कल्याण के लिए सजा देना चाहते हैं। आपने कुछ आदमी जमा किये, उसके घर पर आपने धावा बोलने का निश्चय किया। उसे मालूम हुआ, तो वह भागा। उसने दूसरे लूटेरे जमा किये। वह भी खिजा हुआ है। अब तो उसने आपका घर दिन दहाड़े लूटने का संदेश आपको भेजा है। आप उसके मुकाबले के लिए तैयार बैठे हैं। इस बीच लूटेरा आपके आसपास के लोगों को हैरान करता है। वे आपसे शिकायत करते हैं। आप कहते हैं, यह सब मैं आप ही के लिए तो करता हूं, मेरा माल गया उसकी तो कोई बिसात ही नहीं। लोग कहते हैं पहले तो वह हमें लूटता नहीं था। आपने जब से उसके साथ लड़ाई शुरू की है, तभी से उसने यह काम शुरू किया है।

आप दुविधा में फंस जाते हैं। गरीबों के ऊपर आपको रहम है। उनकी बात सही है। अब क्या किया जाय? क्या लुटेरे को छोड़ दिया जाय? इससे तो आपकी इज्जत चली जायेगी, इज्जत सबको प्यारी होती है। आप गरीबों से कहते हैं, कोई फिक्र नहीं, आइये मेरा धन आपका ही है। मैं आपको हथियार देता हूं। मैं आपको उनका उपयोग सिखाऊंगा। आप उस बदमाश को मारिये। छोड़िये नहीं! यों लड़ाई बढ़ी, लुटेरे बढ़े, लोगों ने खुद होकर मुसीबत मोल ली। चोर से बदला लेने का परिणाम यह आया कि नींद बेचकर जागरण मोल लिया। जहां शांति थी वहां अशाति पैदा हुई। पहले तो जब मौत आती तभी मरते थे। अब तो सदा ही मरने के दिन आये। लोग हिम्मत हारकर पस्तहिम्मत बने। इसमें मैंने बढ़ा चढ़ाकर कुछ नहीं कहा है, यह आप धीरज से सोचेंगे तो देख सकेंगे। यह एक साधन हुआ।

अब दूसरे साधन की जांच करें, चोर को आप अज्ञान मान लेते हैं। कभी मौका मिलने पर उसे समझाने का आपने सोचा है। आप यह भी सोचते हैं कि वह भी हमारे जैसा आदमी है। उसने किस इरादे से चोरी की, यह आपको क्या मालूम? आपके लिए अच्छा रास्ता तो यही है कि जब मौका मिले तब आप उस आदमी के भीतर से चोरी का बीज ही निकाल दें। ऐसा आप सोच रहे हैं, इतने में वे भाई साहब फिर से चोरी करने आते हैं। आप नाराज नहीं होते, आपको उस पर दया आती है। आप सोचते हैं कि यह आदमी रोगी है।

आप खिड़की दरवाजे खोले देते हैं। आप अपनी सोने की जगह बदल देते हैं। आप अपनी चीजें झट लें जाई जा सकें, इस तरह रख देते हैं। चोर आता है। वह घबराता है। यह सब उसके लिये ही मालूम होता है। माल तो वह ले जाता है, लेकिन उसका मन चक्कर में पड़ जाता है। वह गांव में जांच पड़ताल करता है। आपकी दया के बारे में उसको मालूम होता है। वह पछताता है और आपसे माफी मांगता है। आपकी चीजें वापस ले आता है। वह चोरी का धंधा छोड़ देता है। आपका सेवक बन जाता है। आप उसे काम धंधे में लगा देते हैं। यह दूसरा साधन है।

आप देखते हैं कि अलग अलग साधनों के अलग अलग नतीजे आते हैं। सब चोर ऐसा ही बरताव करेंगे या सबमें आपका सा दयाभाव होगा, ऐसा मैं इससे साबित नहीं करना चाहता। लेकिन यही दिखाना चाहता हूं कि अच्छे नतीजे लाने के लिए अच्छे ही साधन चाहिये और अगर सब नहीं तो ज्यादातर मामलों में हथियार बल से दयाबल ज्यादा ताकतबर साबित होता है। हथियार में हानि है, दया में कभी नहीं।

अब अरजी की बात लें। जिसके पीछे बल नहीं है वह अरजी निकम्मी है, इसमें कोई शक नहीं। फिर भी स्व. न्यायमूर्ति रानडे कहते थे कि अरजी लोगों को तालीम देने का एक साधन है। उससे लोगों को अपनी स्थिति का भान कराया जा सकता है और राजकर्ता को चेतावनी दी जा सकती है। यों सोचें तो अरजी निकम्मे की चीज नहीं है। बराबरी का आदमी अरजी करेगा तो वह उसकी नम्रता की निशानी मानी जायगी। गुलाम अरजी करेगा तो वह उसकी गुलामी की निशानी होगी। जिस अरजी के पीछे बल है, वह बराबरी के आदमी की अरजी है, और वह अपनी मांग अरजी के रूप में रखता है, यह उसकी खानदानियत को बताता है।

अरजी के पीछे दो तरह के बल होते हैं। एक है अगर आप नहीं देंगे तो हम आपको मारेंगे, यह गोला बारूद का बल है। उसका बुरा नतीजा हम देख चुके, दूसरा बल यह है अगर आप नहीं देंगे तो हम आपके अरज दार नहीं रहेंगे। हम अरज दार होंगे तो आप बादशाह बने रहेंगे। हम आपके साथ कोई व्यवहार नहीं रखेंगे। इस बल को चाहे दया बल कहें, चाहे आत्मबल कहें या सत्याग्रह कहें। यह बल अविनाशी है और इस बल का उपयोग करने वाला अपनी हालत को बराबर समझता है। इसका समावेश हमारे बुजुर्गों ने, एक नहीं सब रोगों की दवा में किया है। यह बल जिसमें है उसका हथियार बल कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

बच्चा अगर आग में पैर रखे, तो उसको दबाने की मिसाल की छान बीन करने में तो आप हार जायेंगे। बच्चे के साथ आप क्या करेंगे? मान लीजिये कि बच्चा ऐसा जोर करे कि आपको मारकर वह आग में जा पड़े, तब तो आग में पड़े बिना वह रहेगा ही नहीं। इसका उपाय आपके पास यह है या तो आग में पड़ना आपसे देखा नहीं जाता इसलिए आप स्वयं आग में पड़कर अपनी जान दे दें। आप बच्चे के प्राण तो नहीं ही लेंगे। आप में अगर संपूर्ण दयाभाव न हो तो मुमकिन है कि आप अपने प्राण नहीं देंगे तो फिर लाचारी से आप बच्चे को आग में कूदने देंगे। इस तरह आप बच्चे पर हथियार बल का उपयोग नहीं करते हैं। बच्चे को आप और किसी तरह रोक सकें तो रोकेंगे और वह बल कम दर्जे का लेकिन हथियार बल ही होगा। ऐसा भी आप न समझ लें। वह बल और ही प्रकार का है। उसी को समझ लेना है।

बच्चे को रोकने में आप सिर्फ बच्चे का स्वार्थ देखते हैं। जिसके ऊपर आप अंकुश रखना चाहते हैं, उस पर उसके स्वार्थ के लिए ही अंकुश रखेंगे। यह मिसाल अंग्रेजों पर जरा भी लागू नहीं होती। आप अंग्रेजों पर जो हथियार बल का उपयोग करना चाहते हैं, उसमें आप अपना ही, यानी प्रजा का स्वार्थ देखते हैं। उसमें दया जरा भी नहीं है।

अगर आप यों कहें कि अंग्रेज जो अधम नीच काम करते हैं, वह आग है, वे आग में अज्ञान के कारण जाते हैं और आप दया से अज्ञानी को यानी बच्चे को उससे बचाना चाहते हैं, तो इस प्रयोग को आजमाने के लिए आपको जहां जहां जो भी आदमी नीच काम करता होगा वहां वहा पहुंचना होगा और सामने वाले के बच्चे के प्राण लेने के बजाय अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी। इतना पुरुषार्थ आप करना चाहें तो कर सकते हैं। आप स्वतंत्र है। पर यह बात बिलकुल असंभव है।

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