बिन्दी-बिन्दी खरोंच रहा हूँ
अपना ही मुख नोंच रहा हूँ
जितना सोचूं उतना उलझूं,
उलझ-उलझ कर सोच रहा हूँ ।
तुम भी सोचो,मैं भी सोचूं,
आओ मिलकर सारे सोचें-
अपने ही घर विवश हुई क्यों
हिन्दी ‘‘दिवस‘‘ मनाने को ??
माता छोड़ विमाता पूजें,
छोड़ आसमा छाता पूजें ,
दूर कहीं से आई चलकर ,
मान उसे बेहमाता पूजें ।
ज्ञान -विज्ञान की राज बनी है ,
जन-जन की आवाज बनी है ,
बुश-बलेयर की बोली अब –
भाषाओं का ताज बनी है ।
बुद्धि-रस को चूस रही है,
अमर-बेल बन छा जाने को।
अपने ही घर विवश हुई क्यों-
हिन्दी ‘‘दिवस’’ मनाने को ??
आओ बैठो कारण खोजो ,
कारण खोज निवारण खोजो ,
ऐसा प्रण धारो सब मन में-
हिन्दी का विस्तारण हो जो ।
लिखो हिन्दी ,बोलो हिन्दी ,
रग-रग में तुम घोलो हिन्दी ।
विश्व ताज को छीन ओढ़ ले-
ऐसी हिन्दी बन जाने को । ।
अपने ही घर विवश हुई क्यों –
हिन्दी ‘‘ दिवस‘‘ मनाने को ??