हिन्दी, हिन्दू , हिन्दुस्तान : शब्दों की दास्तान

hindu डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री

हिन्दी , हिन्दू , हिन्दुस्तान –  आज ये शब्द सभी देशवासियों की  शब्दावली के सुपरिचित शब्द हैं। इसलिए आज यह कल्पना करना भी कठिन है कि कभी ये शब्द सर्वथा अपरिचित थे, अज्ञात थे ।  कुछ लोग कहते हैं कि ये शब्द  उसी हिन्दू धर्म से संबंधित हैं जो इस देश का सबसे प्राचीन धर्म है और आज भी इस देश के अधिकांश लोग जिसके अनुयायी हैं। दूसरे शब्दों में, जहाँ हिन्दू धर्मानुयायी रहते हों वह स्थान हिन्दुस्तान/ हिन्दुस्थान ; और हिन्दुओं की भाषा हिंदी। पर कठिनाई यह है कि यद्यपि हिन्दी इस देश की प्रमुख भाषा है, तथापि न तो सारे हिन्दू हिन्दीभाषी हैं, और न सारे हिन्दीभाषी हिन्दू हैं। साथ ही इस देश में केवल हिन्दू धर्मानुयायी ही नहीं अन्य धर्मानुयायी भी रहते हैं। इसके अतिरिक्त, जिसे हम  हिन्दू धर्म कहते हैं, उसका सारा प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा में है और उस साहित्य में कहीं भी इनमें से कोई शब्द मिलता ही नहीं।  अतः यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इन शब्दों का कोई सम्बन्ध संस्कृत से नहीं है।   तो प्रश्न उठता है कि ये शब्द आए कहाँ से ? और हमारे समाज में प्रचलित कैसे हो गए ?

इस विषय में लोगों में मतभेद है।  कुछ लोगों का मानना है कि इन शब्दों के मूल में है हिन्दू शब्द जो मुसलमानों की देन है। हिन्दुओं और मुसलमानों का वैमनस्य पुराने समय से चला आ रहा है, अतः उन्होंने इस शब्द का प्रयोग गर्हित अर्थ में किया। अपने पक्ष की पुष्टि में वे अरबी भाषा के ऐसे शब्दकोशों को उद् धृत  करते हैं जिनमें ‘ हिन्दू ‘ का अर्थ चोर, लुटेरा, लम्पट आदि दिया हुआ है ; पर दूसरे लोग इसका खंडन करते हुए कहते हैं कि मुसलमान जिस इस्लाम मज़हब के अनुयायी हैं उसकी शुरुआत तो अब से लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष पूर्व ही हुई है , जबकि हिन्दू धर्म इससे बहुत पुराना  है।  साथ ही,  ये शब्द इस्लाम की शुरुआत से पहले भी विश्व साहित्य में मिलते हैं।  आइये देखें कि वास्तविकता क्या है।

विद्वानों का कहना है कि प्राचीन संस्कृत और पालि ग्रंथों में तो हिन्दी / हिन्दू / हिन्दुस्तान शब्द  कहीं भी नहीं मिलते, पर विश्व साहित्य में  इस देश के सम्बन्ध में ‘ हिन्दू ‘ या ‘ इंडो ‘ शब्द  मिलते  हैं।   भारत के बाहर हिन्दू शब्द का प्राचीनतम उल्लेख पारसियों के धर्मग्रन्थ अवेस्ता में  मिलता  है (रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय , लोकभारती प्रकाशन,  इलाहाबाद,  1993 ; पृष्ठ 112 );   पर अनुमान है कि वहां यह शब्द इस देश की प्रमुख नदी     ‘ सिन्धु ‘ के लिए आया है , किसी धर्म के अनुयायियों के लिए नहीं। अवेस्ता के अतिरिक्त  ‘ हिन्दू ‘ शब्द का प्राचीन  उल्लेख ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व के फारस ( वर्तमान ईरान ) के नरेश दारा महान ( ईसा पूर्व 522 – 486 ; यूनानियों ने उसका नाम Darius लिखा है ) के अभिलेखों में पाया जाता है।  पर वहां हिन्दू शब्द का प्रयोग न तो किसी नदी के लिए हुआ है और न किसी धर्म के लिए। इस अभिलेख में वह  एक प्रदेश का नाम है।  दारा के साम्राज्य में 23  प्रांत थे जिन्हें ” क्षत्रपियाँ ” कहा जाता था।  उनमें  से  ‘ गंदार ‘ और ‘ हिंदु ‘  भारतीय भूभाग में थीं।  दारा महान के पर्सिपालिस  अभिलेख और नख्शे रुस्तम अभिलेख में गंदार के साथ हिंदुश का उल्लेख है।  उसके एक और अभिलेख ( सूसा पैलस ) में ‘ हिन्दव ‘ शब्द आया है। दारा महान के बाद पारसीक नरेश शेरेश  (xerexsus) के पर्सिपालिस अभिलेख में भी गंदार और हिंदुश शब्द पाए गए हैं।  यह गंदार भारत का गांधार प्रदेश ( वर्तमान अफगानिस्तान ) और हिंदु / हिंदुश सिन्धु प्रदेश था ।

भाषा वैज्ञानिकों का कहना है कि  पारसीक लोग प्राचीन फारसी भाषा बोलते थे जिसमें  ‘ स ‘  का उच्चारण ‘ ह ‘ होता था।  इसीलिए वहां  ‘ सप्ताह ‘ को ‘ हफ्ता ‘, असुर को ‘ अहुर ‘ , ‘ सोम ‘ को ‘ अहोम ‘ कहा जाता था।  और इसी वज़न पर  ‘ सिन्धु ‘  का  ‘  हिंदु ‘  हो गया जो सिन्धु नदी से सिंचित प्रदेश का भी नाम था और उस प्रदेश के निवासियों का भी।  कालान्तर में उस प्रदेश के निवासियों को एवं उनकी भाषा को ‘ हिंदी ‘ भी कहने लगे वैसे ही जैसे सिंध के रहने वालों  को और उनकी भाषा को ‘ सिंधी ‘  कहते हैं।  ‘ स ‘   के स्थान पर  ‘ ह ‘ का प्रयोग करने की प्रवृत्ति अपने भी  देश में मौजूद है।  राजस्थान में उदयपुर  और उसके आसपास  के क्षेत्रों में ‘ सड़क ‘  को ‘ हड़क ‘ , ‘ छह – सात ‘  को ‘ छह – हात ‘  कहा जाता है ।

पारसीक तो हमारे पड़ोसी थे, और वेदमत के ही अनुयायी थे।  उनके धर्मग्रन्थ ‘ अवेस्ता ‘ और हमारे धर्मग्रन्थ वेद का  उद्गम एक ही धातु  ‘ विद ‘  ( ज्ञान / जानना ) से हुआ है।  वेद और अवेस्ता की विषय वस्तु में भी बहुत कुछ समानता है।   पारसीकों  के माध्यम से  जब यूनानियों  का ‘ हिंदु ‘ शब्द से परिचय हुआ तो उन्होंने ‘ हिंदु ‘  के महाप्राण ‘ हि’  को अल्पप्राण ‘ इ ‘ कर लिया क्योंकि यूनानी में ‘ ह ‘ के लिए कोई अक्षर नहीं था।  इसलिए वे  ‘ हिंदु ‘ को ‘ इंदु ‘  (Indu ) / ‘ इन्दो ‘ (Indo )  लिखने और बोलने लगे।  सिन्धु में कई नदियाँ आकर मिलती हैं।  अतः यूनानियों ने उसे ‘ इंदुज ‘ ( Indus ) कहा , जैसे गंगा को गैंजेज (Ganges ) कहा।  इस इंदुज शब्द का ही उच्चारण बाद में  लोग ‘ इन्डस ‘ करने  लगे।  इसी  विकृति से ‘ इंडिया ‘ नाम निकला।  इटली के कवि वर्जिल ( ईसा पूर्व  70 – 19 )  ने  इंडिया के बदले केवल  ‘  इंद ‘  लिखा है और अंग्रेजी कवि  जान  मिल्टन ( 1608 – 1674 )  ने भी भारत का नाम  ‘ इंड ‘  ही लिखा है।

चीनी यात्री हुएनसांग (629 ईसवी ) ने भी  इस देश को ‘ हिंदु ‘ कहा है , पर उसने इस शब्द का उद्गम  सिन्धु नदी के बजाय चीनी भाषा के शब्द ‘ इन्तु ‘ से बताया है जिसका अर्थ चंद्रमा होता है। उसने लिखा है कि आकाश में  तारों के बीच चन्द्रमा  की जैसी प्रतिष्ठा होती है,  संसार में उसी प्रकार प्रतिष्ठित होने के कारण भारत को चीन के लोग ‘ इन्तु ‘  या ‘ हिंदु ‘ कहते हैं।  हुएनसांग का यह विवरण  हमें इस तथ्य का स्मरण करा देता है कि यह देश कभी विश्व गुरू रहा है, ज्ञान – विज्ञान में ही नहीं, मानव व्यवहार की शिक्षा देने में भी अग्रणी रहा है।  तभी तो मनुस्मृति (2/20) में कहा गया है, ” एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः स्वं स्वं  चारित्र्यम्  शिक्षेरन पृथिव्याम् सर्व मानवाः (इस देश के विद्वानों से ही पूरे भूमंडल के लोगों ने  ज्ञान- विज्ञान – आचार – व्यवहार की  शिक्षा प्राप्त की ) ।

स्पष्ट है कि  देश के अर्थ  में हिन्दू शब्द का चलन विश्व साहित्य में  इस्लाम के जन्म से बहुत पहले, कोई हज़ार डेढ़  हज़ार वर्ष पहले दारा के अभिलेखों में शुरू हो गया था।  अवेस्ता तो उससे भी बहुत पहले की रचना है।   अतः इस शब्द के निर्माण में इस्लाम के अनुयायियों का कोई हाथ नहीं है ; हाँ, इन्हें प्रचलन में लाने में अवश्य उनका भी योगदान  है।

विश्व साहित्य में इन शब्दों की जो भी स्थिति हो , हमारे यहाँ इन शब्दों  का प्रचलन   लगभग तेरह  सौ  वर्ष  पूर्व  ईसा की सातवीं  शताब्दी में तब शुरू हुआ जब अरब  के सौदागर भारत के पश्चिमी तट पर आने लगे।  यही कारण है कि सातवीं शताब्दी से पहले के प्राचीन भारतीय साहित्य में हमें ये शब्द नहीं मिलते।  जब यहाँ के लोगों ने इन शब्दों को स्वीकार कर लिया तब इन्हें अपने अर्थ देने भी शुरू कर दिए।  जैसे, शब्द कल्पद्रुम – कोश में लिखा , ” हीनं दूषयति इति हिन्दू ” जो हीनता को स्वीकार न करे वह हिन्दू है। जब पता चला कि मुस्लिम  कोश में ‘ हिन्दू ‘ शब्द दूषित अर्थ में है तो  उससे विचलित हुए बिना उसकी प्रतिक्रिया  में  रामकोष नामक ग्रन्थ में  लिखा , ” हिंदु दुष्टो न भवति  नानार्यो न विदूषकः  ; सद्धर्मपालको विद्वान श्रौतधर्मपरायणः” ( हिन्दू न तो दुष्ट होता है, न विदूषक, न अनार्य। वह सद्धर्म पालक ,  वैदिक धर्म को मानने वाला विद्वान होता है )।   इसी प्रकार वृद्ध स्मृति नामक ग्रन्थ में लिखा, ” हिंसया दूयते यश्च सदाचरणतत्परः ,  वेदगो प्रतिमासेवी स हिन्दू मुखशब्दभाक ( जो सदाचारी,  वैदिक मार्ग  पर चलने वाला, प्रतिमापूजक और हिंसा से दुःख मानने वाला है, वह हिन्दू है ) ।   माधव दिग्विजय के अनुसार  ओंकार जिसका मूलमंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है , जो गोभक्त है,  भारत को जो अपना गुरु मानता है, हिंसा की जो निंदा करता है — वह हिन्दू है  ( ओंकारमूलमंत्राढयः पुनर्जन्मदृढाशयः ,  गोभक्तो भारतगुरु हिन्दुहिंसनदूषकः ) । स्पष्ट है कि समय के साथ इन शब्दों के अर्थों में अंतर आने लगा और धीरे – धीरे ‘ हिन्दू ‘ शब्द  धर्म विशेष के अर्थ में तथा ‘ हिंदी ‘ शब्द भाषा के अर्थ में रूढ़ होने लगे।

इसके बावजूद इनके मूल अर्थ को सुरक्षित रखने की कोशिश भी अभी कुछ समय पहले तक  होती रही।   लगभग एक शताब्दी पूर्व स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी ( 1883 – 1966 )  के बनाए गए उस श्लोक से तो अनेक लोग परिचित हैं जिसमें इस देश के सभी निवासियों को हिन्दू कहा गया है  और जो पर्याप्त समय तक हिन्दू महासभा का भी आदर्शवाक्य रहा, “ आसिंधो:  सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका ,  पितृ भू: पुण्य भूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः “ ( वे सभी लोग हिन्दू हैं जो  सिन्धु नदी से लेकर समुद्र तक फैले विस्तृत भूभाग में रहते हैं और जो भारत को अपनी पितृभूमि तथा तीर्थ मानते हैं ) , पर  मुसलमानों के प्रसिद्ध  नेता सर सैयद अहमद  खां ( 1817 – 1898 ) के उस वक्तव्य  से कम लोग परिचित हैं जो उन्होंने सन 1883 में पंजाब की एक सभा में दिया।  उन्होंने कहा ,  ” मेरी राय में  हिन्दू लफ्ज़ का मतलब किसी मज़हब  से नहीं, बल्कि जो भी  हिन्दुस्तान में रहता है उसे  अपने को हिन्दू कहने का हक़ है।  मैं भी हिन्दुस्तान में रहता हूँ , पर मुझे अफसोस है कि आप मुझे हिन्दू नहीं   मानते।  ”   you have used the term ‘ Hindu ‘ for yourselves. This is not correct. For, in my opinion, the word Hindu does not  denote a particular religion, but, on the contrary, every one  who lives in India has the right to call himself a Hindu. I am , therefore, sorry that though I live in India , you do not consider me a Hindu . ( Tara chand  :  Freedom  Movement, Vol. II ,  Government of India, ; 1967 ;  Pages 357  – 358 )

इसी अर्थ में ‘ हिंदी ‘ शब्द का भी प्रयोग होता रहा है।   मोहम्मद इकबाल ( 1877 – 1938 ) के प्रसिद्ध गीत  ‘ सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ‘  में पंक्ति है “ हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ  हमारा “, इसमें ‘ हिन्दी ‘  देशवासियों के लिए ही कहा गया है।  प्रायः सारे उर्दू एवं फारसी  साहित्य में भारतवासियों को ‘ हिन्दी ‘ ही कहा गया है।  यह सामान्य परम्परा रही है कि किसी देश के निवासियों और उनकी भाषा को एक ही नाम से अभिहित किया जाता है।  जैसे चीन के निवासी चीनी और उनकी  भाषा भी चीनी (जबकि चीनी कोई भाषा न होकर एक भाषा परिवार है) , जापान के  निवासी जापानी और उनकी  भाषा भी जापानी।  वैसे ही हिंद के निवासी ‘ हिंदी ‘ और उनकी भाषा भी हिंदी (अगर चीन के उदाहरण से कोई प्रेरणा ली जाए तो ‘ हिंदी ‘ का अर्थ होगा  सभी भारतीय भाषाएँ)।

जहाँ तक हिन्दुस्तान शब्द का सम्बन्ध है यह उस स्थान का वाचक रहा  जहाँ ‘ हिन्दू ‘  रहते हों ( संस्कृतप्रेमी  इसे ‘ हिन्दुस्थान ‘ कहना पसंद करते हैं ) ; पर इस शब्द का प्रयोग उर्दू का प्रचलन  (16 वीं शताब्दी ) होने के बाद  ही मिलता है ।  यद्यपि  तब  एक ‘ धर्म ‘ के रूप में हिन्दू शब्द प्रतिष्ठित हो चुका था , इसके  बावजूद हिन्दुस्तान शब्द का प्रयोग  उस देश के लिए ही होता था जिसमें तब भी विभिन्न धर्मानुयायी रहते थे ।  हिन्द में रहने वाला हिन्दू। इस रूप  में यह धर्म का नहीं, राष्ट्रीयता का बोधक है। स्वतंत्र भारत के संविधान में तो अपने देश का नाम ” इंडिया दैट इज़ भारत ” लिखा है , पर बोलचाल में आज भी सभी धर्मानुयायी ‘ हिन्दुस्तान ‘ शब्द का प्रयोग निस्संकोच करते हैं ।  इस प्रकार  इसमें  इतिहास और  भूगोल दोनों ही दृष्टियों से ‘ हिन्दू ‘  शब्द का मूल अर्थ  आज भी सुरक्षित है ।

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

3 COMMENTS

  1. भारत का यह अक्षुण्ण राष्ट्र भारत के चप्पे चप्पे में सदैव दृष्टिगोचर होता रहता है। देश मे दुर्भाग्य से देश में पराधीनता का काल आ गया। 1235 वर्षो तक के प्रदीर्घ पराधीन काल में, हिमालय, गंगा, काशी, प्रयाग, कुंभमेला, अनेकतीर्थ, अनन्तऋषि, महात्मा, महापुरूष, समुद्र, सरिता पेड, पौधे आदि भारत के राष्ट्रिय गीत तो अहर्निश गाते ही रहते है, पर उनकी मानवीय अभिव्यक्ति सुप्त पड़ गयी थी। इस कोढ में खाज जैसी स्थिती मैकाले की शिक्षा पद्धति ने पूरी कर दी। हमें बताया गया कि वेद गडरियो के गीत हैं, भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। यहाँ मे मूल निवासी तो कोल भील द्रविड आदि रहे है, आर्य मध्यएशिया से आकर उनपर आक्रमण करके देशपर कब्जा कर लिया, भारत गर्म देश है, सपेरों और नटों का बाहुल्य रहा है, यह एक देश ही नहीं रहा है बल्कि उपमहाद्विप है, मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत को कपडा, भोजन, और अन्य तहजीब सिखाया, अब ईसाई आक्रान्ता भारतीयों के पाप का बोझ उतारने के लिये भगवान के आदेश पर भारत आये हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि प्रभु ईसा मसीह भारत पर प्रसन्न हो गये है अब भारत इन ईसाइयों की कृपासे सुशिक्षित और सभ्य हो जायेगा, शैतानी परम्पराओं और झूठे देवताओं से मुक्त होकर असली देवताओं की कृपा पा जायेगा। इस प्रकार के सुझावो को जब सत्ता सहयोग मिल जाता है तो करैला नीम चढ जाता है। और इस स्थिति ने हमें इतना आत्मविस्मृत कर दिया कि हम मूढता की सीमा तक विक्षिप्त हो गये। वैदिक ऋषियों की गरिमावान पंरम्परा को अपना कहने में लज्जानुभव होने लगा। यत्किञ्चित इसका प्रभाव अभी भी अवशेष है। हम जान ही लिय थे कि हम जादू टोने वालों के वंशज हैं। अपनी किसी भी बात की साक्षी के लिये विदेशी प्रमाण खोजने लगे। यदि गौराड्ग शासको ने मान्यता दी तो हमार सीना फूल गया वरना एक अघोषित आत्मग्लानि से हम छूट भी नहीं पाते थे। और तो और हम धर्म की परिभाषा भी ह्विटने, स्पेंसर, थोरो, नीत्से, फिक्टे आदि की डायरियों से खोजना चालू कर दिये। वेदो के भाष्य के सन्दर्भ में मेक्समूलकर, ए.बी. कीथ अदि भगवान वेदव्यास पर भी भारी पडने लगे। आत्मदीनता की इस पराकाष्ठा में महानायक स्वामी विवेकानंन्द ने अमृत तत्व भरा और बडे शान से घोषित किया कि हमे हिंन्दू होने पर गर्व है। इसी घोषणा के बाद हमारी तन्द्रा टूटने लगी। बडे सौभाग्य की बात है कि इस वर्ष उसी महानायक की डेढ सौवी वर्ष गांठ है। हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है |
    राष्ट्रियता केवल राजनीति नहीं है अपितु यह एक विश्र्वास है, एक आस्था है, एक धर्म है। मैं इतना ही नहीं कह रहा हूँ अपितु यह भी कि सनातन धर्म ही हमारी राष्ट्रियता है। इस हिंदू राष्ट्रकी उत्पत्ति ही सनातान धर्म के साथ हुई है। सनातन धर्म के साथ ही यह राष्ट्र आंदोलित होता है और उसी के साथ बढता है। सनातन धर्म कभी नष्ट होगा तो उसके साथ ही हिन्दू राष्ट्र भी नष्ट हो जायेगा। सनातन धर्म अर्थात् हिन्दू राष्ट्र……….।”
    इस संसार के समस्त मानवों को कैसा होना चाहिए – उनका आचरण कैसा होना चाहिए, उनका चिन्तन कैसा होना चाहिए और उनका विकास किस तरह होना चाहिए, संपूर्ण संस्कृत वांगमय इसी की चर्चा करता है। हिन्दू का उद्देश्य न तो किसी साम्राज्य की स्थापना है और ना ही अनावश्यक विस्तार। इसने मनुष्य को एक पूर्ण इकाई माना है और उसका विकास ही इसका परम उद्देश्य है। मनुष्य के विकसित होते ही सारी समस्याओं का समाधान अपने आप निकल आता है। सारे वेद, पुराणों और उपनिषदों का कालजयी सार संपूर्ण मानवता के लिए महर्षि वेद व्यास ने निम्नलिखित श्लोक की दो पंक्तियों में भर दिया है –
    “अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम।
    परोपकारम पुण्याय पापाय परपीडनम॥”
    परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुःख पहुंचाना सबसे पड़ा पाप।
    पाप और पुण्य की संपूर्ण मानवता के हित के लिए इतनी सरल और व्यापक व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है। अगर सभी इसे हृदयंगम कर लें और अपने आचरण में उतार लें, तो क्या पूरे विश्व में कहीं भी हिंसा के लिए तनिक भी स्थान शेष रह जाएगा? विश्व बन्धुत्व के लिए किसी भी मनीषी द्वारा प्रतिपादित यह सबसे महत्वपूर्ण, उल्लेखनीय और अनुकरणीय सूत्र है।
    “मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत।
    आत्मवत सर्वभूतेषु य पश्यन्ति स पण्डितः॥”
    दूसरे की स्त्रियों कोएक सच्चे विद्वान या इन्सान के आवश्यक गुणों का वर्णन करते हुए हिन्दू धर्म शास्त्रों में कहा गया है –
    माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान और संसार के सभी प्राणियों को अपने समान जो देखता और मानता है, वही विद्वान है, पण्डित है, इन्सान है।
    दुनिया की सारी अशान्ति, अराजकता और असंतोष का समाधान उपरोक्त सूक्ति में है। मनुष्य में इन सद्गुणों की जो कल्पना की गई है वह पूजा पद्धति और विचारधारा के बंधनों से सर्वथा मुक्त है। एक सच्चा हिन्दू, सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रार्थना करते हुए किसी भौतिक उपलब्धि की याचना नहीं करता। वह कहता है –
    “हे प्रभो, आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिए,
    लीजिए अपनी शरण में, हम सदाचारी बनें,
    ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक, वीर, व्रतधारी बनें।”
    स्वयं यानि व्यष्टि के लिए परमात्मा की शरण और ज्ञान की कामना करते हुए एक सनातनी हिन्दू समष्टि के हित की भी कामना अपने हृदय के अन्तस्तल से करता है –
    “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे शन्तु निरामयाः।
    सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चितदुःखभाग्भवेत॥”
    ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
    सभी सुखी हों, सभी निरापद हों, सभी शुभ देखें, शुभ सोचें; कोई कभी भी दुःख को प्राप्त न हो। वह सबके लिए शान्ति की कामना करता है। इसीलिए एकमा\त्र हिन्दुत्व ही विश्व बन्धुत्व लाने में सक्षम है।

  2. लेख के साथ जो वाकया अंग्रेजी में दिए हैं वो एक स्टीकर के रूप में लगवाये जाने योग्य हैं.

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