हिंदी साहित्य में बाजारवाद: चुनौतियां और समाधान

-डॉ. भगवान गव्हाडे-
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हिंदी साहित्येतिहास के हर काल में बाजार का वर्णन किसी न किसी रूप में होता रहा है । कबीर, सूर, तुलसी, मीरा आदि अनेक संत कवियों के काव्य में भी बाजार की उपस्थिति दर्ज की गई है । बाजार हमारी आवश्यकताओं की परिपूर्ति करता था क्योंकि बाजार और मेलों के साथ आनंद और उल्लास जुड़ा हुआ था । सामाजिक जीवन में वस्तु-विनिमय के द्वारा सुख-दुख का आदान प्रदान भी बाजार के माध्यम से ही हुआ करता था । ससुराल या मायके का क्षेम कुशल भी बाजार के बहाने ही पूछा जाता था । कबीर तो सब की ख्ौर पुछते थ्ो, बाजार के बीच खड़े होकर ही । और सबकी खबर भी लेते थे, बिना किसी से डरे । तात्पर्य यह है कि बाजार के बीच खड़े होकर बाजार के खिलाफ बात करने की उनमें ताकत भी थी और था नैतिक आधार भी ।

सूरदास की गोपिकाएं तो रोज सुबह सवेरे ही ब्रज (गोकुल) से मथुरा के बाजार में दूध, दही, माखन और घी बेचने जाया करती थी । उस समय का मथुरा बाजार तो हर्ष उल्लास का प्रतीक बनकर अजर अमर हो गया है । दूसरी तरफ सगुण साकार कृष्णभक्त गोपिकाएँ निर्गुण निराकार उद्धव को खरी-खोटी सुनाते हुए कहती है- ’आयो घोष बड़ो ब्योपारी ।’

समय के साथ-साथ बाजार का चेहरा, चरित्र और मूल्य भी बदल गया । वस्तु विनिमय की जगह आज रूपयों ने ले ली है । आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने ’अंधेर नगरी’ के द्वारा बाजार की भी पोल खोल दी है । यह सर्वविदित है कि अंग्रेज मूलतः व्यापारी बनकर बाजार के उद्देश्य से ही आए थे। नतिजा यह निकला कि उन्होंने बाजार की जड़े इतनी पक्की कर दी कि वे यहाँ के शासक बनकर सत्तासीन हो गए । बाजार में वस्तुओं की खरीदी-बिक्री का व्यवहार तो खैर लाजिमी है, लेकिन सुना है कि इन्सानों की भी खरीदी-बिक्री हुआ करती थी । खरीद कर उन्हें गुलाम बनाया जाता था । सरे आम बाजार में बिकाऊ इन्सान के सीर पर चारे-घास फूस की गठरी रखकर निलामी की जाती थी। किसी कवि ने कहा है-

’बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर जहाँ सारा देखता है…’

इक्कीसवीं सदी का समय और समाज तो आधुनिक तकनीकी उपकरणों से लैस है । उपभोक्तावाद और सूचना क्रांति की अन्धी दौड़ में हमारे पारस्परिक प्रेम एवं सद्भाव की गठरी ढीली पड़ चुकी है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के चमकीले नारों के पीछे हमारी मानवीय संवेदना को ग्रहण लग चुका है । बाजारवाद हमारे चारों ओर मायानगरी की तरह व्याप्त है । इसका विरोध और धिक्कार करने के बावजूद भी हम उसी में जीने के लिए अभिशप्त है। आज भूमंडलीकरण के द्वारा हम विश्वग्राम और ’वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात तो करते हैं, जो कि सहकारिता, समानता और नैतिकता के मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए, जिसमें पारस्परिक प्रेम और सद्भाव तथा भोग की अपेक्षा त्याग पर बल देना चाहिए। लेकिन सच तो यह है कि आज जिस भूमंडलीकरण का डंका बज रहा है। वह उपरोक्त बात से बिल्कुल विपरीत दिशा में जा रहा है।

आज हम जिस संसार में रह रहे हैं, उस पर उपभोक्तावाद हावी हो चुका है किन्तु अजीब बात यह है कि उसके उद्भव के विषय में शायद ही कोई तार्किक चर्चा कर पा रहा हो। सच बात तो यह है कि उपभोग और उत्पाद बाजारवाद का अभिन्न अंग है। बाजारवाद की परिघटनाएं अनंतकाल से विद्यमान है और उनके स्वरूप में निरंतर परिवर्तन जारी है। उत्पादन सृजन करता है तो उपभोग सृजित वस्तुओं का अस्तित्व समाप्त कर देता है। बीसवीं सदी के मध्य से उपभोग और उपभोक्ता जैसे शब्द अर्थशास्त्र की परिधि से निकल कर आम बोलचाल में आ गए है। ग्राहक के बदलो उपभोक्ता शब्द का प्रयोग होने लगा है। औद्योगिक क्रांति के बाद उत्पादन तेजी से बढ़ा और ग्राहकों को रिझाने के लिए विभिन्न रूपों में विज्ञापन का सहारा लिया गया। संभावित ग्राहकों के मानस को इस प्रकार प्रभावित किया जाने लगा कि वे उत्पादों की ओर ललके और जरुरत हो या न हो, उन्हें अवश्य खरीदें। छल-छद्म का प्रयोग करके आवश्यकताओं का सृजन किया गया और विशेष रूप से महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन की आवश्यकताओं को बिना किसी वजह से बढ़ावा मिल गया। रातों-रात गोरा होने की महत्वाकांक्षा ने और सुंदर दिखने की चाहत ने उत्पादनों के बिच जानलेवा प्रतियोगिता शुरू हो गई। नतीजतन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह प्रतियोगिता अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी। ऐसे समय में साहित्य कैसे पीछे रह जाता भला ? वह भी बाजार की आवश्यकता के अनुसार लिखा जाने लगा और छपने भी लगा। परंतु किस लेखन को साहित्य की परिधि में रखना चाहिए और किसे दर किनार-कर देना चाहिए । इस बात पर आलोचना-समीक्षा के क्षेत्र में होड़ लग गयी। सृजनात्मकता, भावात्मक-परिपूर्ति, सांस्कृतिक पहचान, रचनात्मक गरिमा, उच्च चिंतन, मनन, ज्ञानवर्धक सामग्री, सामाजिक उत्तरदायित्त्व, भाषाई स्पष्टता और शैलीगत नविनता, शोध के नये आयाम आदि कई कसौटियों के आधार पर साहित्य अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाता है। महज मनोरंजनवादी या घासलोटी लेखन साहित्य की कसौटी पर खरा नहीं उत्तर पायेगा। परंतु एक बात साफ जाहिर है कि साहित्य की कसौटी पर खरा उतरनेवाला और जो सच्चे अर्थों में दबे-कुचले, प्रताड़ित हाशिए के समाज का प्रतिनिधित्त्व करनेवाला साहित्य भी उपेक्षा और हिकारात की दृष्टि का शिकार बन गया।

इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि हिंदी ल्ोखक अपने आपको पाठक से काटकर रखने को अपनी विद्वता मानते हैं । ऐसा उन्होंने माना भी कि हम लोगों के लिए नहीं लिखते, तो ठीक है, आप एक-दूसरे के लिए लिखिए और रोते रहिए कि हमारी तो हजार कॉपी भी नहीं बिक पाती । ’तू मुझे सूर कह, मैं तुझे तुलसी’ की तर्ज पर तो रचनाएं बिकने से रही । हिंदी में साहित्य पढ़नेवालों की ज्यादा से ज्यादा संख्या पचास-पचपन हजार है, जिनमें ज्यादातर खुद ही लेखक भी होंगे । इन लेखकों के परिजन तक साहित्य नहीं पढ़ते यह भी एक कड़वी सच्चाई है । जरा इसे आप टटोलकर देखिए या फिर इस पर भी शोधकार्य करवाईए ।

जब हम लाखों में बिकनेवाली पत्र-पत्रिकाओं की बात करते हैं तो इसका मतलब उस स्तर का गिरना नहीं होता, बल्कि पाठक की नब्ज टटोलना होता है । पाठक उतना पागल नहीं है, जितना हमारे प्रबुद्ध आलोचक समझते हैं । जैसा कि अगर वह सौ रूपये देकर कोई फिल्म देख सकता है तो तीस रू. की पत्रिका भी खरीदेगा । उसको हीन-दीन दृष्टि से मत देखिएगा, मातम मत मनाईएगा । आज के उत्तर आधुनिक युग में भी प्रेमचंद सबसे ज्यादा बिकनेवाले लेखक क्यों बने हुए हैं, आपके खेमेबाजी करनेवाले लेखकों में से कोई क्यों नहीं बाबा नागार्जुन साबित हो जाता? साठ फीसदी शिक्षित युवा पाठकों की फौज को हम क्या परोस रहे हैं ? कभी हमने सोचने की कोशिश की है ? पॉपुलर साहित्य को कोसने से पाठक नहीं मिलता । शब्दों का आडंबर या अंतरजाल बिछाकर आप पाठकों को उस चुंगल में नहीं फँसा सकते। साहित्य को यदि समाज का प्रतिबिंब घोषित किया जा रहा है तो सचमुच क्या उसमें संपूर्ण समाज का अक्स दिखाई दे रहा है ? दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यांक समाज, किसान या घूमंतू जनजातियों की प्रतिमा इस साहित्य में परिलक्षित हो रही है ? किसानों, मजदूरों की हालात पर कोई आपका नामचिन लेखक कलम घिस रहा है ? यदि लिख भी रहा है तो महज पुरस्कार प्राप्ति के लिए। आज कई विश्वविद्यालयों में वहीं परंपरागत पाठ्यक्रम पढ़ाए जा रहे हैं जिसे वर्णव्यवस्था को बढ़ावा मिल सके । शोधकार्य भी केवल छात्रवृत्ति, प्रमोशन प्राप्ति के लिए किया जा रहा है। प्रकाशन संस्थान भी मूल रचनाओं को तोड़-मरोड़ कर, नामांतर-नामविस्तार कर आए दिन नए-नए संस्करण निकाल कर मुनाफा कमा रहे हैं । जैसे दलित आत्मकथा को आत्मकथात्मक उपन्यास घोषित किया जा रहा है । जो कि कानूनन गुनाह है। हां, यह बात सही है कि कुछेक लेखक अपनी-अपनी जातिय और सामाजिक-सांस्कृतिक गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए प्रयास जरूर कर रहे हैं । लेकिन इन लेखकों की रचनाओं को यदि बाजारवाद के साथ जोड़ दिया जाए तो बाजरवादी ताकतों के आगे ये सामाजिक प्रतिबद्धता को संजोए हुए लेखक टिक नहीं पायेंगे । क्योंकि मठाधीश प्रकाशन संस्थाएं अपने विशिष्ठ लेखकों की ही रचनाओं का प्रकाशन करती हुई नजर आ रही है। कुछ स्वयंघोषित नामचिन पत्रिकाएं खेमेबाजी करते हुए फुहड़ सनसनीखेज-खबरिया स्टार लेखकों को ही अंकों-विशेषांकों में छाप रही है। इसलिए दूर-दराज के आंचलिक लेखकों की रचनाएं अप्रासंगिक हो रही है। राज्य हिंदी साहित्य अकादमियां प्रकाशन के लिए दो-दो, तीन-तीन साल तक उन्हें अनुदान नहीं दे रही है। लेकिन वहीं दूसरी ओर महाविद्यालयों में राष्ट्रीय संगोष्ठियां लेने और अपनी जबरन उपस्थिति दर्ज करने के लिए लालायित होकर लाखों का अनुवाद बांट रही है।

कुछ बातें बाजारवाद को कोसनेवालों के लिए भी जरूरी है, जिनको नहीं मालूम कि बाजार गाँवों में है क्योंकि वे महानगरों में बैठे सोंधी मिट्टी की कविता में उसको उलझाये रखना चाहते हैं तो उनको क्यों लगता है कि गरीब और अनपढ़ व्यक्ति बाजार नहीं देखना चाहता । बाजार ने हमें केवल ठगा ही नहीं, दिया भी बहुत कुछ है । आज कल तो बाजार का बड़े-से बड़ा हिस्सा महानगरों से खिसक कर गावों की तरफ जा रहा है । पुराने जमाने में बाजार गाँव के बाहर लगाया जाता था, परंतु आज तो बाजार हमारे गली मुहल्लों में लग रहा है बल्कि यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि बाजार हमारे घर के हॉल और बेडरूम के टी.वी. स्क्रीन पर आ गया है। हर चीज बिकाऊ बन गई है। बाजार ने हमारे अस्तित्व को हिलाकर रख दिया है । महानगर ही नहीं बल्कि गाँव कस्बा भी इसकी चपेट में आ गया है । अस्सी-नब्बे के दशक में जो टेलीविजन चौदह पंद्रह हजार में बिकता था आज वही टेलीविजन सेट पांच हजार से लेकर एक लाख में मिल रहा है । नल को पानी नहीं आ रहा है परंतु टी.वी. स्क्रीन पर सुंदरियों के बदल पर साबुन का झाग और शॉवर का पानी देखकर खुशी मिल रही है। आज से दस साल पहले किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि मोबाइल हैंडसेट सबके हाथ का खिलौना बन जाएगा । परंतु आज दशा यह है कि नौकर-चाकर, बूढ़े-बच्चे यहाँ तक कि भिखारियों के भी हाथ में मोबाईल आसानी से देखा जा रहा है। सत्तर करोड़ से भी अधिक लोगों के हाथ में मोबाईल फोन इसीलिए पहुंच गया है क्योंकि नयी अर्थव्यवस्था ने इसे सस्ता और सुलभ बनाया है । संचार किसी विज्ञान के बलबूते नहीं फैला है । उसके कई माध्यम आज उपलब्ध है । बाढ़ में डूबा बिहारी व्यक्ति भी हाथ में मोबाईल सेट पकड़े नजर आता है, पेट की भूख के बराबर ही उसकी ये जरूरतें हैं । बड़े दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति ने अपने परम्परागत ढाँचे को अभी तक तोड़ा नहीं है । इसलिए शिक्षा, संस्कार, साहित्य, भाषा, जीवन शैली में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आया है । विज्ञान की शिक्षा पाकर ग्रैज्यूएट, पोेस्ट ग्रैजुएट युवक भी धार्मिक अंधश्रद्धा में बूरी तरह फँसा हुआ नजर आने लगा है । साहित्य के द्वारा संस्कार आज बेमानी हो गये हैं।
सिर्फ बाजार को कोसने से काम नहीं चलनेवाला, बाजार ने हमको खरीदार बनाया है तो हमारे अपने ही लोग जरूरी गैर जरूरी चिजें बेच-बेचकर मुनाफा भी तो कमा पा रहे हैं । यह क्यों नहीं याद रखा जाना चाहिए कि बड़े-बड़े मॉल्स में कितने अधकचरे शिक्षितों को दिहाड़ी या मासिक रोजगार भी तो मिला है । बिग-बाजार के जरिये भारी मुनाफा कमानेवाले किशोर बियानी ने पचहत्तर से भी ज्यादा शहरों-कस्बों में अपने स्टोर खोले हैं तो 65 ग्रामीण इलाकों में भी वे मौजूद है, जहां हजारों-हजार अर्धशिक्षितों को छोटा-मोटा रोजगार मिला हुआ है। इसमें नकारात्मक एक बात दिखाई देती है कि इसके कारण छोटे-छोटे दुकानदार तो मानो जैसे मेले में लूट गए और तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए हैं।

भूमण्डलीकरण की बाजारवादी व्यवस्था और उपभोक्तावादी अपसंस्कृति की नई लहर ने हसरातों में उफान तो लाई है, लेकिन रोटी कपड़ा-मकान-शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अत्यावश्यक सुविधाएं भी बिकाउ हो जाने के कारण अतृप्त इच्छाओं को मुंह चिढ़ाती नजर आ रही है। बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं और अनियंत्रित अभिलाषाओं के गड़बड़ी में गरीब को बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। बिहार राज्य के पूर्णिया जिले में एक गरीब परिवार का बालक पढ़ाई में अतिरिक्त होशियार-होनहार होने के बावजूद भी पिताजी की तंगहाली के चलते आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया। अपनी जिद और पिताजी के क्रोध के कारण उस बचारे ने अपनी जान गँवाई और पिता अपराधिक दण्ड का भागीदार बना । यदि महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील कहे जानेवाले राज्य की शिक्षा नीति पर दृष्टिपात किया जाए तो वास्तविकता प्रखर रूप में सामने आ जाएगी । हमारे महाराष्ट्र में जो सरकारी स्कूल थे, वे आज बंद होने के कगार पर है। इसकी वजह यह है कि नीजि शिक्षा संस्थानों के कुकुरमुत्ते हर जगह पर उग आए हैं । जिसे हमारी मेहरबान सरकार बेझिझक आर्थिक अनुदान भी देती है। शिक्षा के नाम पर यहां बाजार खुल चुका है। प्राईवेट स्कूल में एक लाख रूपये से ज्यादा वार्षिक फीस भरणी पड़ती है। और यदि पढ़ लिखकर शिक्षक की नौकरी प्राप्त करनी हो तो पंद्रह-बीस लाख रुपये डोनेशन देना पड़ता है। यदि महाविद्यालय में प्रोफेसर बनना हो तो तीस लाख रू. तक रकम अदा करनी पड़ती है। फिर भी कोई गारंटी नहीं है क्योंकि शिक्षा संस्था मालक-चालक का रिश्तेदार आ जाता है तो आपकी श्ौक्षिक योग्यता और लाखो रूपये भी कोई मायने नहीं रखते। यहाँ भी भाई-भतिजावाद ने अपनी मजबूत जड़े जमा ली है।

बाजार में आप किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर जाते हैं। बाजारवादी दौर में आप बाजार में जाते नहीं बल्कि बाजार की चीजें आपका पीछा करती हैं। आपकी असुविधा का ध्यान रखे बिना आपके घर में घुस आती है। बाजार आपकी जीवनशैली और शक्ल का मखौल उड़ाकर तब तक आपको हीन भावना से भरता रहता है जब तक आप उस माल का उपयोग करना नहीं आरंभ कर देते। वाहनों का बाजार, सौंदर्य प्रसाधनों का बाजार, अवांछित पेयों का बाजार, वस्त्रों और साज-सामान का बाजार तो मुख्यतः इसी तरह फैलता गया है। ’विपणन’ धूर्तता का पर्याय बन चुका है, परंतु आश्चर्य की बात यह है कि विज्ञापन के दबाव में हम लगातार मूर्ख सिद्ध होने पर भी यह नहीं समझ पाते है कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा है। आज का बाजारवाद उत्तर पूंजीवादी समाज में हमें उपभोक्ता बनाकर धन कमाने में विश्वास रखता है। इसकी गवाही हमारा हिंदी साहित्य आदिकाल से लेकर आज तक देता आ रहा है । इसलिए इस वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य का और साहित्य के इतिहास का पूनरावलोकन करना बेहद जरूरी है।

कुल मिलाकर वर्तमान समय में बाजारवाद को लेकर हम दुविधा की स्थिति में है। चूंकि अब आधुनिक संचार माध्यम और यातायात के विकास से संसार की सभी संस्कृतियां एक-दूसरे के संपर्क में आ गई है । आए दिन उनमें गंभीर रूप से टकराहट की स्थितियाँ भी पैदा हो रही है। कभी भाषाई वर्चस्व तो कभी रहन-सहन का वर्चस्व स्थापित कर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है । इसके अलावा बाजारू संस्कृति के एकछत्र प्रसार से दुनिया के अधिकांश देशों में सार्थक सांस्कृतिक जीवन के लोप होने का भय है । प्रश्न यह है कि इस दुविधा से मुक्ति कैसे मिले? स्पष्ट है कि बाजारवादी संस्कृति का निर्बंध फैलाव समस्या का समाधान नहीं हो सकता। बल्कि समस्या का समाधान इसी में हो सकता है कि मूल्यों की विविधता के बीच कुछ ऐसे मूल्यों की तलाश हो जो विविधता के बावजूद भी विभिन्न मानव समूहों और उनकी संस्कृतियों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को स्थापित करने की कोशिश हो!

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  1. आज हिन्दी को देश का सबसे बड़ा आइकन नरेंद्र मोदी मिला है. मोदी स्वयं गुजरातीभासी होते हुए भी देश को जोड़ने वाली भाषा के रूप में वे हिन्दी के महत्व को बखूबी समझते है. वैसे ही अभिनेता अमिताभ बच्चन भी हिन्दी के आइकन है. हिन्दी को अब तक अंगरेजी के मानसपुत्रों ने दबे कुचलो की भाषा बना रखा था. हिन्दी को अपना उचित स्थान अब प्राप्त करना होगा. यह स्थान उसे तब मिलेगा जब हिन्दी भाषा में डाक्टरी, इंजीनीयरींग, व्यस्थापन आदि की उच्च शिक्षा हासिल करने का वातावरण निर्माण हो.

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