हमे हिंदी को, आम आदमी के और करीब लाना होगा!

शादाब जफर ‘‘शादाब’’

‘‘मुझे ये कतई सहन नही होगा कि हिंदुस्तान का एक भी आदमी अपनी मातृभाषा को भूल जाए या इस की हंसी उड़ाए। इस से शरमाए या उसे ऐसा लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में प्रकट नही कर सकता है। कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतंत्र नही हो सकता जब तक वह अपनी भाषा में नही बोलता है।’’ मातृभाषा के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस कथन में मातृभाषा का महत्तव प्रकट होता है। आज पूरे विश्व में बोली जाने वाली लगभग 7000 भाषाओ मे से लगभग 40 प्रतिशत भाषाए खतरे में में है जिन में हिंदी भी है। यू तो हम लोग 14 सिंतम्बर को बडे गर्व से साल में एक दिन हिंदी दिवस मनाते है, देश के बडे बडे साहित्यकार, पत्रकार, कवि, बुद्विजीवी, समाज चिंतक, रचनाकार, समाजसेवी संस्थाए आदि हिंदी को देश के माथे की बिंदी, अपनी भाषा, अपने पुरखो की भाषा, अपने देश की भाषा, आमजन की भाषा, राजभाषा, कह कहकर गला सूखा लेते है पर साल के 364 दिन इन लोगो को हिंदी कभी याद नही आती। एक जमाने में कवि सम्मेलनो में हिंदी राज किया करती थी, देश के समाचार पत्रो में काम करने वाले लाखो कर्मचारी हिंदी वर्णमाला के एक एक शब्द को चुन चुनकर हर रोज़ हिंदी में छपने वाले समाचार पत्रो का किसी नवयौवना की तरह श्रृंगार किया करते थे। देश की आजादी के आन्दोलन के दौरान समाचार पत्रो और उन के मालिको, पत्रकारो की सीमाए सीमित थी, आय का कोई खास जरिया नही था। इस सब के बावजूद उस वक्त के रचनाकारो, पत्रकारो, साहित्यकारो और खुद समाचार पत्रो के मालिको को हिंदी के विकास की चिंताए रहती थी। ये सब लोग तन,मन,धन से हिंदी को परिनिष्ठित करने और उसे जन जन की भाषा बनाने, माजने में जुटे रहते थे। ये ही वजह थी की हिंदी उस वक्त समृद्ध थी। पर आज हिंदी भाषा सिर्फ कागजी रिकॉर्ड में ही राजभाषा रह गई है।

2011 की जनसंख्या के अनुसार देश की जनसंख्या 121 करोड़ है। और इन में हिंदी भाषियो की संख्या करीब सत्तर करोड़ बताई जा रही है। आश्चर्य होता है जिस देश में सत्तर करोड़ लोग हिंदी भाषी हो वहा हिंदी का ऐसा हाल। आज देश के कुछ गिने चुने दकियानुसी साहित्यकारो, कवियो और रचनाकारो की वजह से हिंदी पिछडती जा रही है वजह अपनी रचनाओ के माध्यम से ये लोग राजभाषा को इतना मुश्किल बना देते है कि जिसे समझने के लिये संस्कृत के पंड़ित की मदद लेनी पडती है। अभी पिछले दिनो 26 सितंबर को भारत सरकार के राजभाषा विभाग की ओर से विभाग की सचिव महोदया ने एक पत्र जारी किया था जिस का विषय था ‘‘सरकारी कामकाज में सरल और सहज हिंदी के प्रयोग के लिये नीति-निर्देष’’ ये पत्र केंद्र सरकार के मंत्रालयो और विभागो के सचिवो को प्रेषित किया गया था। वैसे ऐसा पहली बार नही हुआ देश का राजभाषा विभाग समय समय पर जरूरत के हिसाब से न जाने कितनी बार ऐसे दिशा निर्देष जारी कर सरकारी विभागो को समय समय पर ये कहता रहा है कि सरकारी कामकाज की भाषा आसान होनी चाहिये परन्तु हिंदी की शुद्धता की चिंता, राजभाषा के मिटने की दुहाई देकर देश का एक बडा हिंदी प्रेमी वर्ग ऐसे राजभाषा विभाग के आदेषो का उपहास उड़ाने लग जाता है। देश के कुछ पत्रकार, साहित्यकार और इलैक्टोनिक्स मीडिया का एक बडा वर्ग भी इन के साथ हो जाता है। दरअसल आज देश में एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जो आसान हिंदी बोलता और समझता है जिसे कुछ लोग हिन्दुस्तानी भाषा भी कहते है और सरल हिंदी भाषा भी ये वो भाषा है जो कि सिनेमा, टीवी सीरियल, समाचार पत्र पत्रिकाओ और काफी अधिक संख्या में हमारे देश में लोग बोलते और समझते है। 2011 की 121 करोड़ की जनसंख्या में जिन हिंदी भाषी लोगो की संख्या संख्या करीब सत्तर करोड़ बताई जा रही है ये ही वो हिंदी भाषी है। राजभाषा विभाग द्वारा जारी पत्र में कुछ हवाले देकर भी समझाया गया है जिस से राजभाषा विभाग का मकसद साफ जाहिर हो रहा है वो ये कि राजभाषा विभाग आधुनिक हिंदी के अनुरूप रहना चाहती है। फिर क्यो कुछ लोग हिंदी को मिटाने पर तूले है, क्यो ये लोग हिंदी के नाम पर सियासत कर हिंदी अकादमियो में अपन अपने गुट बना कर अपने स्वार्थ की रोटिया सेकने के लिये हिंदी को क्यो मुश्किल बनाते है, आज कुछ साहित्यकार भी साहित्यक भाषा को भी आम आदमी के समझ में न आने वाली भाषा बनाने पर तूले हुए है। ऐसे में हिंदी भाषा में संस्कृत भाषा का प्रयोग क्या अनुचित और अनुपयुक्त नही क्या ये राजभाषा को जन जन की भाषा बनाने में रूकावट नही। आज जिस परेशानी से देश का राजभाषा विभाग जूझ रहा है, ठीक इसी परेशानी से हिंदी साहित्य विभाग के छात्र और शोध-छात्र भी गुजर रहे है क्योकि आज स्कूल कालेजो में जो हिंदी के नाम पर हिंदी पढाई जा रही है उस में ब्रज भाषा, अवधी भाषा, भोजपुरी, संस्कृत, और लगभग छः सौ वर्ष पुरानी विद्यापति की मैथली तक पढाई जा रही है जो कि भारतीय संविधान की आठवी अनुसूची में 10वें नंबर पर हिंदी से अलग और स्वतंत्र भाषा के रूप में दर्ज है।

में जब जब बालीवुड सुपर स्टार श्री अमिताब बच्चन जी को हिंदी में बोलते हुए देखता हॅू तो उन के द्वारा बोले जाने वाले हिंदी के एक एक शब्द को सुनकर मजा आने के साथ ही गर्व का अनुभव होता है। जब कि देश के बडे बडे पद्धम श्री और पद्धम भूषण, हिंदी के नाम की बरसो से रोटी खाने वाले और हिंदी के सहारे ही शोहरत की बुलंदी पर पहुचने वाले न जाने कितने ही लोगो को बहुत खास मौको पर भी अंग्रेजी में बोलते हुए देखता हॅू तो मन दुखी होता है। सच मानो आज जिस प्रकार अमित जी हिंदी की सेवा कर रहे है और अपनी साधारण सी जीवन शैली में हिंदी भाषा को अपना कर हिंदी को बढावा दे रहे है इस सब क लिये देश के हिंदी प्रेमियो की ओर से उन्हे बधाई दी जा सकती है। वही कुछ हिंदी फिल्मी गीतकारो ने जिस प्रकार हिंदी की सेवा की और साधारण और सरल भाषा में हिंदी गीत रचकर ये साबित कर के दिखाया की यदि सलीके से हिंदी गीतो को रचा जाये तो हिंदी गीत निसंदेह ऊर्दू शायरी में रचे गये गीतो की तरह ही लोगो के दिलो में उतर सकते है। गीतकार इंदीवर द्वारा रचे गीत ‘‘कोई जब तुम्हारा ह्दय तोड़ दे’’, शुद्ध और आसान हिंदी भाषा में रचा सुन्दर गीत था तो वही ‘‘चंदन सा बदन चचंल चितवन’’ के अलावा ‘‘दर्पण को देखा तूने जब जब किया श्रृंगार’’ जैसे कर्णप्रिय हिंदी गीतो को तब से आज तक पसंद किया जाता रहा है। ये सब हिंदी और आम हिंदी भाषा का ही जादू था। गोपाल दास नीरज और संतोष कुमार के लिखे हिंदी के गीतो को फिल्म निर्माता हाथो हाथ लेने को तैयार रहते थें।

भारतेन्दू हरीष चंद्र ने कर्ज लेकर हिंदी की सेवा की तो आज देश की कितनी ही हिंदी अकादमिया कर्ज ले लेकर साहित्यकारो, कवियो, और रचनाकारो की सेवाए कर रही है। आज देश में हिंदी के कुछ वरिष्ठ हिंदी प्रेमी, साहित्यकार और कुछ कवि अपने द्वारा रचे साहित्य में संस्कृत के शब्दो को मिलाकर खुद को बडा साहित्यकार कहलाना पसंद करते है उन के इर्द गिर्द जमा उन के चेले चपाटे और राजभाषा को सिर्फ अपने निजी स्वार्थ व समाज में हिंदी के सच्चे हमदर्द बने रहने के कारण मुश्किल बनाते आ रहे है इस के अलावा देश के कुछ साहित्यकार न जाने क्यो और किस कारण सरल हिंदी का प्रयोग अपने साहित्य में नही करना चाहते जो आज आम लोगो की हिंदी है।

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