हिंदी लेखन, विचारधारा और इतिहास बोध

सत्यमित्र दुबे

1

पिछले दो तीन दशकों के हिंदी लेखन पर नजर दौड़ाने से यह बात स्पष्ट होती है कि इसमें पक्षधरता, विचारधारा, इतिहास बोध, कलावाद बनाम जनवाद, व्यक्ति बनाम वर्ग अथवा समाज का सवाल प्रचुर मात्रा में उठाया गया है। पश्चिम के कुछ लेखकों ने जब से इतिहास के अंत, विचारधारा के अंत और उत्तर आधुनिकता की चर्चा चलाई है, तबसे हिंदी लेखन में भी इनकी चर्चा है। कोई भी विवेकशील व्यक्ति इससे इंकार नहीं कर सकता कि समाज और संस्कृति के विश्लेषण में इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है। नई विचारधाराओं का उद्भव, सामाजिक परिवर्तन के दिशा निर्धारण में उनकी भूमिका और इतिहास के कालखंड विशेष में पारस्परिक संबंध है। सामाजिक परिवर्तन और गतिशीलता की प्रक्रिया, उनके पीछे अंतर्निहित सामाजिक शक्तियां, उनका राजव्यवस्था, अर्थतंत्र, संस्कृति, साहित्य से अंतर्संबंध और इनकी विवेकपूर्ण समझ इतिहास बोध है। जब तक समाज और संस्कृति के क्षेत्र में परिवर्तन, आंदोलन, संघर्ष; नये चिंतन के प्रस्फुरण; विज्ञान, प्रविधि के क्षेत्रा में नए आविष्कार; राजनीति, अर्थतंत्रा के क्षेत्र में गतिशीलता की प्रक्रिया विद्यमान है; तब तक इतिहास के अंत का सवाल ही नहीं पैदा होता है। इसी तरह जब तक समाज के विभिन्न समूहों और वर्गों के हित में टकराहट है, उनके सामाजिक पुनर्रचना के सपने और मनोवांछित मनुष्य के निर्माण की उनकी साध है, तब तक विभिन्न विचारधाराओं का अस्तित्व बना रहेगा।

लेकिन हिंदी लेखन में इन सवालों को लेकर कुछ अतिरेक, कुछ समझ की कमी और कुछ दलगत राजनीति के प्रभाव के कारण अति उत्साह है। यह बात केवल आलोचना के क्षेत्र में ही लागू नहीं होती हैं। कविताओं के संकलन, कहानी संग्रह और उपन्यासों की भूमिकाएं भी इन सवालों को लेकर प्राय: संदर्भ से असंपृक्त उबाउ उद्धरणों से भर दी जाती हैं। दलगत राजनीति से जुडे कम्युनिस्ट लेखकों के प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच जैसे बहुरंगी संगठनों की आपसी टकराहट, ‘हंस’ ‘आलोचना’ तथा अनेक लघु पत्रिकाओं के लेखों और टिप्पणियों में बहुधा विचारधारा की सैद्धांतिक बहस का कमजोर मुखौटा टूटकर अशालीनता, गाली-गलौज और चरित्र-हनन में बदल जाता है। इसका राजनीतिक मताग्रह से भरा एक दूसरा चतुराई भरा पक्ष हैं। यदि कोई लेखक अपने साहित्यिक लेखन की गुणवत्ता के प्रति ईमानदार रह कर इन गिरोहों से अलग रहता है तो या तो उसकी पूरी तौर पर अनदेखी करने की चेष्टा की जाती है अथवा उसके योगदान को हलका बनाया जाता है। इस प्रवृत्ति के कई दुष्परिणाम हैं। विश्वविद्यालयों में नियुक्ति-प्रोन्नति की लालसा, थोड़ी सी बची प्रचारित पत्रिकाओं में छपने की इच्छा और आलोचना के क्षेत्र में आसीन लोगों द्वारा मान्यता न मिलने के आतंक के कारण लेखकीय स्वायत्तता और बौद्धिक ईमानदारी का हनन होता है। यह परिदृश्य लेखक और पाठक के बीच के प्रत्यक्ष संबंध को तोड़ता है। समीक्षकों और पत्रिकाओं के बंधे बंधाए वैचारिक साचें में एडजस्ट होने वाले लेखन का नतीजा है कि यह हास्यास्पद पैंफ्लेटबाजी में बदलता गया है।

फिर भी विचारधारा और इतिहास बोध की प्रासंगिकता पर हिंदी लेखन में रामविलास शर्मा, निर्मल वर्मा और विजय देव नारायण साही के अपने परिप्रेक्ष्य हैं। रामविलास शर्मा के लेखन के दो पक्ष हैं। एक ओर तो उनके लेखन में मनीषी और विश्लेषक की झलक है। दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी के एक स्वघोषित कार्ड होल्डर के रूप में वे साहित्यिक समीक्षा में मार्क्‍सवादी विचारधारा के मुहावरों का प्रयोग करते हुए, साहित्यिक लेखन के आधार पर नहीं बल्कि कम्युनिस्टों से भिन्न मत रखने वालों के प्रति, तथ्यों के विपरीत जाकर भी आक्रामक हैं। विचारधारा के छद्म के इस निजी घात प्रतिघात में विभिन्न गुटों से जुड़े कम्युनिस्ट लेखकों द्वारा अब रामविलास शर्मा पर भी हमला किया जा रहा है।1 

दूसरी ओर निर्मल वर्मा का मानना है कि विज्ञान प्रकृति की चिरंतनता का उल्लंघन करने के कारण और ‘आइडिओलॉजी’ भविष्य के लिए वर्तमान पर बलात्कार करने के कारण मनुष्य और कला का अमानवीयकरण करते हैं।2 उनके अनुसार भारत के केंद्रीय सांस्कृतिक संकट को देखते हुए व्यक्ति स्वातंत्रय बनाम सामूहिकता की बहस अप्रासंगिक हैं। हिंदुस्तान में इस संकट के विषय में काम सिर्फ राजनीति में पहले गांधी फिर बाद में लोहिया के कर्म-चिंतन में हुआ। साहित्य इससे अछूता रहा जबकि तीसरी दुनिया के अन्य देशों में साहित्यकार इस विषय में सजग रहे हैं। उनका कथन है ‘जब किसी साहित्य में सार्थक, जीवंत और संयत समीक्षा-पद्धति मुरझाने लगती है तो उसके साथ अनिवार्यत: एक परजीवी वर्ग, एक साहित्यिक माफिया पनपने लगता है…इन लोगों का साहित्य और संस्कृति के मूल्यों से कोंई सरोकार नहीं, किंतु पिछले वर्षों में इनके हाथों में एक छद्म किस्म की ताकत जमा होती गई है।’3

साही जायसी पर किए गए शोध के जरिए हिंदी आलोचना के क्षेत्र मे गहन विश्लेषण का मानक स्थापित करते हैं। विचारधारा के संदर्भ में वे मनोरंजक और संदेशवाहक दोनों तरह के साहित्य की सीमाओं को उद्धाटित करते हैं। उनके अनुसार ‘वस्तुत: मात्र मनोरंजक और मात्र संदेशवाहक साहित्य अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं। मनोरंजक साहित्य यह देखने के लिए तैयार ही नहीं होता कि जिंदगी को अर्थ से आलोकित करने वाले तत्व क्या हैं और कहां हैं ?….मात्र संदेशवाहक साहित्य यह मान कर चलता है कि मूलभूत प्रश्न और मूलभूत उत्तर सब प्राप्त हो चुके हैं….साहित्य में किसी दार्शनिक सिध्दांत और विचारधारा का वहन करना एक बात है और अपने युग की संपूर्ण चिंतनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात है। यह आत्मस्थ चिंतनशीलता गंभीर साहित्य को एक बौद्धिक सघनता प्रदान करती है।’4 साही अपनी इन कसौटियों पर जायसी के पद्मावत के साहित्यिक अवदान और इतिहास बोध को कसते हैं। उनके अनुसार जायसी की सृजनात्मक क्षमता मात्र मनोरंजन और मात्र आघ्यात्मिक संदेश दोनों के खतरे से उपर उठने में है। जायसी ने इतिहास और युग की निर्मल छवि देखी और अपने आसपास की शताब्दियों में वे अकेले कवि हैं जिन्हें इस युग दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ…।

हिंदी के इन दो चिंतनशील विश्लेषकों ने दशकों पूर्व जिस माफिया प्रवृत्ति, सांस्कृतिक संकट के प्रति शुतुरमुर्गी दृष्टिकोण और विचारधारा की संदेशवाहकता के नाम पर चिंतनशीलता और बौद्धिक सघनता से पलायन की बात की है, उस पर खलीफाई अहम, निजी राग-द्वेष भरे आरोप, विचारधारा की आधी अधूरी समझ से उपजी छापामार लड़ाई जैसी आक्रामकता के कारण समुचित ध्यान नहीं दिया गया। उलटा जन संघर्षों, श्रमिक आंदोलनों से आजीवन जुड़ाव, लोहियावादी राजनीतिक विचारधारा से सक्रिय रूप से संबद्ध होने के बाद भी साहित्य में संदेशवाहक विचारधारा की सीमाओं से पूर्णत: भिज्ञ साही पर शीत युद्ध काल में कामरेडों की ओर से अमेरिका द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक स्वतंत्रता के मंच से जुड़ा होने का आरोप लगाया गया। गांधी और लोहिया की राजनीति के संदर्भ में एक सजग चिंतक के नाते सास्कृतिक संकट की ओर इंगित करने वाले निर्मल पर भूमंडलीकरण के युग में अन्य संकटों के साथ गहराते सांस्कृतिक संकट के बीच कम्युनिस्ट लेखको नें ‘भगवावादी’ होने का हथियार दाग दिया।

हिंदी लेखन में मार्क्‍सवाद की आधी अधूरी समझ के नाम पर विचारधारा, इतिहास बोध और परंपरा को लेकर काफी भ्रम की स्थिति है। इसकी सफाई के लिए मार्क्‍स के पूर्ववर्ती, स्वयं मार्क्‍स और मार्क्‍स के बाद के चिन्तन में इन पर किस परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया है, इस पर प्रकाश डालना आवश्यक है।

2

मार्क्‍स के पूर्ववर्ती लेखकों में फरग्युसन, हीगेल और सेंट साइमन ने इतिहास के दर्शन पर जोर दिया जिसके अंतर्गत सामाजिक विकास और बौद्धिक प्रगति की अवधारणा अंतर्निहित है। इन लेखकों ने इतिहास का कालखंडों में विभाजन किया। उनके अनुसार प्रत्येक नया कालखंड अपने पूर्ववर्ती कालखंड से सामाजिक परिस्थितियों और विचार के स्तर पर अधिक विकसित होता है। विचार कालखंड की परिस्थितियों से जुड़े होते हैं। हीगेल की द्वंदात्मक-ऐतिहासिक व्याख्या का प्रभाव मार्क्‍स के विश्लेषण पद्धति तथा साइमन के मिले जुले इतिहासवादी-विज्ञानवादी चिंतन का प्रभाव आगस्त कोंत के विचारों पर पड़ा। कोंत को समाजशास्त्र का जनक माना जाता है।

मार्क्‍स के अलावा इतिहासवादी चिंतन, कालखंडों के साथ विचारों के संबंध, विचारधारा और विश्वदृष्टि के सवाल पर उसके बाद के विचारकों- विलहेम डिल्थे, मैक्सशेलर, हुसरल और कार्ल मानहाइम ने बहुत गहराई से विचार किया है।5 डिल्थे के अनुसार कोई भी दार्शनिक विचार न तो पूर्ण रूप से सत्य होता है न तो सार्वभौम रूप से स्वीकार्य अथवा वैध माना जा सकता है। वह केवल आंशिक सच्चाई प्रकट करता है। सभी दार्शनिक पद्धतियां केवल एक सीमित मात्रा में विश्वदृष्टियों को उद्भाषित करती हैं। डिल्थे का चिंतन दार्शनिक सापेक्ष्यवाद का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके अनुसार विचार समय सापेक्ष हैं। हुसरल इतिहासवाद, विश्वदृष्टिवाद और डिल्थे की स्थापनाओं का खंडन करता है। ऐसा नहीं है कि विश्वदृष्टि को उसके चिंतन में कोई स्थान नहीं है। उसका मुख्य जोर इस बात पर है कि विज्ञान और विचारधारा में अंतर स्पष्ट होना चाहिए। किसी विचारधारा में विश्वास करनेवाला विश्व पर केवल एक परिप्रेक्ष्य अपनी विचारधारा से जुड़ी आस्था-से विचार करता है। वह अपनी मान्यताओं, उसकी दुर्बलताओं के प्रति प्रश्नाकुल नहीं होता है।

हुसरल ने अपने समय के दार्शनिक संकट पर विचार किया। मैक्स शेलर की मुक्ष्य चिंता अपने समय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकट से है। वह पूंजीवाद की बुराइयों से निपटने के लिए नैतिक पुनर्जागरण पर जोर देता है। उसके चिंतन का केंद्र बिंदु ‘परिप्रेक्ष्य’ है। उसके अनुसार ज्ञान परिप्रेक्ष्यात्मक होता है। परप्रेक्ष्य से उसका अर्थ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तथा उससे जुडे दृष्टिकोण से है। सभी परिप्रेक्ष्य एकपक्षीय और आंशिक होते हैं। वह ज्ञान और विचारधारा में अंतर करता है। शेलर इस बात पर बल देता है कि आज के समाज में अनेक तरह की राजनीतिक, आर्थिक विचारधाराएं हैं। बुद्धिजीवी की मुख्य भूमिका उनका विश्लेषण करना है। विचारधारा और परिप्रेक्ष्य के एकपक्षीय दृष्टिकोण के स्थान पर सम्यक ज्ञान के लिए वह असंबद्ध बुद्धिजीवियों के वस्तुपरक विश्लेषण एवं ज्ञान के समाजशास्त्र पर आश्रित पद्धति पर जोर देता है।

अनेक विश्लेषलकों की तरह शेलर भी ऐसा मानता है कि मार्क्‍स के लिए सभी सामाजिक चिंतन मात्र विचारधारा है। उसके चिंतन में केवल वर्गहित का परिप्रेक्ष्य है। ज्ञान अथवा सत्य में उसकी रुचि नहीं है। जेटलिन इस व्याख्या से असहमति व्यक्त करता है। विचारधारा के सवाल पर मार्क्‍स को समझने में उसके वाचाल समर्थकों और पूर्वाग्रही विरोधियों दोनो ने समान रूप से गलती की है। माक्र्सं अपने विश्लेषण को वैज्ञानिक मानता है। दास कैपिटल में क्लासिकी अर्थशास्त्र की आलोचना करते हुए वह स्पष्ट करता है कि रिकार्डौ के लेखन तक इसमें वास्तविक वैज्ञानिक शोध, पक्षपातरहित जाँच-पड़ताल और सच्चाई की खोज का समावेश हैं। लेकिन उसके बाद सिद्धांतों की सच्चाई के खोज के स्थान पर राजनीतिक अर्थतंत्र में केवल इस बात पर बल है कि यह सिद्धांत पूँजी के हित में और राजनीतिक रूप से खतरनाक है या नहीं? इस तरह मार्क्‍स का असली मंतव्य विचारधारात्मक व्याख्या की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए पक्षपातरहित जाँच, सत्य की खोज और वैज्ञानिक विश्लेषण से है। अपने देश में सुबह शाम मार्क्‍सवाद की शपथ खाने वाले कथित बुद्धिजीवी, विचारधारा की लड़ाई के नाम पर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के अपने अपने तबेले में एक दूसरे पर दुलत्ती झाड़ने वाले इस सच्चाई को समझने से ऑंखें चुराते रहे हैं।

उपरोक्त चारों विचारकों से प्रभावित होते हुए भी विचारधारा, यूटोपिया, ज्ञान और उनका इतिहास के कालखंडों से संबंध के विवेचन को कार्ल मानहाइम नया मोड़ देता है।6 मानहाइम विचार और ज्ञान का इतिहास के कालखंडों के साथ डिल्थे द्वारा प्रतिवादित सापेक्ष्यवादी व्याख्या से अपनी असहमति व्यक्त करता है। उसके अनुसार विचार और कालखंड संबंध-मूलक हैं। कालखंडों से जुड़े विचार केवल अपने युगीन परिप्रेक्ष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। विचारधारा को वह अपने समय के वर्चस्वपूर्ण समूह, वर्ग, दल का दृष्टिकोण मानता है। विचारधाराएं वर्ग अथवा दल के हित का प्रतिनिधित्व करते हुए सर्वदा एकांगी और पक्षपात पूर्ण होती हैं। विचारधाराओं को वह उनके दायरे के आधार पर- पक्ष-विशेष और समग्र इन दो हिस्सों में विभाजित करता है। अपने समय जो विचार अवास्तविक प्रतीत होते है, जो थोड़े से लोगों द्वारा स्वीकृत होते हैं और जो समाज के पुनर्निर्माण की भावी रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं, मानहाइम उन्हें यूटोपिया कहता है। आज जो विचार यूटोपियन लगते हैं, वे कल बहुसंख्या द्वारा मान्य हो जाने पर विचारधारा का रूप ग्रहण कर सकते हैं। इन दोनों से भिन्न सम्यक ज्ञान है। वस्तुपरक विश्लेषण और सम्यक ज्ञान के लिए मानहाइम भी असंबद्ध बुद्धिजीवी की भूमिका पर जोर देता है। सार्वभौम ज्ञान पर बल देनेवाले दार्शनिक तत्व विज्ञान से अलग, इतिहास के कालखंडों से संबंधित विचारों की व्याख्या के लिए ज्ञान के समाजशास्त्र के पद्धतिगत विकास में मानहाइम का अप्रतिम योगदान हैं।

उपरोक्त विचारों के संदर्भ में हिंदी लेखन पर दृष्टिपात करने से यह बात स्‍पष्‍ट हो जाती है कि मनोरंजन और विचारधारा से अलग हट कर साही जिस बौद्धिक सघनता की बात करते हैं, वह स्तरीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में पँजीवाद-उपनिवेशवाद के गठजोड़ से सामान्य रूप से पूरे विश्व और विशेष तौर पर उपनिवेशवाद से आक्रांत देशों में जिस तरह का बहु-आयामी संकट पैदा हुआ, उसमें भूमंडलीकरण के युग में और बढ़ोत्तरी हुई है। इस संकट के राजनीतिक-आर्थिक पक्ष पर तो भारत में प्रगतिशीलता का जाप करने वाले हिंदी लेखकों ने थोड़ा बहुत ध्यान दिया है लेकिन वे अपनी साहित्य की राजनीति में सांस्कृतिक संकट के सवाल से ऑंखें चुराते रहे हैं।

निर्मल वर्मा इसे केंद्रीयता में लाकर एक बड़ी रिक्तता को भरते हैं। इस देश के अन्यतम समाजशास्त्री धूर्जटी प्रसाद मुखर्जी कहते हैं कि जिस इतिहास, राजनीतिशास्त्र और अर्थविज्ञान को मैने पढ़ा था, वह सब भारतीय संदर्भों से कटा था। तब मैने महसूस किया कि मैं भारतीय हँ। भारतीय होने के अलावा मैं और कुछ हो नहीं सकता। मैं अपने व्यक्तित्व को अपनी संस्कृति की समझ द्वारा ही विकसित कर सकता हूं। हमारा पहला कार्य अपनी परंपरा का अध्ययन करना है। मैंने देखा है कि अपने अज्ञान और भारतीय यथार्थ से कटे रहने के कारण हमारे देश के प्रगतिशील समूह बौद्धिक समझ और राजनीतिक-आर्थिक सक्रियता के क्षेत्र में असफल रहे है। वे तब बोध और संस्कृति के इस संकट पर ही बल देते हैं।7

3

यदि हम अपने पिछले एक डेढ़ सदी के राजनीतिक-सामाजिक विचारधाराओं के इतिहास पर निगाह डालें तो परंपरा और आधुनिकता की निरंतरता और नई विचारधाराओं के उद्भव में परंपरा के योगदान की बात समझ में आ सकती है।

गीता के कर्म के दर्शन से प्रेरणा लेते हुए तिलक अपनी राजनीतिक विचारधारा को बौद्धिक आयाम देते हैं। वेदांत के दर्शन से उत्प्रेरित होकर विवेकानंद ने न केवल हिंदू धर्म के मानवीय पक्ष को और भी सशक्त किया बल्कि पूरे देश के पुनर्जागरण और दरिद्रनारायण की सेवा के लिए संगठन की नींव डाली। मध्ययुगीन विश्वव्यापी रूढ़िवादिता के बीच कबीर और तुलसी दोनों अपने ढंग के क्रांतिकारी हैं। नहि कोइ दुखी दरिद्र न दीना। नहि कोइ अबुध सुलक्षण हीना।। दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज्य काहहुं नहि व्यापा।। उस युग अथवा उसके पहले भी राज्य की ऐसी कल्याणकारी, समतावादी विचारधारा पूरी दुनिया में किसी अन्य ने प्रस्तुत की हो, इसका मुझे ज्ञान नहीं है। गांधी अपनी रामराज्य की विचारधारा तुलसी से लेते हैं।

सम्यक इतिहास बोध के अभाव में यह मान लिया जाता है कि एकीकृत भारत और उसकी राष्ट्रीयता का विकास ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव की देन हैं। वस्तुत: भारत और चीन दो ऐसे देश हैं जिनमें अपनी भौगोलिक सीमाओं की समझ और उससे जुडी सांस्कृतिक एकता का बोध इनकी सभ्यता के उषा-काल से ही रहा है। कुछ लोग इस बात की पुष्टि करने वाले अनगिनत सांस्कृतिक स्रोतों के ऐतिहासिक मूल्य को लेकर नाक भौं सिकोड़ सकते हैं। इस पूरे उपमहाद्वीप में फैले अशोक के स्तंभ और शिलालेख, कालिदास के रघुवंश और कुमारसंभवम् में इस धरती के विभिन्न प्रदेशों का काव्यमय मनोहारी वर्णन और प्रयाग स्थित समुद्रगुप्त के शिलास्तंभ पर उत्कीर्ण उसके राज्य के अंतर्गत आने वाले प्रदेशों के नाम, बाबरनामा मे बाबर द्वारा विजयानगरम, गुजरात, बंगाल के शासकों के साथ स्वयं अपने जीते प्रदेशों, पहाड़ों, वनस्पतियों का वर्णन करते हुए इस संपूर्ण भूमि को हिंदुस्‍तान कहना, इस देश की सदियों पुरानी एकता की चेतना के ऐतिहासिक प्रमाण हैं।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने इस देश के सम्मुख जो चुनौती उपस्थित की उससे जुड़े आरंभिक राष्ट्रीय प्रतिरोध की गूंज पूरे देश में होने वाले किसान-आदिवासी विद्रोह में सुनाई पड़ी। हैदर अली, टीपू, बाजीराव प्रथम, महाद जी सिंधिया, बंगाल के नवाबों के उद्धाटित-अनुद्धाटित अभिलेखों, उनके आपसी पत्राचार, उन्नीसवीं सदी के पहले दो दशकों में ईस्ट इंडिया कंपनी के वर्चस्व को अस्वीकार करते हुए अराकान, बहावलपुर, त्रावंकोर जैसे अनेक सुदूर राजघरानों द्वारा लालकिले में बैठे नख-दंत हीन मुगल बादशाह के पास खिल्लत और सनद के लिए भेजी गई अर्जियाँ अंग्रेज विरोधी देशी विचारधारा की साक्षी हैं।

पश्चिमी दुनिया के संपर्क में आने के बाद, और विशेष कर उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में, बौद्धिक चिंतन और दिशायुक्त कर्म से संचालित चार तरह की भारतीय विचारधाराएं उभरती है। पहली विचारधारा में ऐसे लोग सम्मिलित किए जा सकते है जो भारतीय अथवा पूर्व की परंपरा का पश्चिमी विचारों के साथ समन्वय और उपनिवेशवादी प्रशासन के साथ सहकार के समर्थक हैं। इसमें राममोहन रॉय का नाम सर्वोपरि है। दूसरी विचारधारा कट्टर, रूढ़िवादी हिंदुओं, मुसलमानों की है। इसमें से एक वर्ग हर हालत में अंग्रेजों के राज को समाप्त करना चाहता है (बहावी और संन्यासी) और दूसरा उससे सहयोग कर लाभ उठाने की इच्छा रखता हैं। तीसरी विचारधारा अपनी परंपरा की पुनर्व्याख्या कर, अपनी आंतरिक वैचारिक उर्जा के बल पर अपने युग और उसके बाद भी सामाजिक परिवर्तन की प्रकिया को तीव्र करना चाहती हैं। इसमें स्वामी दयानंद का नाम प्रमुख है। चौथी विचारधारा अंग्रेजी राज के अन्याय से असंतुष्ट, यूरोपीय भाषाओं, वहाँ जाकर उसकी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति से परिचित अथवा देश और विदेश में लड़ाइयों को लड़ते अंग्रेजों के युद्ध संचालन से परिचित लोगों की है। इसमें सर्वोपरि नाम अजीमुल्ला और भारतीय सिपाहियों का है।

राजा राममोहन रॉय से जुड़े नव जागरण और उसकी विरोधी तात्कालीन रूढ़िवादी विचारधारा की काफी चर्चा हो चुकी हे। दयानंद जिस तरह वैदिक पद्धति का प्रचार-प्रसार करते हैं, उसके कारण आज अपने को प्रगतिशील समझनेवाले उन्हें पुनरुत्थानवादी मान लेते हैं। लेकिन अपनी परंपरा से वैचारिक उर्जा लेते हुए वे अस्पृश्यता, सामाजिक कुरीतियों, जन्म के आधार पर सामाजिक प्रस्थिति के निर्धारण का विरोध करते हैं, संस्कृत के प्रकांड पंडित होते हुए भी हिंदी को अपने लेखन-प्रवचन का माध्यम बनाते हैं और सन 1857 के दमन के बाद की पस्त हिम्मती के बीच सबसे पहले खुल कर स्वराज की बात करते हैं। अनेक सूत्रों से इस बात की पुष्टि होती है कि 1857 की क्रांति में संन्यासियों द्वारा फौजी छावनियों में इसका संदेश भिजवाने में उनके गुरु बिरजानंद के साथ दयानंद की भूमिका थी। उनकी बातें उस युग को धयान में रखते हुए अति प्रगतिशील थीं।

यह सही है कि उपनिवेशवादी शासन के विरोध में ही राष्ट्रीयता की स्पष्ट विचारधारा का जन्म हुआ। उन्नीसवीं सदी में इसका चरमोत्कर्ष सन 1857 की जनक्रांति में हुआ। कुछ साम्यवादी लेखक आज भी सन 1857 की क्रांति को गदर अथवा सिपाही विद्रोह कहते हैं। मुख्य धारा के इतिहासकारों ने शायद ही यह समझने का प्रयत्न किया हो कि क्या इसके पीछे कोई सुनियोजित योजना और विचारधारा थी? यदि थी तो इसके प्रणेता कौन थे और उनकी पृष्ठभूमि क्या थीं? स्वयं अपने उठाए गए कदम को वे किस तरह परिभाषित कर रहे थे? कानपुर से निकलने वाले विद्रोहियों के अखबार का ‘पयाम ए आजादी’ नाम उनकी राप्ट्रीयता और आजादी की विचारधारा को स्पष्ट करता है। अंग्रेजों ने उसके संपादक- बहादुर शाह जफर के पौत्र मिर्जा बेदार बख्त की क्रूरता से हत्या की थी। भारत में पत्रकारिता के इतिहास और पत्रकारों पर हुए दमन के जिक्र में शायद ही किसी लेखक ने भूले भटके इस अखबार और इस शहीद का नाम लिया हो। अनेक अंग्रेज लेखक इस क्रांति की योजना और रणनीति का श्रेय अजीमुल्ला और उसके एक अन्य सहयेगी मुहम्मद अली खान को देते हैं। उनके अनुसार मुहम्मद अली काफी दिनों तक इंग्लैंड में रहा था और बहुत ही पढ़ा लिखा था। वे अजीमुल्ला के अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा पर अधिकार, इंगलैंड प्रवास के दरम्यान वहाँ पर उसके उच्चस्तरीय संबंध, क्रीमिया के युद्ध मोर्चे पर की उसकी यात्रा, अंग्रेज फौजों की कमजोरी की उसकी जानकारी, तुर्की में उसकी खलीफा और कुछ रूसी एजेंटों से भेंट की चर्चा करते हैं। लंदन टाइम्स का युद्ध संवाददाता रसेल लिखता है कि कुस्तुन्तुनिया-तुर्की के एक होटल में उसकी भेंट अजीमुल्ला से हुई थी। वहाँ पर मुहम्मद अली खान भी था। बातचीत में अजीमुल्ला ने उससे कहा था कि मेरा कोई मजहब नहीं है। मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ कि इन बातों में विश्वास करूं। अजीमुल्ला ने ही यूरोप से प्रिंटिंग प्रेस का भी प्रबंध किया था जहाँ से पयाम ए आजादी छपता था।8 संदर्भ में सिपाहियों ने विद्रोह की शुरुआत और अगुवाई जरूर की। लेकिन हरियाणा के गाँवो-कस्बों से लेकर पटना तक और नेपाल की तराई से लेकर नर्मदा तक ऐसा कोई गाँव, नगर नहीं था जिसकी इस जनक्रांति में भागीदारी नहीं थी। इस विद्रोह की लपटें पूर्व में असम के डिब्रूगढ़, दक्षिण में सिकंदराबाद और उत्तर में पंजाब के अनेक शहरों तक पहुंची थी। इसमें हुए जन धन के नुकसान का अंदाज लगा पाना कठिन है। फिर भी लाखों भारतीय इस संग्राम में मारे गए थे और लाखों देश छोड़ कर बाहर चले गए थे। लंदन में बैठा कार्ल मार्क्‍स इतिहास को मोड़ देनेवाली इस घटना की हर गतिविधि पर पैनी नजर रक्खे हुआ था। उसने विद्रोह के दरम्यान इस पर करीब एक दर्जन लेख अखबारों में लिखा। लेकिन दमन, दयनीयता और दलाली के मिलेजुले प्रभाव स्वरूप उस समय या उसके बाद के हिंदी लेखन में कहीं इसका जिक्र तक नहीं है।

सन् 1857 की क्रांति में अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने और आजादी का जो जयघोष था वह तीव्र दमन के कारण बिल्कुल दब गया। उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में जिन चार तरह की वैचारिक धाराओं का अभ्युदय हुआ था, वे इस काल में भी विद्यमान रहीं। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में थोड़े समय के लिए अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध संग्राम का लावा मणिपुर, नागा पहाड़ी, आज के अरुणाचल, मिजोरम, झारखंड और सरहदी सूबे के आदिवासी इलाकों में रह रह कर फूटता रहा। पूर्वोत्तर और झारखंड के आदिवासी इलाकों में एक नई विचारधारा के रूप में ईसाइ धर्म का प्रसार हुआ। इन क्षेत्रों की जनजातियों ने अंग्रेजी सरकार के साथ सहकार का रास्ता अपनाया। राजा और जमीनदार जिनकी संपति और सुख सुविधा 1857 के बाद या तो बची रह गई थी अथवा जिन्हें नए सिरे से प्रदान की गई थी, वे राजभक्ति की विचारधारा से सराबोर थे। इसी तरह राजभक्ति में डूबे, सरकारी पदों पर बैठे, पदवियों से नवाजे गए सर सैयद अहमद खाँ, शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह जैसे लोग सरकार की उदारता, अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार, भाषा और साहित्य के उत्थान पर जोर दे रहे थे। सार्वजनिक जीवन में रुचि रखने वाले, पढे लिखे मध्य वर्ग के प्रतिनिधियों जैसे दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयब जी, उमेश चंद्र बनर्जी, गोपाल कृप्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय और मोतीलाल नेहरू के मन में नए विचारों के आलोक में देश की समस्याओं से निपटने और राष्ट्रीय विचारों से आप्लावित होकर देश के लिए कुछ करने का संकल्प था। आर्यसमाज (1875), इंडियन असोसिएशन (1876) और इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक प्रश्नों पर सामूहिक विचार विमर्श और भी तेज हुआ।

इन वैचारिक प्रवृत्तियों और संगठनों का प्रभाव हिंदी लेखन पर भी पड़ा। इस काल के हिंदी लेखन में भाषा शैली और राजभक्ति को लेकर शिवप्रसाद सितारे हिंद और भारतेंदु हरिश्चंद्र में गहरी प्रतिद्वंद्विता दिखाई पड़ती है। यह हिंदी का नव जागरण काल है जिसके प्रणेता हरिश्चंद्र हैं। इसमें उनकी पत्रिकाओं कवि वचन सुधा’ (1867) और ‘हरिश्चंद्र मैगजीन (चंद्रिका’ 1873) की महती भूमिका है। भारतेंदु का लेखन और व्यक्तित्व दोनो बहुआयामी है। उनकी विचारधारा में राजभक्ति के साथ हिंदी का उत्थान, सामाजिक सुधार, देश की दुर्दशा, औद्योगिक विकास जैसे सवाल प्रमुख हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माताओं में वे शीर्षस्थ हैं। कविता, नाटक, आलोचना, यात्रा वृतांत, निबंध, उपन्यास लेखन के साथ पत्रकारिता द्वारा हिंदी की श्रीवृद्धि में उनका अप्रतिम योगदान है। अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से वे दर्जनों लेखकों को सामने लाने में सफल रहे। उनमें प्रमुख थे-बालकृप्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र और श्रीधर पाठक। तीनों का हिंदी के नव जागरण काल में साहित्यिक लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में अति विशिष्ट अवदान है। तत्कालीन परिस्थिति और कानूनी अड़चनों के कारण यह राजभक्ति का काल था जिससे काँग्रेस भी मुक्त नहीं थी। फिर भी तीनों मजहब, जाति, क्षेत्रीयता से ऊपर सर्व भारतीय राष्ट्रीयता, देशभक्ति, सर्वधार्म समभाव, स्वदेशी, महिलाओं, दलितों के उत्थान की विचारधारा में विश्वास रखते हैं। प्रताप नारायण मिश्र ने काँग्रेस की स्थापना का स्वागत किया था। वे इसके मद्रास और इलाहाबाद अधिवेशनों में कानपुर से डेलीगेट थे। अंग्रेजों द्वारा भारत की जनता के शोषण की सर्वाधिक कचोट मिश्र जी के लेखन में है। अपने अखबार ‘ब्राह्मण’ के संपादक के रूप में वे जनता के प्रबल पक्षधर हैं। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी श्रीधर पाठक की कविताओं में सामाजिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय विचारों का गहरा पुट है। वे गोपाल कृष्ण गोखले के अनुयायी थे। अपनी कविताओं में उन्होंने उनके प्रति अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। हरिश्चंद्र मंडल के इन सदस्यों में आयु में सबसे बड़ा होते हुए भी सर्वाधिक वैचारिक स्पष्टता बालकृप्ण भट्ट के लेखन में है। विचारधारा के स्तर पर वे राजभक्ति और देशभक्ति के घालमेल के विरोधी थे। वे लोकमान्य तिलक के समर्थक थे। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक और लेखन अधिक प्रौढ़ है। उस समय के साहित्यिकों के लेखन और राष्ट्रीय विचारधारा को भट्ट जी संपादन की दृप्टि से परिष्कृत अपनी पत्रिका ‘हिंदी प्रदीप’ के माध्यम से सुधी जनों तक पहुंचाते रहे। 1880-90 के दशक में पत्रकारिता के इर्द गिर्द साहित्यिक गतिविधि, खड़ी बोली गद्य के मानकीकरण, हिंदी माध्यम से देश की समस्याओं, अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों पर उर्जायुक्त वैचारिक बहस और राष्ट्रीय विचारधारा के प्रचार के बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता तीन प्रमुख केंद्र थे। बनारस में भारतेंदु का प्रभा मंडल अभी पूरी तरह देदीप्यमान था। इसी दशक में कलकत्ता से हिंदी पत्रकारिता को नया मोड़ देने वाले ‘सार सुधानिधि,’ ‘उचित वक्ता,’ ‘भारतमित्र’ और ‘हिंदी बंगवासी’ का प्रकाशन आरंभ हुआ। कालाकाँकर के राजा रामपाल सिंह ने हिंदी में मासिक ‘हिंदोस्थान’ सन 1883 पहले इंग्लैंड से निकाला। कुछ दिनों बाद इसे हिंदी के पहले दैनिक का रूप देकर दनमोहन मालवीय के संपादकत्व में वे इसे कालाकाँकर ले आए। संपादन का काम लाहाबाद से होता था। इसके संपादक मंडल में उस समय हिंदी पत्रकारिता के सबसे धिक जाने माने नाम जैसे अमृत लाल चक्रवर्ती, प्रताप नारायण मिश्र, गोपाल राम हमरी, बालमुकुंद गुप्त, शशिभूपण चटर्जी जुड़े थे। बाद में इसी टीम के बालमुकुंद गुप्त, अमृत लाल चक्रवर्ती और गोपाल राम गहमरी ‘हिंदी बंगवासी’ से जुड़े।

भारतेंदु से ही थोड़ा बहुत आरंभ होकर हिंदी लेखन और पत्रकारिता में राजभक्ति का स्वर क्रमश: मंद पड़ता गया। उसके स्थान पर राजनीतिक स्वर और राष्ट्रीय विचारधारा का प्रभाव तीव्रतर होता गया। लेखकीय ईमानदारी, जन पक्षधरता, देशी, सादगी से प्रतिबद्धता और इनके लिए जोखिम उठाने का माद्दा बढ़ा। इस काल में इन कसौटियों पर बालमुकुंद गुप्त बिलकुल खरे उतरते हैं। उनके पत्रकार जीवन का आरंभ सन 1886 में उर्दू के ‘अखबार ए चुनार’ के संपादन से आरंभ होता है। इनके देशभक्ति पूर्ण लेखन को राजभक्त मालिक बर्दाश्त न कर सका और स्वाभिमानी गुप्त जी ने नौकरी को लात मार दिया। उनकी संपादकीय क्षमता के आधार पर वे उर्दू के अत्यंत सम्मानित पत्र ‘कोहिनूर’ के 1887 में संपादक नियुक्त हुए। हिंदी पत्रकारिता में रुचि के कारण मालवीय जी के निमंत्रण पर वे हिंदोस्थान के संपादकीय विभाग में आए। राजा रामपाल सिंह ने इस आधार पर कि ये ‘गवर्नमेंट’ के खिलाफ कड़ा लिखते हैं’ फरवरी 1991 में उन्हें नौकरी से निकाल दिया। उस समय इसके विरुद्ध साहित्यिक और पत्रकार जगत में व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। इसके बाद वे कलकत्ता के हिंदी बंगवासी और फिर भारतमित्र के संपादक पद पर नियुक्त हुए। भारतमित्र का उनका संपादन काल न केवल उनके जीवन का बल्कि तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता का भी स्वर्णिम काल है।

बौद्धिक साहस के जिन वैचारिक मूल्यों को बालमुकुंद गुप्त प्रतिपादित करते हैं, उसे 1907 में उनके मृत्यु के बाद के काल में प्रेमचंद और गणेश शंकर विद्यार्थी पूरी प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाते हैं। अब राजभक्ति पीछे छूट चुकी है और इन दोनों का पूरा जुड़ाव देश, समाज, अपनी जनता और लेखन के द्वारा विदेशी शासन से मुक्ति के लिए लोगों को तैयार करना है। प्रेमचंद भी अपने देशभक्तिपूर्ण लेखन के सवाल पर सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे देते हैं। उनकी कहानियों, उपन्यासों, हंस जैसी पत्रिका और निबंधों के लेखन के मुख्य विषय हैं विदेशी शासन, जमींदारी, महाजनी सभ्यता से उत्पन्न शोषण, किसान, श्रमिक, महिला, दलित के प्रति होने वाले दिन प्रति दिन के अन्याय। उनकी आरंभ में गोखले और बाद में तिलक के विचारों से प्रतिबद्धता थी। भारतीय राजनीति में गांधी के अवतीर्ण होने पर प्रेमचंद आजीवन उनके विचारों से जुडे रहे। वे राष्ट्रीय और समाजवादी विचारों के प्रबल पक्षधर थे। हंस उनके विचारो की वाहक पत्रिका थी। काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनने के बाद प्रेमचंद ने अपने अखबार ‘जागरण’ और उसके कार्यालय को इस पार्टी को दे दिया था। राष्ट्रीय भावना के प्रचार और जनता के सवालों को लेकर संघर्ष की भूमिका में हिंदी प्रदेशों गणेश शंकर विद्यार्थी के दैनिक प्रताप में छपने काली सामग्री का जनमन पर प्रभाव के कारण संपादक और राजनेता के रूप मे वे विदेशी सरकार की ऑंखों में कांटे की तरह चुभते रहे। विद्यार्थी जी और प्रताप दोनों अपने उच्च आदर्शों और जनप्रियता के कारण एक संस्था थे। भगत सिंह की फाँसी और कराची काँग्रेस के समय कानपुर के दंगों में हर कीमत पर सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने की चेष्टा में इस महान व्यक्तित्व को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत लेखन और कविताओं के क्षेत्र में मैथिली शरण गुप्त, माधव शुक्ल, सोहन लाल द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, माखन लाल चतुर्वेदी का असाधारण योगदान है।

4

उपरोक्त विवरण से यह बात साफ है कि अपने काल विशेष की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों से हिंदी लेखन में स्वत:स्फूर्त, गतिशील विचारधारा का हमेशा प्रभाव रहा है। इसे जब किसी बिल्ला और झंडा विशेष के डंडा से हांकने का दबाव बनाया गया तो इसमें कुरुचि ओर स्तरहीनता का समावेश हुआ। उन्नीसवीं सदी के अंतिम चतुर्थांश और उसके बाद के समुचित, संपूर्ण भारतीय राजनीतिक, सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचारधारा का चरम विंदु सन 1910 और इसके आसपास के वर्ष हैं। यही गांधी के हिंद स्वराज, इकबाल के सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, बंदे मातरम के क्रांतिकारी लेख और उनके लिए अरबिंद की नजरबंदी, बाल गंगाधर तिलक का गीता रहस्य, सावरकर की पुस्तक फर्स्ट वार ऑफ इंडिपेंडेंस, सुब्रमण्यम भारती की तमिल कविताओं, मैथिली शरण गुप्त की भारतभारती और प्रेमचंद की सरकार से टकराहट और उनकी आरंभिक हिंदीं पुस्तकों का प्रकाशन का समय है।

उसके बाद के दो दशक में बिखंडनवादी, सांप्रदायिक, जातिवादी, क्षेत्रवादी- नृजातिक विचारधाराओं का तेजी से प्रचार प्रसार होता है। इस काल में मुस्लिम लीग (1906), हिंदू महासभा (1910), द्रविण विचारधारा से उत्प्रेरित जस्टिस पार्टी (1916), नगा क्लब (1918), अकाली दल (1921), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (1924) की स्थापना होती है। महाराष्ट्र में ज्योतिबा फूले ने उन्नीसवीं सदीं के अंतिम समय में जाति व्यवस्था के विरोध में समाज सुधार का आंदोलन चलाया था। उसे दलित वर्गों के संगठन (1919) और डॉ अंबेडकर के विचारों से विशेष बल मिला। भारतेंदु के समय से ही हिंदी में सामाजिक सुधार विषयक लेखन की प्रचुर परंपरा रहने के बाद भी इन आंदोलनों का प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है। विखंडनवादी विचारधाराओं के प्रभाव से भी सब मिला कर इस अवधि में हिंदी लेखन अलग ही रहा। राष्ट्रीय विचारधारा के साथ मिल कर हिन्दी में यह छायावाद का काल है।

सन 1917 में रूस में बोलशेविक क्रांति हुई। भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना (1925) हुई। सन 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। सन् 1936 में लखनउ में सज्जाद जहीर की पहल और प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संध (प्रलेस) का पहला सम्मेलन हुआ। स्मरणीय है कि पाकिस्तान बनते ही सबसे पहले सज्जाद जहीर पाकिस्तान चले गए थे। वहां रहना जब दूभर हो गया तो प्रधान मंत्री नेहरू की कृपा से वे किसी तरह फिर से भारत लौट पाए थे। आरंभ में पांच छ: वर्पों तक प्रलेस राष्ट्रवादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट और सामाजिक सरोकारों में रुचि रखने वाले लेखकों का साझा मंच था। भारत छोड़ो आंदोलन में जब इससे जुड़े बहुत से लेखक जेल चले गए तो कम्युनिस्टों ने इस पर कब्जा कर लिया। उसके बाद स्टालिनवादी तानाशाही साँचे में ढली कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से विचारधारा के नाम पर अपने जेबी संगठन प्रलेस और इप्टा के जरिए साहित्य और संस्कृति की भूमिका की डंडामार कवायद आरंभ हुई।

प्रलेस की विचारधारा के निर्धारण में जब शिवदान चौहान, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव जैसे आलोचकों का राजत्व काल था तब तुलसी और कबीर, रामचंद्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय के लेखन में प्रगतिशीलता और प्रतिगामिता के जीवाणुओं की मात्रा दलगत राजनीति के आधार पर ढूँढ़ी गई। अनेक युवा कम्युनिस्ट साहित्यकार जो आज तबेले में लतिहाव जैसी कम्युनिस्ट लेखको की आपसी गिरोहबंदी से ईमानदारी से दुखी हैं, उनका विश्वास है कि यह स्थिति कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव के कारण हैं। वस्तुत: जब कम्युनिस्ट पार्टी एक थी तब भी हिंदी के सवाल पर राहुल जैसे महापंडित के लिए गुटबंदी के चलते पार्टी में स्थान नहीं था और उन्हें दल से निष्कासित कर दिया गया था। किसी भी कम्युनिस्ट लेखक ने इसके विरोध का साहस नहीं प्रदर्शित किया था। उस समय भी रांगेय राघव रामविलास शर्मा पर वैसे ही हमला कर रहे थे जिस तरह पिछले कुछ वर्पों में रामविलास शर्मा न केवल नई कविता और उससे जुड़े लोहियावादियों पर बल्कि नेमिचंद्र जैन और मुक्तिबोध जैसे अपनी ही विचारधारा के लेखकों पर राजनीतिक कारणों से हमला करते हैं।9 यह दुखद है कि झूठी विचारधारा के नाम पर लड़ी जाने वाली, कम्युनिस्ट लेखकों की इस अहंजन्य लड़ाई और दिशाहीन मानसिकता से उपजे सन्निपाती घात प्रतिघात की चपेट में अब रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, ज्ञानरंजन भी आ चुके हैं।

साहित्य में जिस माफियातंत्र की चर्चा निर्मल वर्मा बरसों पहले करते हैं, उसी तर्ज पर प्रगतिशील लघु पत्रिाका ‘कल के लिए’ के संपादकीय ‘लेखनी में माफिया’ के अनुसार’ आज हमारे बीच मतभेद से अधिक मनभेद हो गया है…आलोचना/ समीक्षा के नाम पर कोरी दलाली चल रही है।…गुंडों के गिरोह/ माफियाओं पर तो गैंग्स्टर/ रासुका भी लग सकता है लेकिन इन साहित्यिक/ पत्रकार माफियाओं पर यह सब भी नहीं लगाया जा सकता है। यह साहित्यिक गिरोहबंदी न सिर्फ प्रतिभाओं को कुंठित कर रही है, बल्कि उन्हें दिग्भ्रमित भी कर रही है।’10 

बरसों पहले हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस तरह की एकांगी अतिवादिता के दुष्परिणामों का अनुभव कर लिया था और उन्होने समीक्षा में संतुलन का प्रश्न उठाया था। उनके अनुसार ‘संतुलित दृष्टिकोण इन्हीं एकांगी दृष्टियों की अतिवादिता से विनिर्मुक्त और इन सबमें पाई जानेवाली सच्चाई पर समग्र दृष्टि है। वह किसी पक्ष को आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं देती और किसी पक्ष की सच्चाई की उपेक्षा नहीं करती।’11 इन्हीं अतिवादों से बचने के लिए अपनी जन पक्षधरता के बाद भी मलयालम के लेखक एम. मुकुंदन ‘लेखकों को विचारधारा से बचने की सलाह देते हैं।’12 

5

समय के संदर्भ में समाज, संस्कृति और साहित्य को समझने के लिए इतिहास-बोध आवश्यक है। व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र का इतिहास-बोध उनकी वर्चस्ववादी विचारधारा अथवा विश्वदृष्टि के साथ जुड़ा होता है। आज भारतीय समाज और संस्कृति को समझने की विश्वदृष्टि विखंडित होकर संप्रदायगत, दलगत और समुदायगत हितों में बदल चुकी हैं। इसने जिस मजहबी कट्टरता, जातिवादी विभाजन और दिशाहीन राजनीति को जन्म दिया है, उसका कुफल पूरा देश भोग रहा है। इन सवालों पर अलग से विचार करने की जरूरत है। प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास के विश्लेषण मे दो अतिवादी दृष्टियों से बचने की आवश्यकता है। कुछ लोग वैदिक परंपरा को ही एकमात्र भारतीय परंपरा मान लेते हैं। उनके अनुसार यह प्राचीन परंपरा भारत के स्वर्ण युग का प्रतिनिधित्व करती है। हिंदुत्व के आंदोलन के साथ इस विचार को नए सिरे से बल मिला है। इन विचारों के बोझ तले यह सत्य दब जाता है कि हिंदुओं के छ: दर्शनों में भी बड़ी विभिन्नता है। भारतीय चिंतन ने विविधता, बहुलता, विमर्श को सर्वदा प्रोत्साहित किया। असहमति और प्रतिरोध का कभी गला नहीं दबाया। दूसरी ओर कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित लेखक जन भावना, लोक परंपरा की बिलकुल अनदेखी कर यह प्रचारित करने की चेष्टा करते हैं कि हिंदुओं ने बौध्दो/जैनियों के मंदिर तोड़े। वे यह भुला देते हैं कि कोटि कोटि हिंदुओं के लिए बुद्ध और महावीर वैसे ही ‘भगवान’ हैं जैसे राम और कृष्ण। संख्या की दृष्टि से असली अल्पसंख्यक यहूदियों और पारसियों को जहाँ अन्य जगहों पर प्रताड़ना मिली, उन्हें इस देश में अद्भुत सम्मान मिला। सदियों से यही भारतीय परंपरा रही हैं। कम्युनिस्ट संगठन ‘सहमत’ द्वारा अपनी प्रदर्शनियों में राम और सीता का जन भावना के विपरीत जिस तरह चित्रण किया गया, वह कुत्सित मानसिकता का परिचायक है।

जहाँ तक हिंदी के कम्युनिस्ट लेखकों का प्रश्न है, वे इतिहास-बोध और विश्वदृष्टि की बार बार चर्चा करते हैं। भारतीय समाज और चिंतन के बोध और दृष्टि के लिए वे मार्क्‍सवादी होने का दावा करते हैं। लेनिन, माओ और हो ची मिन्ह को अपनी राष्ट्रीय परंपरा पर गर्व था। डी पी मुखर्जी जैसा मार्क्‍सवादी समाजशास्त्री और डी डी कौशांबी जैसा इतिहास लेखन को नई दिशा देने वाला मार्क्‍सवादी, भारतीय परंपरा के अध्ययन पर जोर देते हैं। लेकिन आजीवन कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहनेवाले रामविलास शर्मा जब वेदों पर लिखते हैं तो वे हिंदुत्ववादी घोषित कर दिए जाते हैं।

अंग्रेजी सरकार और उसके द्वारा पोषित इतिहासकारों ने सन 1857 की जनक्रांति को सिपाहियों का गदर साबित करने की जी तोड़ कोशिश की है। विद्रोहियों द्वारा घोषित उद्देश्य के अनुसार यह आजादी का पयाम था। रामविलाश शर्मा जैसा बहुपठित लेखक भी इसकी शतवार्षिकी के अवसर पर जब पुस्तक लिखता हे तो इसे गदर कहता है। बहुत पहले सावरकर इसे स्वाधीनता का प्रथम युद्ध कह चुके थे। तब तक कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन के अनुसार यह सामंती ताकतों द्वारा सत्ता में फिर से वापसी की साजिश का नतीजा था। इसके बाद 1857 के विषय में मार्क्‍स के लेखों का संग्रह प्रकाशित होता है। उसके बाद शर्मा जी भी अपनी गलती का परिमार्जन करते हैं और अपनी बाद की पुस्तकों में इसे क्रांति कहते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध में थके हारे रूसी सिपाही जब बर्फ से भरे खंदकों से भाग कर जार के खिलाफ विद्रोह कर देते हैं तो वह क्रांति कही जाती है। भारतीय सिपाही 1857 में जब विद्रोह का बिगुल बजाते हैं तो कम्युनिस्ट मानसिकता से प्रभावित लेखक इसे हाल तक गदर कहते हैं। अति बुद्धिमानी का परिचय देते हुए वे जनता की भागीदारी को क्रांति और मेरठ के सिपाहियों के विद्रोह को गदर कहते हैं।13 

दूसरे विश्व युद्ध के पूरे काल में कम्युनिस्ट पार्टी और उसके समर्थक लेखकों की इतिहास दृष्टि कुहासे से भरी और आत्मघाती रही है। युद्ध के पहले ही विचारधारा को ताक पर रख कर स्टालिन ने हिटलर से समझौता किया था। रूस और जापान का समझौता पूरे युद्ध काल में बरकरार रहा था। फासिस्ट ताकतों के किए गए इन दोनो समझौतों के खिलाफ कम्युनिस्टों ने उंगली नहीं उठाई सुभाष बोस जब जर्मनी गए, जर्मनी का रूस से समझौता बरकरार था। वे जब जापान पहुंचे और आजाद हिंद सरकार के प्रधान हुए, रूस ने न तो जापान न तो कभी सुभाष बोस की सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। लेकिन भारत में बैठे, ऍंग्रेजों की टहलुआ बनी कम्युनिस्ट पार्टी , उसके संगठन प्रलेस और इप्टा ने अपनी ओर से बोस के विरुद्ध चुनिंदा राजनीतिक गालियों के साथ युद्ध की घोषणा कर दी। वे ‘भारत छोडो’ आंदोलन की पीठ में छूरा भोंकते रहे। उस समय इस देश के हजारों बेगुनाह लोगों की हत्या, लाखों की यंत्रणा, हजारों की कैद, आगजनी, लूट, महिलाओं के सम्मान पर हमला प्रलेस और इप्टा के जन पक्षधरता के नायकों की इतिहास दृष्टि और लेखकीय संवेदनशीलता से ओझल रह गया।

अंत में यह कहा जा सकता है कि दलगत राजनीति, निजी हित, स्फीत अहम के साथ जुड़ा विचारधारा के ढोंग का छाता, अपनी राष्ट्रीय परंपरा को समझे बिना उसके प्रति विरक्ति अथवा आक्रोश का भाव, सम्यक विचारधारा अथवा समग्र इतिहास-बोध के स्थान पर समाज विरोधी और जन विरोधी बन जाता है। दुर्भाग्यवश हिंदी लेखन में यह प्रवृति जोर पकड़ती जा रही है। इसका समाधान अन्याय के विरुद्ध सक्रिय पक्षधरता, जनहित से जुड़ी विचारधारा, सच्चाई के खोज से उत्प्रेरित वस्तुपरक ज्ञान, गहन आत्म-परीक्षण, संतुलित समीक्षा, असहमति के बाद भी पारस्परिक आदर और सुचिंतित इतिहास-बोध से ही संभव है।

संदर्भ :

1. त्रैमासिक ‘कल के लिए’ बहराइच, संयुक्तांक, अक्टूबर 2002-मार्च 2003, रामविलास शर्मा विशेषांक।

2. नित्यानंद तिवारी ‘अकेलेपन से संन्यास की ओर’ ‘संकल्प-समीक्षा दशक’ संपादिका, निर्मला जैन, हिंदी अकादमी, दिल्ली, 1992, पृ. 40।

3. ‘निर्मल वर्मा’ अज्ञेय: आधुनिक बोध की पीड़ा’ वहीं, पृ.60-61।

4. विजय देव नारायण साही ‘कवि के बोल खरग हिरवानी’ वहीं, पृ. 230-231।

5. संक्षिप्त बोधगम्य विवरण के लिए देखिए इर्विंग एम. ज़ेटलिन ‘रीथिंकिंग सोश्यॉलॉजी’ रावत पब्लिकेशंस, जयपुर,1987, पृ. 139-166।

6. आइडिऑलॉजी एंड यूटोपिया, लंदन,1936, एस्सेज़ ऑन द सोश्यॉलॉजी ऑफ नॉलेज, लंदन, 1952, अथवा दोनों के बाद के संस्करण।

7. इंडियन ट्रेडीशन एंड सोशल चेंज’, इन डाइवर्सिटीज, नई दिल्ली, 1958, पृ. 228-41।

8. डब्लू एच रसेल ‘माइ इंडियन म्युटिनी डायरी’ लंदन 1860, पुनर्संपादित संस्करण, लंदन, 1957, पी जे ओ टेलर ‘ए स्टार शैल फाल: इंडिया 1857’ नई दिल्ली 1993।

9. साक्षात्कार, कल के लिए: रामविलास शर्मा विशेषांक-3, अक्टूबर 02-मार्च 03, पृ.18-19।

10. वहीं पृ. 4-5।

11. समीक्षा में पुस्तक वार्ता, अंक सात, सितंबर-अक्टूबर, 2002, पृ. 27-28।

12. वहीं पृ. 36-37।

13. विपनचंद्र, कमलेश त्रिपाठी, बरुण दे ‘स्वतंत्रता संग्राम’ नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, दसवीं आवृति, 1994, पृ. 32-35।

(देश-अनेक के अनेक विश्‍वविद्यालयों, शोध केंद्रों से जुड़े रहे प्रो. दुबे जाने माने समाजशास्‍त्री और हिंदी पाठकों के लिए एक सुपरिचित स्‍तंभ लेखक है। किसी दल विशेष की राजनीति की लक्ष्‍मण रेखा से परे हटकर, वे समाजवादी बुद्धिजीवियों के संगठन ‘समाजवादी विचार मंच’ के राष्‍ट्रीय संयोजक भी हैं। पिछले कुछ वर्षों में अनेक सद्य: प्रकाशित हिंदी कृतियों की इनके द्वारा लिखित समीक्षाएं बड़े ही ध्‍यान से पढ़ी गई हैं।)

त्रैमासिक पत्रिका ‘चिंतन सृजन’ से साभार

2 COMMENTS

  1. पता नहीं यह लिख कर मैं लेखक के विषद आख्यान और उनके इस शोध निबंध के प्रति न्याय कर पाऊंगा की नहीं पर मैं सीधी सादी भाषा में कुछ कहना चाहता हूँ.इधर दो तीन दसकों के हिंदी लेखन के बारे में लेखक ने जो विचार व्यक्त कियें है,उस पर टिप्पणी करना मेरी अनाधिकार चेष्टा होगी,क्योंकि साठ के दसक के बाद मेरा हिंदी से कम ही लगाव रहा है. विद्वान लेखक ने अपने इस शोध निवंध को तैयार करने में कठिन परिश्रम किया है.इन्होने न केवल विषद सन्दर्भों का सहारा लिया है,बल्किअपनेलेख के प्रायः सभी परिच्छेदों में उनका प्रयोग करते हुए उनका उल्लेख भी करते गए हैं.इस तरह से सन्दर्भों का उपयोग आलेख की प्रामाणिकता पर तो मुहर लगा देता है,पर मेरे विचारानुसार मौलिकता को प्रभावित कर देता है.यही यहाँ भी लग रहा है.साहित्य समाज का दर्पण है ,यह तो सर्वमान्य है. इस दृष्टि कोण से देखा जाए तो हमारा हिंदी साहित्य बहुत अरसे तक वह काम नहींकर सका है.ऐसे भी हमारा हिंदी गद्य साहित्य तो इतनान्या है,की इस दिशामें उससे बहुत कुछ उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.हिंदी गद्य का उद्भव हीं उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ है.उसपर विचार करने के पहले अगर हिंदी साहित्य पर दृष्टि डालें तो वह कवियों की भाषा ही रही है और वह भी हिंदी की विभिन्न बोलियों वाली भाषा.हिंदी भाषा की एक रूपता उसमे कहीं नहीं दृष्टिगोचर होती मेरी जानकारी के अनुसार हिंदी साहित्य का पहला काव्य ग्रन्थ चंद वरदाई का पृथ्वीराज रासो है.चंदवरदाई रचित यह ग्रन्थ भी एक तरह से पृथ्वीराज की विरुदावलीहै,चारण की भाषा.हो सकता है की इस प्रकार के अन्य ग्रंथों की रचना भी हुई हो ,पर उनकाकोई इतिहास मेरी नज़रों से नहीं गुजरा है.किसी समवर्ती राजा या उस समय के समाज से सम्बंधित हिंदी में यह शायद प्रथम प्रमाणिक ग्रन्थ है.उसके पहले की रचनाओं में संस्कृत या उसका जन मानस वाला रूप प्राकृत और पाली का उल्लेख मिलता है.जातक कथाएं ऐसे तो मैंने हिन्दी में पढी है,पर ये मेरे ज्ञानानुसार उस समय वह सामान्य जन मानस की सुविधा के लिए प्राकृत में लिखी गयी थी.इससे यह भी ज्ञात होता है कीमहात्मा बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के काल में संस्कृत जन साधारण की भाषा न होकर दरबारों और कवियों और लेखकों की भाषा रह गयी थी.बुद्ध के आविर्भाव से पहले से लेकर आठवीं या नौवीं शताब्दी तक किसी न किसी रूप में लेखन में संस्कृत का वर्चश्व बना रहा,पर हमारे पास उपलब्ध संस्कृत ग्रंथों से उस युग के जन साधारण या समाज के बारे में कम, पर सम्राटों औरों राजाओं के बारे में अधिक जानकारी मिलती है.संस्कृत का वर्चस्व कम से कम सातवीं शताब्दी तक तो प्रमाणित है,जब हर्षवर्धन का शासन था.उनके दरबार में न केवल वाण भट्ट जैसे कवि या लेखक थे,बल्कि स्वयं उनकी गिनती संस्कृत के बड़े विद्वानों में होती थी.मुझे एक श्लोक याद आरहा है,
    उपमा कालिदासस्य भारवे अर्थ गौरवं .
    हर्षे पद लालित्यां माघे सन्ति त्रयो गुणाः
    वाण भट्ट ने अपने हर्ष चरित नामक रचना में महाराज हर्ष का उसी तरह का वर्णन किया है जैसा चंद वरदाई ने अपनी रचना में पृथ्वीराज का किया है. उस समय के जन साधारण की अव्स्स्था का ज्ञान इन रचनाओं से नहीं होता.इतिहास अवश्य अपना काम कर रहा था,पर साहित्य और साहित्यकार अपना पृथकराग अलाप रहे थे. हिंदी साहित्य या हिंदी कविता की दृष्टि से सबसे शक्तिशाली उस काल को माना जाता है जो भक्ति काल के नाम से प्रसिद्ध है.यह काल मुस्लिम काल के सम कालीन है.कबीर से आरम्भ होकर सूर,तुलसी,जयसे,रसखान ,रहीमसे होते हुए यह केशवदास तक आता है.यद्यपि यह काल भारतीय इतिहास का सबसे उथल पुथल वाला समय था,पर उस समय की रचित सामग्री ,जो हमारे पास उपलब्ध है,उसको देखकर तो ऐसा लगता है कीहमारा सामाज एक तरह के निराशा के दौर से गुजर रहा था.फिर आता है रीति काल .केशवदास को भक्ति काल के अंत और रीतिकाल के आरम्भ की कवि कहा जासकता है.रीति काल के कवियों में सबसे अधिक उल्लेखनीय दो नाम हैं बिहारी और देव,पर उन्ही के समकालीन एक अन्य कवि का नाम आता है और वे हैं महाकवि भूषण.उन्होंने उस समय के स्वतंत्रता के दो प्रसिद्द सेनानियों,शिवाजी और छत्रशाल की प्रशंसा में बहुत कुछ लिखा है.उससे यह तो पता चलता है की कुछ लोग या कुछ रचनाकार अपने युग की आंकाक्षाओं के साथ थे.उर्दु शायरों में ग़ालिब या मीर भीअपनी डफली अपना राग बजाकर लोगों को मनोरंजन प्रदान कर रहे थे.रीति काल के कवियों की रचनाओं को देख कर तो ऐसा लगता है की जन मानस ,उसकाल में खुशहाल अवश्य था.
    उन्नीसवीं शताब्दी का आरम्भ आधुनिक हिंदी खासकर इसके गद्य स्वरूप का उद्भव काल है,और उसके विकास में सबसे अधिक योगदान भारतेंदु हरिश्चंद्र का है.पता नहीं वे मानव थे या महामानव.केवल पींतीस वर्ष की आयु उपलब्ध हुई थी उन्हें ,पर उसी उम्र में वे वैसा कुछ कर गए जो शायद किसी दोगनी या तिगुनी उम्र वाले ले लिए भी संभव नहीं .उस समय हिंदी को फुलने फलने में जिस एक लेखक या पुस्तक श्रृंखला कका सबसे अधिक योगदान है,उसको हम बहुधा भूल जाते हैं,वह है श्री देवकीनंदन खत्री रचित चंद्रकांता,चन्द्र कांता संतति और भूतनाथ.उन्होंने ऐसा तिलस्मी और रोमांचक विषय चुना था की अनेक लोगों ने उन पुस्तकों को पढने के लिए हिंदी सीखी.अगर उन पुस्तकों का ऐतिहासिक या सामाजिक दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो कुछ भी उपलब्ध नहीं होगा.
    इसी काल में राष्ट्रीयता से ओत प्रोत बहादुर शाह के गजलों को भी भूलना नामुमकिन है.
    जहाँ तक हिंदी साहित्य पर साम्यवाद या मार्क्सवाद की साया पड़ने का प्रश्न है,मैं नहीं समझता की १९१७ की बोल्सेविक क्रांति की सफलता के पहले इसका कोई प्रभाव हिंदी साहित्य पर था.बाद में तो ऐसा हुआ की हिंदी जगत के कवि,लेखक और आलोचक सब इसके प्रभाव में आगये.प्रगति शील लेखक संघ की विधिवत स्थापना भले ही १९३६ में हुई हो,पर यहप्रगति शीलता की लहर उसके पहले से जोरों पर थी..प्रेमचंद ने शायद उसकेस्थापना में योगदान दिया था,पर उनकी म्रत्यु उसी साल हो गयी थी,अतः उनका कोई ख़ास सहयोग उसके साथ नहीं रहा होगा,पर उनकी १९१७ के बाद की रचनाओं में साम्यवाद प्रतिविम्वित होता है.ऐसे भी प्रेमचंद का सम्पूर्ण जीवन संघर्षों के बीच बीता था,अतः उनकी रचनाओं में आम आदमी की दुर्दशा का जो वर्णन है है उससे उनका जीवन भी पृथक नहीं था.

  2. आलेख की सामग्री और वैचारिक गिरोहबंदी दोनों ही avyav एतिहासिक द्वंदात्मकता के अनुकूल हैं.विश्वास कीजिये की यदि कोई भी सिरा मानवीय जीवन को सहारा नहीं देता तो आलेख की विषय वस्तु के केंद्र में हिन्दी लेखन को इतिहास वोध नहीं होता.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here