हिन्दू संस्थाओं पर राजनीतिक भेद-भाव : शंकर शरण

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डॉ. भीमराव अंबेदकर ने कहा था कि हमारा संविधान सेक्यूलर नहीं क्योंकि “यह विभिन्न समुदायों के बीच भेद-भाव करता है।” यह तब की बात है, जब संविधान की प्रस्तावना में छेड़-छाड़ नहीं हुई थी। आज इस बिन्दु पर, धार्मिक भेद-भाव और सेक्यूलरिज्म पर, एक दोहरी विडंबना पैदा हो चुकी है। एक ओर सन् 1976 में इमरजेंसी दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्यूलर’ (और ‘सोशलिस्ट’ भी) शब्द जोड़ दिया गया जो संविधान निर्माताओं की भावना न थी। वे इन अवधारणाओं और निहितार्थों से बखूबी परिचित थे, इसलिए विचार करने के बाद इन्हें संविधान में स्थान नहीं दिया। मगर विडंबना है कि बाद में एक राजनीतिक चौकड़ी ने छल से इस शब्द को संविधान में प्रवेश करा दिया, वह भी प्रस्तावना जैसे मूल-निर्देशक स्थान पर; जब पूरा विपक्ष जेल में और मीडिया पर सेंसरशिप थी।

मगर दूसरी विबंबना उस से कम नहीं। कि जब संविधान को बाकायदा ‘सेक्यूलर’ घोषित कर दिया गया, उस के बाद से राजनीतिक नीति-निर्माण को निरंतर धार्मिक भेद-भाव पूर्ण रुझान दे दिया गया। अर्थात्, सेक्यूलरिज्म के ठीक, एक हिन्दू-विरोधी प्रवृत्ति राजकीय नीति सी बन गई। इस के अनगिनत प्रमाण और दृष्टांत रोज मिलते रहते हैं। कई नेता, बुद्धिजीवी और न्यायविद् इसे महसूस भी करते हैं, मगर कुछ नहीं करते। या कर नहीं पाते। इसे एक अन्य विडंबना समझना चाहिए। विशेषकर इसलिए कि यह सब मुख्यतः हिन्दू परिवारों में जन्मे कर्णधारों, विद्वानों और नैयायिकों द्वारा होता है।

इस जरूरी पीठिका के साथ ही अभी शिरडी साईं मंदिर न्यास में पुनर्गठन की प्रक्रिया को ठीक से समझा जा सकता है। हाल में औरंगाबाद हाई कोर्ट ने शिरडी साईं मंदिर के वर्तमान न्यास को भंग कर राजकीय जिलाधिकारी को नए न्यास का निर्माण करने कहा। इस के बाद से महाराष्ट्र के कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं में नए न्यास में कब्जे की जोड़-तोड़ शुरू हो गई है। पिछले न्यास में भी 17 में से 16 सदस्य इन्हीं पार्टियों के नेतागण थे। अर्थात्, शिरडी साईं मंदिर का प्रबंधन शिरडी साईं के भक्तों और धर्मप्राण हिन्दुओं के हाथों में नहीं है। इसे राजनेताओं ने हथिया लिया है। हमारे न्यायालय यह जानते हैं।

तब प्रश्न हैः भारतीय राज्यसत्ता हिन्दुओं को अपने मंदिरों, धार्मिक संस्थाओं के संचालन करने के अधिकार से जब चाहे वंचित करती है, जबकि मुस्लिमों, ईसाइयों की संस्थाओं पर कभी हाथ नहीं डालती। यह हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव नहीं तो और क्या है? केवल शिरडी साईं मंदिर ही नहीं, केरल से लेकर तिरूपति, काशी, बोधगया और जम्मू तक, संपूर्ण भारत के अधिकांश प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा कर लिया गया है। इन में हिन्दू जनता द्वारा चढ़ाए गए सालाना अरबों रूपयों का मनमाना दुरुपयोग किया जाता है। जिस प्रकार, चर्च, मस्जिद और दरगाह अपनी आय का अपने-अपने धार्मिक विश्वास और समुदाय को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग करते हैं – वह अधिकार हिन्दुओं से छीन लिया गया है! बल्कि कई मंदिरों की आय दूसरे समुदायों के मजहबी क्रियाकलापों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग की जाती है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक से हिन्दू मंदिरों की आय से मुसलमानों की हज सबसिडी देने की बात कई बार जाहिर हुई है।

यह किस प्रकार का सेक्यूलरिज्म है? यह तो स्थाई रूप से हिन्दू-विरोधी धार्मिक भेद-भाव है, जो निस्संदेह हमारे संविधान के भी विरुद्ध है। सामान्य न्याय-बुद्धि के विरुद्ध तो है ही। यह अन्याय नास्तिक और विशेषकर हिन्दू-विरोधी नेहरूवादियों, वामपंथियों ने राजसत्ता का छल से उपयोग कर भारतीय जनता पर थोपा। अब दशकों से चलते हुए यह परिपाटी एक स्थापित राजकीय नीति में बदल गयी है। वोट-बैंक राजनीति के बढ़ते लोभ से इस पर दूसरे राजनीतिक दल भी कोई आवाज नहीं उठाते। मगर गैर-राजनीतिक स्वर क्यों मौन हैं?

कुछ लोग तर्क करते हैं कि हिन्दू मंदिरों, धार्मिक न्यासों पर राजकीय नियंत्रण संविधान-विरुद्ध नहीं है। संविधान की धारा 31.ए के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं, न्यासों की संपत्ति का अधिग्रहण हो सकता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के श्री आदिविश्वेश्वर बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (1997) के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा, “किसी मंदिर के प्रबंध का अधिकार किसी रिलीजन का अभिन्न अंग नहीं है।” अतः यदि हमारे देश में राज्य ने अनेकानेक मंदिरों का अधिग्रहण कर उस का संचालन अपने हाथ में ले लिया, तो इस में कुछ गलत नहीं।

किन्तु आपत्ति की बात यह है कि संविधान की धारा 31(ए) का प्रयोग केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर होता रहा है। किसी चर्च, मस्जिद या दरगाह की संपत्तियाँ कितने भी घोटाले, विवाद या गड़बड़ी की शिकार हों, उन पर राज्याधिकारी हाथ नहीं डालते। जबकि संविधान की धारा 26 से लेकर 31 तक, कहीं किसी विशेष रिलीजन या मजहब को छूट या विशेषाधिकार नहीं दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी ‘किसी धार्मिक संस्था’ या ‘ए रिलीजन’ की बात की गई है। मगर व्यवहारतः केवल हिन्दू मंदिरों, न्यासों पर राज्य की वक्र-दृष्टि उठती रही है। चाहे बहाना सही-गलत कुछ हो।

इस प्रकार, स्वतंत्र भारत में केवल हिन्दू समुदाय है जिसे अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह निष्कटंक अधिकार नहीं, जो अन्य धर्मावलंबियों को है। यह सीधा अन्याय है, जो हिन्दू समुदाय को अपने धर्म और धार्मिक संस्थाओं का, अपने धन से अपने धार्मिक कार्यों, विश्वासों का प्रचार-प्रसार करने से वंचित करता है। उलटे, हिन्दुओं द्वारा श्रद्धापूर्वक चढ़ाए गए धन का हिन्दू धर्म के शत्रु मतवादों को मदद करने में दुरुपयोग करता है। यह हमारी राज्यसत्ता द्वारा और न्यायपालिका के सहयोग से होता रहा है – इस खुले अन्याय पर कब विचार होगा?

वस्तुतः संविधान की धारा 26 से लेकर 30 तक एक ऐसी विकृति की शिकार है, जिस की हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना तक नहीं की थी। संविधान निर्माताओं ने संविधान में समुदाय के रूप में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का अलग से कई बार प्रयोग किया, जबकि ‘बहुसंख्यक’ का एक बार भी नहीं। (धारा 30 में धर्म और भाषा के संदर्भ में ‘अल्पसंख्यक’ का उल्लेख है)। न बहुसंख्यक समुदाय के लिए अलग से कोई प्रावधान किया। इस का अर्थ यह नहीं था कि वे अल्पसंख्यक समुदायों को ऐसे अधिकार देना चाहते थे, जो बहुसंख्यकों को न मिले। बल्कि वे सहज मानकर चल रहे थे कि बहुसंख्यकों को तो वह सभी अधिकार होंगे ही!

संविधान बनाने वालों की भावना यह थी कि अल्पसंख्यकों को किन्हीं कारणों से उन अधिकारों से वंचित न होना पड़े। इसलिए उन्हें बहुसंख्यकों के बराबर सभी अधिकार मिला रहे, इस नाम पर धारा 30 जैसे उपाय किए गए। धारा 30 (2) को पढ़कर संविधान निर्माताओं का यही भाव स्पष्ट होता है। किन्तु स्वतंत्र भारत में हिन्दू-विरोधी एवं नास्तिक नेताओं, बुद्धिजीवियों ने धीरे-धीरे, चतुराई से उन धाराओं का अर्थ यह कर दिया कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार हैं। यानी ऐसे अधिकार जो बहुसंख्यकों, यानी हिन्दुओं या हिन्दी भाषियों को, नहीं जाएंगे। एम. जे. अकबर ने एक बार स्पष्ट रूप से कहा भी कि बहुसंख्यकों के बराबर अधिकार देने का अर्थ अल्पसंख्यकों को नीचे उतारना है।

इस बौद्धिक जबरदस्ती और अन्याय का व्यवहारिक रूप यह हो गया है कि धारा 25 से लेकर 30 तक की व्याख्या और उपयोग हिन्दू समुदाय के धर्म और अधिकारों के प्रति नीचा भाव रखते हुए किया जाता है। इसीलिए हिंदू मंदिरों, संस्थाओं और न्यासों को जब चाहे सरकारी कब्जे में लेकर फिर उस की आय का मनमर्जी उपयोग/दुरुपयोग होता है।

अतः इस पर खुला विचार होना चाहिए कि हिन्दुओं को अपने मंदिर, संस्थान और न्यास संचालित करने का वही मौलिक अधिकार क्यों नहीं है, जो दूसरों को है? यदि किसी मंदिर में विवाद या घोटाला हो, तो दोषी व्यक्तियों को नियमानुसार या कानूनी प्रक्रिया से कार्यमुक्त या दंडित किया जा सकता है। किन्तु न्यास को हिन्दू श्रद्धालुओं के बदले, नेताओं, अफसरों से भर कर उस पर राजनीतिक या राजकीय कब्जा करना सरासर हिंदू-विरोधी कृत्य है। यह कानून को हिन्दू-विरोधी अर्थ दे देना है।

दुर्भाग्य से, समय के साथ न्यायालयों ने भी संविधान की 26-30 धाराओं का वह अर्थ कर दिया है, मानो अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हैं जो बहुसंख्यकों को नहीं। उदाहरणार्थ, हज सबसिडी की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर जनवरी 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह एक समुदाय के लिए मजहबी पक्षपात है। किन्तु चूँकि इस में राजकीय बजट की ‘बड़ी रकम’ नहीं लगती (केवल 611 करोड़ रूपए सालाना), इसलिए यह संविधान की धारा 27 का उल्लंघन न माना जाए। यह एक विचित्र तर्क था! मगर यह प्रकारांतर अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार देने जैसा ही है।

यह तब और अन्यायपूर्ण प्रतीत होता है जब देखें कि केरल, गुजरात और पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक मजहबी संस्थाओं का आतंकवादियों द्वारा दुरुपयोग करने के समाचार आते रहे हैं। चर्च द्वारा माओवादियों और अलगाववादियों को सहयोग देने की खबरें भी कई स्थानों से आई हैं। क्या यह सब मस्जिद और चर्च प्रबंधन में गड़बड़ी नहीं? तब केवल रामकृष्ण आश्रम, तिरूपति, काशी विश्वनाथ या शिरडी साईं मंदिर जैसी हिन्दू संस्थाओं पर ही राजकीय हस्तक्षेप की तलवार क्यों लटकाई गई? यह स्पष्टतः भारत में हिन्दुओं का हीन दर्जा ही है कि वे अपनी धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को उसी अधिकार से नहीं चला सकते जो ईसाइयों और मुस्लिमों को हासिल हैं।

यह चलन न केवल सहज न्याय विरुद्ध है, बल्कि गैर-सेक्यूलर भी है। सेक्यूलर राज्य का प्राथमिक अर्थ है कि राज्य धर्म के आधार पर अपने नागरिकों में भेद-भाव नहीं करेगा। जबकि भारत में धारा 26-30 का सारा व्यवहार इस अघोषित मान्यता पर चलता है कि हिन्दू संस्थानों – मंदिरों, शिक्षा संस्थाओं, आश्रमों, न्यासों – को चर्च, मस्जिदों, कान्वेंटों और मकतबों की तुलना में कम स्वतंत्रता है।

दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं, कि वहाँ अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हों, जो बहुसंख्यकों को न हो। मगर भारत में यही चल रहा है। कानूनी और राजनीतिक दोनों रूपों में। धारा 26 से 30 को हिन्दुओं के लिए भी लागू करना ही न्यायोचित है। इस में किसी अन्य समुदाय का कुछ नहीं छिनेगा। केवल हिन्दुओं को भी वह मिलगा जो दूसरों को मिला हुआ है। समय रहते इस भेद-भाव का अंत होना चाहिए।

1 COMMENT

  1. आपने लिखा है
    “सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी ‘किसी धार्मिक संस्था’ या ‘ए रिलीजन’ की बात की गई है।”
    स्पष्ट है कि हिन्दू कोई धर्म या रिलीजन नहीं है! हिन्दू तो जीवन जीने का एक तरीका है! और इसको भी सर्वोच्च न्यालय ने अपने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में उद्धृत किया है!

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