राजनीति का हिन्दूकरण’ और सावरकर, भाग-2

0
236

Vinyaka-Damodar-Savarkarसावरकर जी के हिंदू राष्ट्र में ‘राजनीति का हिंदूकरण’ हो जाने पर कुछ ये बातें स्वाभाविक रूप से देखने को मिलतीं :-
हिंदी को प्राथमिकता दी जाती :-
सावरकर जी मूलरूप से मराठी भाषा को बोलने वाले थे। पर उनका अपना चिंतन अत्यंत राष्ट्रवादी और पवित्र था। मराठी भाषी होकर भी वह हिंदी के अनन्यतम भक्त थे। हिंदी को वह देश की एकता और अखण्डता के दृष्टिगत अपनाया जाना आवश्यक मानते थे। पर इसका अभिप्राय यह भी नही था कि वे भारत की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का विकास नही चाहते थे। उन्होंने मुसलमानों को भी हिंदी अपनाने के लिए कभी विवश नही किया था। अण्डमान में रहते उन्होंने हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने में सक्रिय सहयोग प्रदान किया था। जो हिंदू लोग अपने निमंत्रण पत्र भी उर्दू में छपवाने लगे थे अब वे भी उन्हें हिंदी में छपवाने लगे थे। वह बातचीत के दौरान अण्डमान के लोगों को समझाते थे-”तुम हिंदू हो, हिंदी तुम्हारी राष्ट्रभाषा है। अण्डमान में तो वही धर्म भाषा है। तुम्हें चाहिए कि अपनी संतानों को यथाशीघ्र हिंदी पढ़ाओ।”

वह लिखते हैं-”मैं उन्हें प्रेरित करता कि यदि तुम लोग सरकार के पास सामूहिक आवेदन पत्र भेजकर हिंदी के अध्ययन को आवश्यक करने की मांग करोगे तो सरकार विद्यालयों में हिंदी सिखाने की व्यवस्था अवश्य करेगी।”

हिंदी के प्रचार-प्रसार को वह इसलिए भी आवश्यक मानते थे कि इसके प्रचार-प्रसार से देश के बच्चों में रामायण, महाभारत, शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्दसिंह आदि के जीवन चरित्र पढक़र राष्ट्रीय संस्कार उत्पन्न होंगे। जिससे हमारी राष्ट्रीय एकता का भाव विकसित होगा। सावरकर जी ने जिस प्रकार हिंदूनिष्ठ राजनीति के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी और राजनीति का हिंदूकरण करने का सपना संजोया था, उसका एक ही लक्ष्य था-हिंदू राष्ट्र की स्थापना। उनके हिंदू राष्ट्र में हिंदी में संविधान होता, और हिंदी में ही सरकारी कार्य संपन्न होतेे, शासक वर्ग हिंदी में सोचता, हिंदी में बोलता और हिंदी में ही अपना लेखन कार्य करता। अंडमान में अपने द्वारा की गयी हिंदी सेवा के विषय में सावरकर जी लिखते हैं :-
”मैं हिंदी के बारे में तमाम आक्षेपों और आशंकाओं का बार-बार समाधान करने का प्रयास किया करता था। हिंदी का व्याकरण किस प्रकार पूर्णत: वैज्ञानिक है-उसका साहित्य कितना समृद्घ है, उसकी अभिव्यक्ति की क्षमता कितनी सशक्त है? समय-समय पर मैं बंदियों को समझाया करता था। मैं उन्हें यह भी समझाता था कि देश में हिंदी भाषियों की संख्या सर्वाधिक होने से भी वही राष्ट्रभाषा बनने की अधिकारी हैं।

…..रामेश्वरम् (दक्षिण भारत) का वैरागी संत तथा व्यापारी पृथ्वीराज के काल से भी पहले से तीर्थयात्रा के दौरान हरिद्वार और बद्रीनाथ आने पर हिंदी के माध्यम से ही कार्य चलाता आया है। चारों धामों की तीर्थयात्रा करने वाले हिंदुओं के बीच बातचीत का माध्यम हिंदी ही तो होती है। मैंने अपनी इन युक्तियों से राजबंदियों को हिंदी सीखने के लिए प्रवृत्त किया। साधारण बंदी भी ंिहंदी के महत्व को समझने लगे।”

भारतवर्ष के साथ विश्व की भी धरोहर बनती हिंदू राजनीति वीर सावरकर जी का कथन है कि-”हम एक सनातन और पुरातन राष्ट्र हैं, जब विश्व का मानव कच्चा मांस भक्षण करता था और अपने शरीर को रंगों से रंगता था, अज्ञान की गहराई में गोता लगाता था तब हम उन्नति के शिखर पर विराजमान थे विश्व संस्कृति और विश्व सभ्यता का प्रतिनिधित्व करते थे।” हिंदू राष्ट्र और हिंदूनिष्ठ राजनीति का अंतिम उद्देश्य ऐसे ही गौरवपूर्ण लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निर्धारित की जाती उसकी यात्रा का शुभारंभ ‘जयहिंदू राष्ट्र’ से होता, जिसका अभिप्राय होता-‘सबका साथ सबका विकास’ परंतु उन मूल्यों के साथ जो कि संपूर्ण मानवता की धरोहर हैं और सामान्यत: ये सारा संसार जिसे वैदिक संस्कृति के नाम से जानता है। राजनीति का हिंदूकरण करने का अभिप्राय था कि सारी राजनीति के केन्द्र-अपने राष्ट्र को आत्मगौरव से अभिभूत कर डालना, और एक लक्ष्य निर्धारित कर उसकी प्राप्ति के लिए कमर कस लेना महर्षि दयानंद जी महाराज ने भी सत्यार्थप्रकाश में छठे समुल्लास में आर्यों को चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने की प्रेरणा दी है। स्पष्ट है कि महर्षि दयानंद आर्यों के जिस चक्रवर्ती साम्राज्य की बात कर रहे थे, उसी को स्थापित करना अर्थात विश्व में वैदिक संस्कृति की पुन: धूम मचाना-सावरकर जी के हिंदू राष्ट्र का उद्देश्य था। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आत्मगौरव की इस विचार धारा को देश की राजनीति का अंग बनाने को कांग्रेस और उसके नेताओं ने पहले दिन से ही साम्प्रदायिक करार दिया। इसलिए राजनीति का ंिहंदूकरण करना (जो कि वास्तव में राजनीति का मानवतावादीकरण करना था) भी कांग्रेस को अतार्किक लगा।

हिंदू राजनीति के सात अवयवों को दी जाती प्राथमिकता :-
हिंदू राजनीति के सात अंग माने गये हैं
(1) स्वामी-(शासक, सम्राट, राजा या राष्ट्रपति) यह राजा ब्राह्मण जैसा परमविद्वान न्यायकारी और पक्षपात रहित व्यवहार करने वाले राजा के 8 गुणों से सुभूषित होता। जिसकी विधि लोककल्याण के लिए निर्मित की जाती और सदा लोगों के कल्याण में रत रहती।

(2) अमात्य : (मंत्री या पुरोहित प्रत्येक विषय/मंत्रालय का विशेषज्ञ) मंत्री या अमात्य का अपने  मंत्रालय के कामकाज और विषय का पूर्ण मर्मज्ञ होना अनिवार्य किया जाता। आजकल के मंत्री अपने  अधिकारियों की सलाह पर पूर्णत: निर्भर रहते हैं कारण कि अधिकांश मंत्री अयोग्य होते हैं। इनकी अयोग्यता को छिपाने के लिए इनके नीचे योग्य अधिकारी बैठाये जाते हैं। पर यह प्रणाली तो अंग्रेजों ने अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए लागू की थी, पर भारत में अब तो अंग्रेजी शासन नही है। हां, इतना अवश्य है कि भारत में शासन की अंग्रेजी प्रणाली अब भी विद्यमान है। फलस्वरूप देश की राजनीति का ‘मुखौटा’ तो अयोग्य होता है, और उसे पीछे से कोई बताता-समझाता है। हम इसे लोकतंत्र कहते हैं, पर यह लोकतंत्र पीछे से नौकरशाही से शासित होता है जिसे लोकतंत्र नही कहा जा सकता। ‘हिन्दूनिष्ठ राजनीति’ में वास्तविक लोकतंत्र को साकार रूप दिया जाकर नौकरशाही की स्वेच्छाचारिता को समाप्त किया जाता और प्रत्येक जनप्रतिनिधि को एक ‘जनलोकपाल’ का दर्जा देकर उसे लोकहित का प्रहरी बनाने की हरसंभव चेष्टा की जाती।

(3) जनपद या राष्ट्र : (राज्य की भूमि और प्रजा) आर्यावत्र्त कभी ये सारा भूमंडल कहा जाता था, अर्थात तब सारा भूमंडल ही आर्यों का था। कालांतर में इसकी सीमाएं घट गयीं तो भी मनु महाराज ने भूमध्यसागर के इस ओर का सारा भू क्षेत्र आर्यों के अधीन मानकर इनके चक्रवर्ती राज्य की सीमाएं वहां तक स्थापित कर दीं।

इस राज्य की समस्त प्रजा वेदज्ञान की ज्योति से ज्योतित होकर अपने श्रेष्ठतम होने या आर्यत्व का परिचय देते रहने की अभ्यासी रही हैं। हिंदूनिष्ठ राजनीति का या ‘राजनीति के हिंदूकरण’ का अभिप्राय है कि देश की प्रजा को पुन: वेदज्ञान के प्रचार-प्रसार के प्रति समर्पित कर देना और अपने आर्यों के चक्रवर्ती साम्राज्य की सीमाओं को खोजने के लिए सचेष्ट हो उठना।

दुर्ग :-दुर्ग आज के समय में यद्यपि अप्रासंगिक हो चुके हैं, परंतु उनका अभिप्राय या अर्थ परिवर्तन कर उनकी उपयोगिता को थोड़ा सकारात्मक  सोच के साथ देखने व समझने की आवश्यकता है। हमारी सेना के निवास स्थान या छावनी, हमारे सैन्य उपकरण रखे जाने के केन्द्र, परमाणु बम आदि रखने के केन्द्र येे सभी आज के दुर्ग हैं। जिन तक हर किसी का पहुंचना आज भी संभव नही है। ये सारे केन्द्र जितनी भारी मात्रा में होंगे-शत्रु को उतना ही अधिक कष्ट होगा। वैसे दुर्ग शब्द के कई अर्थ हैं यथा-राष्ट्र का प्राचीर, खाई, राजधानी अथवा पुर वर्तमान संदर्भों में राज्य की सशस्त्र सेनाओं की पूर्ण व्यवस्था।

इस प्रकार हिंदूनिष्ठ राजनीति में देश की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाती है। यदि राजनीति का हिंदूकरण करने की प्रक्रिया पहले दिन से प्रारंभ हो गयी होती तो नेहरूजी जैसों की मूर्खता के कारण देश को 1947-48 में कश्मीर (पीओके) के एक भाग से हाथ धोना नही पड़ता और 1962 ई. में चीन के हाथों करारी पराजय का सामना भी नही करना पड़ता।

तुर्कों मुगलों या अंग्रेजों ने कभी इस देश को अपना देश नही माना था, आज भी ऐसी शक्तियों को सत्ता सौंपना खतरनाक हो सकता है, जो इस देश का नमक खाकर गीत विदेशों के गाते हैं और राम-कृष्ण की संतानें होकर भी अपने आपको बाबर की संतानें मानते हैं। राजनीति के हिंदूकरण का यह सबसे प्रमुख तत्व है कि देश की सत्ता उन्हीं को मिलेगी जो इस देश की माटी से प्यार करते हैं और इसके लिए सर झुकाने को ही नही सर कटाने तक को भी तैयार रहते हैं। मैं जानता हूं कि बहुत से मुस्लिम ऐसे हैं जो इस देश को इसी प्रकार प्रेम करते हैं और यही कारण है कि उन्हें राजनीति के हिंदूकरण से या हिंदू राष्ट्र के निर्माण तक से कोई आपत्ति नही है। पर गांधीजी और नेहरूजी को सावरकर की यह सोच आपत्तिजनक लगती थी।

(5) राष्ट्रीय कोश-देश की सरकार को देश चलाना होता है। देश चलाने के लिए कोश की आवश्यकता होती है। सरकार को सडक़, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के सार्वजनिक कार्य करने होते हैं, जिसके लिए धन की आवश्यकता होती है, इसलिए सरकारें लोगों पर कर लगाकर अपने आय के स्रोत बनाती हैं। ‘हिंदूनिष्ठ राजनीति’ में आय के स्रोत बनाने के लिए ‘राजा’ या राष्ट्रपति लोगों पर कर तो लगाता पर ऐसे लगाता है जैसे धान से चावल को और उसके छिलके को अलग करने में यह सावधानी बरती जाती है कि छिलका तो अलग हो जाए पर चावल के दाने टूटने न पायें। ऐसे कर को देने के लिए देश की जनता को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया जाता और उन्हें यह समझाया जाता कि यदि आप ऐसा कर देंगे तो देश के विकास में आपकी सहभागिता भी सुनिश्चित होगी। आजकल लोग कर देते हैं पर चोरी करते-करते देते हैं ‘इनकम टैक्स’ से बचने के लिए तरह-तरह के जुगाड़ भिड़ाते हैं-यह सब इसलिए किया जाता है कि देश के लोगों को अंग्रेजी काल से ही यह नही बताया जा रहा है कि आपका पैसा देश के विकास में काम आएगा। अंग्रेजों के काल में इस टैक्स को लेाग दण्ड समझते थे, जिसे अंग्रेज लोग अपने देश को ले जाते थे। इसलिए लोग टैक्स देने से बचते थे।

देश को स्वाधीन हुए अब 70 वर्ष हो रहे हैं, पर हमारा टैक्स को दण्ड समझने का संस्कार अभी भी छूटता नही है। कारण यही है कि हमें यह नही समझाया जा रहा है कि टैक्स एक दण्ड न होकर देश की उन्नति में आपका एक अंशदान है। राजनीति के हिंदूकरण की प्रक्रिया में कर को सरकार एक चंदा के रूप में वसूलती है और देश के स्वयं सेवी संगठनों को और श्रमदान करने में विश्वास करने वालों को या सरकारी संस्थानों को जनहित के कार्य करने हेतु लौटा देती है।

इस प्रकार हिंदूनिष्ठ राजनीति में अंशदान श्रमदान में परिवर्तित हो जाता है। दो के सारे हाथ एक साथ मिलकर विकास के लिए उठते हैं और मंजिलों को अपने पांवों तले ले आते हैं। ‘सबका साथ सबका विकास’ तब एक नया स्वरूप ले लेता है-‘सबका सबके द्वारा विकास।’ इस प्रकार हिंदूनिष्ठ राजनीति में देश का एक बहुत ही सुंदर स्वरूप उभर कर सामने आता है। हम मान लेते हैं कि गांधी जी के रामराज्य में भी ऐसी ही संभावनाओं की कल्पना समाहित रही होगी। यदि बापू ऐसा ही रामराज्य चाहते थे तो हमें उसे भी अपनाने में कोई आपत्ति नही है। पर उनके राजनीतिक शिष्य और देश के पहले प्रधानंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने शासन में ंिहंदूनिष्ठ राजनीति के साथ-साथ गांधी जी के ‘रामराज्य’ की भी हवा निकाल दी थी। इस प्रकार गांधी जी की हत्या वास्तव में नेहरू ने की थी।

देश की सरकारों ने स्वतंत्रता के उपरांत जिस मार्ग का अनुकरण किया है उससे देश में प्राचीनकाल से चला आ रहा श्रमदान का हमारा राष्ट्रीय संस्कार मर सा गया है। फलस्वरूप हम छोटी-छोटी बातों के लिए सरकार पर निर्भर होकर रह गये हैं। गली-मौहल्लों की समस्याओं के लिए लोग कोई समाधान न खोजकर सडक़ों पर आकर नारेबाजी करते हैं, धरना प्रदर्शन करते हैं, रोड जाम करते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नही है। मैंने देखा है कि एक मौहल्ले में 100-200 रूपये के बल्ब लगाकर लोग रात्रि में प्रकाश की व्यवस्था नही कर पाते हैं। गली के अंधेरे को सह लेंगे पर एक बल्ब अपने घर के सामने नही लगाएंगे। आप आरंभ करके देखिये, एक बल्ब गली में अपने घर के सामने लगाइये, मौहल्ले में रहने वाले दो-चार अन्य लोगों को आपसे प्रेरणा मिलेगी और आप देखेंगे कि गली का अंधेरा भाग गया।

इस संस्कार को बलवती करना राजनीति का हिंदूकरण करना है। क्योंकि यह संस्कार हमारा प्राचीन राष्ट्रीय संस्कार है। हिंदूनिष्ठ राजनीति का विरोध करने वाले पहले सावरकर की राजनीति के हिंदूकरण की उक्ति का रहस्य समझें तब कुछ कहें तो अच्छा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here