हिंदुत्व समर्थकों और विरोधियों में सीधे संघर्ष

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श्री नरेंद्र मोदी जी का भारत के प्रधान मंत्री पद पर आरूढ़ होना नियति की इच्छा से संभव हुआ है!माँ भारती पिछले एक हज़ार वर्षों से सिसक रही थी कि कोई तो आये और उसके कष्टों का निवारण करे!सभी हिंदुत्व प्रेमियों के सहयोग से मोदी जी प्रधान मंत्री बने!
पिछले एक हज़ार वर्षों में देश ने कई दौर देखे हैं! मुस्लिम सुल्तानों का दौर देखा, फिर मुग़लिया अत्याचारों का दौर देखा! लेकिन किसी भी दौर में माँ भारती के सपूतों ने प्रतिरोध की ज्वाला ठंडी नहीं पड़ने दी! हर मुस्लिम सुलतान/बादशाह का प्रतिरोध किया!यही कारण था कि एक बादशाह के मरने पर उसके उत्तराधिकारी को पुनः पूर्व में विजित क्षेत्रों को जीतने के लिए अभियान चलाना पड़ा क्योंकि मौका मिलते ही स्थानीय रूप से स्वायत्तता और स्वतंत्रता की घोषणा कर दी जाती थी!यहाँ तक कि मुग़लों के आगमन तक मुस्लिम बादशाहों के राजकाज कि सारी बागडोर हिन्दुओं ने अपने हाथ में ले ली थी!शेरशाह सूरी का सबसे ताकतवर अधिकारी राजा हेमचन्द्र (जिसे इतिहास में हेमू के नाम से जाना जाता है) हो गया था! और मुग़लों के आने के बाद भी हुमायूँ के मरते ही उसने दिल्ली पर अपना राज्य कायम कर दिया था जो दो माह तक चला और बाद में अकबर की फ़ौज़ ने बैरमख़ाँ की नेतृत्व में उससे युद्ध किया जिसमे हेमचन्द्र जीतने ही वाला था कि एक तीर उसकी आँख में आ लगा और वह घोड़े से गिर गया!उसके गिरते ही फ़ौज़ में अव्यवस्था फ़ैल गयी और भगदड़ मच गयी क्योंकि सेकंड लाइन ऑफ़ कमांड नहीं बनायीं गयी थी!बैरम खान ने राजा हेमचन्द्र को पकड़ कर अकबर के सामने पेश किये और अकबर ने अपने हाथों से उस “काफिर” राजा हेमचन्द्र का सिर कलम कर दिया जिसके कारण अकबर को ग़ाज़ी की उपाधि से नवाजा गया!
अकबर ने बड़ी चालाकी से हिन्दुओं में फुट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण किया लेकिन फिर भी महाराणा प्रताप ने अकबर का आजीवन प्रतिरोध किया और देश भक्ति की एक अप्रतिम मिसाल स्थापित की!आगे शिवाजी ने औरंगज़ेब को दक्षिण में उलझाये रखा और वहीँ औरंगाबाद के पास १७०७ में उसकी मौत हो गयी!शिवाजी से प्रेरणा लेकर अनेकों हिन्दू राजा उठ खड़े हुए!और औरंगज़ेब के बाद मुग़ल सल्तनत इतनी कमजोर हो गयी कि उसको सिपाहियों की तनख्वाह के भी लाले पड गए!हिन्दू राजा रतन चंद ने उसे आर्थिक सहयोग देकर जजिया समाप्त कराया और अनेकों काम हिन्दू हितों के कराये!१८५७ तक दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह ज़फर का राज केवल पालम तक सिमट गया था!
तो ऐसा था हिन्दुओं का स्वाभिमान और स्वतंत्रता की प्रति जोश! आठ शताब्दियों के राज के बाद भी हिंदुत्व की भावना कमजोर नहीं पड़ी थी!
लेकिन अँगरेज़ बहुत चालक था! १८३५ में मेकाले नेयह समझ लिया था और उसने इंग्लैंड की संसद को बताया भी था कि हिंदुस्तान कि संस्कृति और हिन्दुओं का तत्वज्ञान दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है अतः अगर वहां निरंतर राज्य करना है तो हिंदुत्व को और उनकी संस्कृति को कमजोर करना होगा!और इसी उद्देश्य से अनेकों चर्च केअधिकारियों को संस्कृत का अध्ययन करके हिन्दू शास्त्रों का मनमाने ढंग से अनुवाद करने का कार्य किया गया.जर्मन विद्वान मैक्स मुलर भी इसी योजना का एक हिस्सा था और उसने जानबूझकर वेदों और उपनिषदों का अनुवाद गलत तरीके से किया!
शुरू में कुछ जर्मन विद्वानों ने संस्कृत के प्रति पूरी श्रद्धा दिखाई और संस्कृत के अध्ययन को बढ़ावा दिया!१७८३ में कलकत्ता में सर विलियम जोंस प्रधान न्यायाधीश बना और उसने १७८९ में कालिदास की अभिज्ञान शाकुंतलम का और १७९४ में मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद किया!और उसी वर्ष उसका देहांत हो गया!१८०५ में विलियम जोंस के कनिष्ठ सहयोगी सर हेनरी टामस कोलब्रुक ने “ओन दी वेदाज” नामक एक वेद विषयक निबंध लिखा!
सन १८१८ में जर्मनी के बोन विश्वविद्यालय में ऑगस्ट विल्हेल्म फान श्लेगल प्रथम संस्कृत अध्यापक बना!उसका भ्राता फ्रेडरिक श्लेगल था जिसने सन १८०८ में “हिन्दुओं के वाग्मय और प्रज्ञा पर” (अपॉन दी लैंग्वेजेज एंड विजडम ऑफ़ दी हिंदूज) नामक ग्रन्थ लिखा था!दोनों भाईयों ने संस्कृत के प्रति अगाध प्रेम प्रदर्शित किया था!ऑगस्ट श्लेगल ने भगवद्गीता का अनुवाद लिखा!जिसके कारण हर्न विल्हेल्म फान हम्बोल्ट का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ!ओर उसने टिप्पणी कि,” विश्व की यह संभवतः सबसे अगाध ओर उच्चतम वस्तु है”!(इट इज परहैप्स दी डीपेस्ट एंड लॉफ्टिएस्ट थिंग दी वर्ल्ड हेज टू शो.)उन्ही दिनों जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहावर ने फ्रेंच लेखक अंक्वेटिल दू पैरों द्वारा दारा शिकोह के उपनिषदों के फ़ारसी अनुवाद “सीरे अकबर” का लेटिन में किया गया अनुवाद पढ़ा!उसने उपनिषदों के तत्वज्ञान से प्रभावित होकर लिखा कि,”उपनिषद मानव-ज्ञान की सर्वोच्च उपज है… इनमे प्रायः श्रेष्ट मानवीय विचार निहित हैं!”अनुवाद रूप में ही सही, उपनिषदों का अध्ययन उनके लिए बहुत पेरणादायक ओर आत्मसंतोष का साधन बना!उन्होंने लिखा,”…इसका पाठ संसार में उपलब्ध या सम्भाव्य सबसे अधिक संतोषप्रद ओर आत्मोन्नति का साधन है,यह मेरे जीवन की लिए सांत्वना दायक रहा है ओर यह मेरी मृत्यु की समय भी सांत्वना देगा!”यह सुविख्यात है की लेटिन “औपनेखत” (उपनिषद) ग्रन्थ सदैव उनकी मेज पर रखा रहता था औ शयन से पूर्व वो नित्य ही नियमपूर्वक इसका अध्ययन किया करते थे!
ऐसे लेखों ने जर्मन विद्वानों को संस्कृत सीखने के लिए अधिकाधिक आकर्षित किया और उनमे से अनेकों भारतीय संस्कृति को श्रद्धास्पद समझने लगे!प्रो.विंटरनिट्ज़ ने उनकी भावना ओर उत्साह के बारे में लिखा,”जब पश्चिम ने सर्वप्रथम भारतीय वाग्मय का परिचय प्राप्त किया तब भारत से आने वाली प्रत्येक साहित्यिक कृति को वहां के लोग सहज ही अति प्राचीन युग की मान लेते थे!वे भारत को मनुष्य जाति का अथवा कम से कम मानव सभ्यता का उद्गम-स्थल मानते थे!”
सच्चाई के प्रेमी इन विद्वानों के लेखों और भारतीय वाग्मय की इस मुक्त प्रशंसा से रूढ़िवादी यहूदी और ईसाई बौखला गए! इस सम्बन्ध में हेनरी ज़िम्मर ने लिखा,” पाश्चात्य विद्वानों में शोपेनहावर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यूरोप के ईसाई वातावरण के भारी मेघगर्जन की बीच भी इस सम्बन्ध में अतुलनीय ढंग से उद्घोष किया!”(न्यू इंडियन एन्टीक्वारी,१९३८ प.६७).
वास्तव में यहूदी आर्यों के ही वंशज थे!लेकिन बाद में वो यह बात भूल गए!१६५४ में आयरलैंड के आर्कबिशप उशर ने घोषणा की कि सृष्टि का निर्माण ईसा से ४००४ वर्ष पूर्व हुआ है! अतः पश्चात्वर्ती ईसाई और यहूदी विद्वानों के लिए यह स्वीकार करना कठिन हो गया कि कोई जाति या सभ्यता उनके इस काल निर्धारण से प्राचीन कैसे हो सकती है!और ऐसे में भारतप्रेमी इन जर्मन विद्वानों का भारतीय वाग्मय को अति प्राचीन घोषित करना इन्हे रास नहीं आया!
लेकिन यूरोप में संस्कृत का अध्ययन चालू रहा और पनपता गया! लेकिन गिरजाघरों के पादरियों के पूर्वाग्रहित प्रभाव से विद्वानों की राय विकृत होने लगी!उन्ही दिनों फ़्रांस में यूजीन बुर्नोफ्फ़ नामक एक संस्कृत के अध्यापक थे! उनके दो जर्मन शिष्य थे!(१) रुडोल्फ रथ; और (२) मैक्स म्युलर!
ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय में १८३३ में एक बोडेन पीठ का गठन किया गया था जिसका उद्देश्य एम.मोनियर विलियम्स ने निम्न प्रकार स्पष्ट किया है,”मुझे इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक प्रतीत होता है कि मैं बॉडन-प्राध्यापक-पद का दूसरा ही अधिकारी हूँ!इसके संस्थापक कर्नल बोडेन ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में दिनाक १५ अगस्त १८११ को अपने इच्छा पत्र में लिखा है कि उसकी इस उदारता पूर्ण भेंट का विशेष उद्देश्य यह था कि ईसाई धर्मग्रंथों का संस्कृत में अनुवाद किया जाये, जिससे भारतियों को ईसाई बनाने के काम में हमारे देशवासी आगे बढ़ सकें!”संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी, बाई सर मोनियर विलियम्स,प्रस्तावना प.९)
ऐसे वातावरण में संस्कृत के जो अध्यापक बने उनका उद्देश्य किसी भी प्रकार ईसाईयत की श्रेष्ठता ओर हिंदुत्व को हीन दिखाना था!होरेस हेमन विल्सन, रुडोल्फ रथ, डब्लू.डी.व्हिटनेआदि कुछ नाम हैं जो इस काम में लगे थे!२८ दिसंबर १८५५ को लार्ड मेकाले की भेंट मैक्स म्युलर से हुई!जिसमे मेकाले ने मैक्स म्युलर में भारत विरोधी विचारों को उभाड़ने का भारी काम किया!बाद में मैक्स म्युलर ने लिखा,” मैं बहुत उदास होकर साथ ही अपेक्षाकृत अधिक समझदार बनकर ऑक्सफ़ोर्ड लौटा!”( लाइफ एंड लेटर्स ऑफ़ मैक्स म्युलर, वॉल.१, अध्याय ९ पृष्ठ १७१)!
मैक्स म्युलर ईसाई पंथ के अतिरिक्त प्रत्येक धर्म का, जिन्हे वह अविकसित मानता था, ह्रदय से कट्टर विरोधी था!डॉ स्पैगेल द्वारा एक लेख में यह लिखने पर कि बाइबिल की सृष्टि निर्माण की कल्पना प्राचीन पारसी या ईरानी धर्म का ही अनुसरण है, मैक्स म्युलर द्वारा कड़ी आलोचना की गयी थी!
एक फ़्रांसिसी न्यायाधीश लुइ जेकोलियट द्वारा १८६९ में “भारत में बाइबिल” (La Bible dans L’inde )लिखी गयी थी जिसमे लेखक ने यह सिद्ध किया था कि संसार की सभी प्रधान विचारधाराएँ आर्य विचारधारा से निकली हैं!अगले वर्ष उसका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो गया!उसमे भारत भूमि को मानवता की जन्मदात्री बताया गया था!तथा शताब्दियों से होने वाले नृशंस आक्रमणों के बाद भी श्रद्धा, प्रेम, काव्य एवं विज्ञानं की पितृभूमि भारत का अभिनन्दन किया गया था!ओर भविष्य में उसके पुनरागमन की जय जय कार की गयी थी!
मैक्स म्युलर इस पुस्तक से बहुत नाराज़ हुआ ओर उसने लिखा,”लेखक भारतीय ब्राह्मणों से प्रभावित प्रतीत होता है!”
मैक्स म्युलर के पत्र दो भागों में छपे हैं! ओर उनसे पता चलता है कि उसके मन में भारतीय ग्रंथों के प्रति कितना पूर्वाग्रह था ओर उसका वास्तविक उद्देश्य भारत के संस्कृत ग्रंथों का गलत अनुवाद करके भारतीयों के ह्रदय में अपने धर्म व संस्कृति के प्रति घृणा निर्माण करने का था ताकि भारतीयों को ईसाई बनाया जा सके!
जिन दिनों मैक्स म्युलर भारतीय संस्कृति की जड़ें खोदने का यह कार्य कर रहा था उन्ही दिनों जर्मनी में अल्बर्ट वेबर भी उसी काम में लगा था!हुम्बोल्ट द्वारा गीता की उदार प्रशंशा के विरुद्ध उसने लिखा कि गीता ओर महाभारत ईसाई विचारों से प्रभावित हैं!उसके इस विचार का समर्थन लोरिंसर और ई. वाश्बुर्न हॉपकिंस ने भी किया!
वेबर और बोहतलिङ्क ने एक संस्कृत कोष बmodiनाया जिसका नाम था ” संस्कृत वरटेरबुश”! प्रो.कुहन भी इसमें उनका सहायक था!भाषा विज्ञानं के मिथ्या और काल्पनिक आधार के कारण यह कृति अशुद्ध अर्थों से भरी पड़ी है!अध्यापक गोल्ड्स्टैकर ने इसकी तीव्र आलोचना की, जिससे उसके दो संपादक बहुत नाराज़ हो गए!और वेबर तो गोल्ड्स्टैकर के विरुद्ध गन्दी और भद्दी भाषा के प्रयोग तक उतर आया!गोल्ड्स्टैकर ने इनका उत्तर देते हुए रथ, बोहतलिङ्क,वेबर,कुन्ह आदि लेखकों द्वारा प्राचीन भारत की महत्ता नष्ट करने के लिए रचे गए षड्यंत्र का भंडाफोड़ किया!उन्होंने लिखा कि बोहतलिङ्क पाणिनि के सरल नियमों को भी समझने में असमर्थ हैं!……उनके इस कोष में इतनी अधिक त्रुटियाँ हैं कि संस्कृत भाषा विज्ञानं के अध्ययन में उसके प्रयोग का जो अनिष्टकारी प्रभाव होगा उसके विचार मात्र से प्रत्येक विचारवान संस्कृतज्ञ का ह्रदय व्याकुलता से भर जाता है!”
उन्होंने लिखा कि इस कोष में संस्कृत के साथ खिलवाड़ किया गया है!इन विद्वानों ने स्वार्थवश आर्य सभ्यता और संस्कृतियों को निम्नकोटि की सिद्ध करने का प्रयास किया है!इसके साथ ही वो ब्रिटिश सरकार के हाथ का खिलौना बनने को तैयार हुए!
मोनियर विलियम्स ने भी अपनी पुस्तक “भारत में मिशनरी कार्य के सम्बन्ध में संस्कृत का अध्ययन” (The Study of Sanskrit In Relation To Missionary Work In India -१८६१) नामक पुस्तक हिन्दू धर्म को समाप्त करने और ईसाई मत की विस्तार के एकमात्र उद्देश्य से ही लिखी गई थी!उन्होंने स्वयं “मॉडर्न इंडिया एंड द इंडियंस” नामक पुस्तक में इसका खुलासा किया है!
रुडोल्फ हार्नल, रिचर्ड गार्बे, विंटरनिट्ज़, सर विलियम सेसिल डेम्पीयर,प्रोफ. मैकेंजी आदि ऐसे अन्य संस्कृत ज्ञाता थे जिन्होंने संस्कृत का दुरूपयोग ईसाईयत की परचार और हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने के लिए किया! मह्रिषी दयानंद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस षड्यंत्र को समझा और इसके विरोध की लिए अपने अनुयायियों को प्रेरित किया!(अधिकांश सामग्री गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “प्राचीन भारत में गोमांस:एक समीक्षा” से ली गयी है!)
आज भी अनेकों भारतीय विद्वान इन्ही हिंदुत्व विरोधी और ईसाई मत के लिए समर्पित पाश्चात्य विद्वानों का अंधानुकरण करने को तत्पर दिखाई देते हैं! तथा विदेशों में भी जो भारत सम्बन्धी अध्ययन के संस्थान बने हैं वो अपने निहित भारत विरोधी उद्देश्यों की पूर्ती हेतु इन पूर्वाग्रहित संस्कृत के छद्मविद्वानों का ही अनुसरण करते हैं!इनफ़ोसिस की संस्थापक श्री नारायण मूर्ति के पुत्र द्वारा हज़ारों करोड़ की राशिका अनुदान देकर अमेरिका में संस्कृत ग्रंथों पर शोध का कार्यक्रम हाथ में लिया है! लेकिन क्या वो संस्कृत के साथ वास्तव में न्याय कर पाएंगे?
थोड़ा विषयांतर हो गया! उसके लिए क्षमा चाहता हूँ! देश आज़ाद हुआ! उसके बाद सढ़सठ वर्षों तक देश में जो शासन रहे ( बीच के छह वर्षों को छोड़कर) वो सभी अंग्रेजी सोच वाले ही थे! बांटो और राज करो ही उनका मूल मन्त्र रहा है! ऐसे “विद्वानों” की फ़ौज़ खड़ी हो गयी जिन्हे देश विदेश से पैसा और प्रायोजक मिलते रहे हैं! अटल जी की सरकार द्वारा परमाणु परिक्षण के बाद भारत में अपना जासूसी तंत्र मजबूत करने की लिए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने भारत में सी आई ए का बजट एक मिलियन डॉलर से बढाकर पांच सौ मिलियन डॉलर कर दिया! इसके अतिरिक्त भी अन्य एजेंसियों द्वारा यहाँ भारी फण्ड भेजे गए! एक प्रश्न की उत्तर में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री ने राज्य सभा को बताया कि २००६ से २०१२ के बीच विदेशों से एन जी ओज को लगभग ९४ हज़ार करोड़ रुपये कि राशि प्राप्त हुई थी! १९९८ से २०१४ के बीच इन संगठनों को कम से कम दो लाख करोड़ रुपये विदेशों से प्राप्त हुए हैं!यह धन भारत में हिंदुत्व विरोधी और राष्ट्रवाद विरोधी लॉबी की निर्माण में ही खर्च हुई है! भारत सरकार कि विभिन्न एजेंसियों द्वारा भी इस सम्बन्ध में आँखें बंद रखीं यह बड़ी चूक है!
अब श्री नरेंद्र मोदी जी की सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में कुछ अंकुश लगाये हैं और भारत की विकास पर अवरोध पैदा करने वाले संगठनों की फंडिंग पर जांच शुरू की है तो ये भारत तोड़क बिरादरी को बैचेनी होने लगी है!और इन्होने एकजुट होकर सरकार पर अकारण छोटी छोटी घटनाओं को बहन बनाकर हमला बोल दिया है!इससे पहले इनकी आत्मा की आवाज़ बड़ी से बड़ी घटनाओं पर सुप्त ही रही है!
अतः सभी देशप्रेमी लोगों का कर्तव्य है की इस षड्यंत्र से सावधान रहें और इस धर्मयुद्ध में भारत का साथ दें और इस ब्रेकिंग इंडिया जमात को असफल करें!

2 COMMENTS

  1. “श्री नरेंद्र मोदी जी का भारत के प्रधान मंत्री पद पर आरूढ़ होना नियति की इच्छा से संभव हुआ है!माँ भारती पिछले एक हज़ार वर्षों से सिसक रही थी कि कोई तो आये और उसके कष्टों का निवारण करे!सभी हिंदुत्व प्रेमियों के सहयोग से मोदी जी प्रधान मंत्री बने!”ये आरम्भ की प्रथम दो पंक्तियाँ हैं इस आलेख की.मैंने अभी यह आलेख पढ़ना ही शुरू किया था कि मैं इन प्रथम दो पंक्तियों पर ही अटक गया.पता नहीं चल रहा हा है कि मैं इस आलेख को आगे क्यों पढूं?क्योंकि अभी तक तो आम भारतीयों की तरह मैं भी इस भ्रम को पाले हुए था कि यह चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया है.हालांकि यह भ्रम अब टूटता हुआ नजर आ रहा था,पर इस तरह झकझोर कर उस स्वप्नों की दुनिया से कोई बाहर ला देगा,उसकी इतनी जल्द तो उम्मीद नहीं थी.भले आदमी इतनी जल्दी भी क्या थी?अभी कम से कमआगे के एक आध वर्ष तो इस भ्रम को पाले रहने देते.फिर अपनी मनमानी करते,पर लगता है कि आपलोग भी जल्दी में हैं और इन पांच सालों में सबकुछ निपटा लेनासालों चाहते हैं,पर जाने दीजिये.सबकी अपनी अपनी विचार धारा है.पर आपलोग जब इतना हिंदुत्व हिंदुत्व चिल्ला रहे हैं,तो कम से कम इतना तो कर ही दीजिये कि इन बचे हुए साढ़े तीन वर्षों में गंगा की पूर्ण सफाई कर दीजिये और गायों को आवारा बन कर प्लास्टिक और गन्दगी खाने से रोक दीजिये.उसके बाद मैं यह पूरा आलेख पढ़ लूँगा.

    • समझ नहीं आया कि यह कैसा वैचारिक पूर्वाग्रह है कि लेख को केवल दो पंक्तियाँ पढ़कर कण्डम कर दिया?आप विद्वान हैं, समझदार हैं, चिंतनशील हैं! लेख में मोदी जी से हटकर बहुत कुछ है! जरा पढ़ लीजिये और यदि कोई विपरीत विचार प्रगट करना चाहें तो स्वस्थ बहस के रूप में अपनी बात तथ्यों और तर्कों के साथ प्रस्तुत करने का कष्ट करें!अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता ‘प्रवक्ता’ ने दे रखी है!

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