हिंसक आंदोलनों पर न्यायालय की टेढ़ी नजर

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andolanअरविंद जयतिलक
यह उचित है कि देश की सर्वोच्च अदालत ने आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक संपति का दहन करने वालों के विरुद्ध कड़ा कदम उठाते हुए ताकीद किया है कि आंदोलन से जुड़े राजनीतिक दलों और संगठनों को आंदोलन से हुई क्षति की नुकसान की भरपायी करनी होगी। न्यायालय ने यह आदेश गुजरात में हुए पाटीदार आंदोलन के नेतृत्वकर्ता हार्दिक पटेल की एक याचिका की सुनवाई के दौरान दिया है। गौरतलब है कि गत वर्ष गुजरात के पाटीदारों ने आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक प्रदर्शन किया जिससे भारी नुकसान पहुंचा। बीते दिनों हरियाणा में भी जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों ने हिंसा के बीच सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। निःसंदेह एक संवैधानिक व लोकतांत्रिक देश में हर नागरिक व समुदाय को अपनी बात सकारात्मक ढंग से रखने और जनतांत्रिक तरीके से आंदोलन करने का अधिकार है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह हिंसक आंदोलन के जरिए निजी व सार्वजनिक संपत्ति की होलिका जलाए। गौर करें तो पिछले एक दशक में जितने भी आंदोलन हुए लोकतांत्रिक कम हिंसाप्रधान ज्यादा रहे। आंदोलन की उग्रता और हिंसक गतिविधयों को देखते हुए अब यह समझना कठिन हो गया कि उत्पात मचाने वाले आंदोलनकारी हैं या उनकी आड़ में वे अराजक तत्व जिनका मकसद सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करना है। हरियाणा में आंदोलन का जो रक्तरंजित चेहरा उभरा है वह हरियाणवी समाज की एकता को भंग किया है। भाईचारे का दहन किया है। विचलित करने वाला यह है कि आंदोलन में 28 लोगों की जान जा चुकी है और तकरीबन 30 हजार करोड़ रुपए से अधिक की संपत्ति का नुकसान हुआ है। दिलदहलाने वाला कृत्य यह कि सोनीपत के मुरथल में 10 महिलाओं के साथ बलात्कार भी हुआ। यह कैसा आंदोलन और कैसा समाज? अब सवाल यह है कि इस आंदोलन के लिए एकमात्र आंदोलनकारी ही जिम्मेदार हैं या वे राजनीतिक दल भी जिन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए आंदोलन की आग में घी डाला। अगर आंदोलन लोकतांत्रिक होता तो न तो सेना बुलाने की जरुरत पड़ती और न ही कफ्र्यू लगाने जैसे हालात पैदा होते। अच्छा हुआ कि हालात और बिगड़ने से पहले ही केंद्र सरकार ने जाटों के आरक्षण की मांग को सैद्धांतिक रुप से स्वीकार ली और हरियाणा की खट्टर सरकार ने भरोसा दिया कि वह अगले विधानसभा सत्र में आरक्षण विधेयक लाएगी। लेकिन केंद्र व राज्य सरकार के लिए जाटों को आरक्षण देना आसान नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के मुताबिक आरक्षण की सीमा 50 फीसद से अधिक नहीं हो सकता। 1963 में बालाजी मामले के फैसले को दोहराते हुए इंदिरा साहनी केस में सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि आमतौर पर 50 फीसद से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का ख्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय का भी ध्यान रखना होगा। हालांकि इसी मामले में न्यायमूर्ति जीवनरेड्डी ने यह भी कहा है कि विशेष परिस्थितियों में कारण दिखाकर सरकार 50 फीसद की सीमा रेखा को लांघ सकती है, लेकिन सामान्य तौर पर 50 फीसद से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता। याद होगा मार्च 2014 में तत्कालीन संप्रग-2 की सरकार ने चुनाव के लिए अधिसूचना जारी होने से ठीक एक दिन पहले जाट समुदाय के लिए जाट आरक्षण को मंजूरी दी। लेकिन अप्रैल 2014 में जाटों को दिए गए आरक्षण के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका के जवाब में उच्चतम न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि केंद्र का फैसला दशकों पुराने आंकड़ों पर आधारित है और आरक्षण के लिए पिछड़ेपन का आधार सामाजिक होना चाहिए न कि आर्थिक या शैक्षणिक। न्यायालय ने यह भी कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकती और जाट जैसी राजनीतिक रुप से संगठित जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सही नहीं है। अगर सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में जाट समुदाय को शामिल करती है तो अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए मौजुदा 27 फीसद आरक्षण के दायरे का विस्तार करना होगा। देश में 52 फीसद आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग की है और अगर इसमें जाटों की 15 फीसद आबादी शामिल की जाती है तो यह आंकड़ा बढ़कर 67 फीसद हो जाएगा। गौरतलब है कि जाट समुदाय साठ के दशक से ही आरक्षण की मांग कर रहा है। 1953 में भारत सरकार ने काका कलेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा आयोग का गठन कर पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की दिशा में पहल की। आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और जाटों को आरक्षण देने की सिफारिश की। सरकार ने आयोग की सिफारिश को बर्फखाने में डाल दिया। दूसरा पिछड़ा आयोग 1979 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में गठित हुआ। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर 1980 को भारत सरकार को सौंप दी। सरकार ने अगस्त 1990 में रिपोर्ट की सिफारिशें लागू की और पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ दिया। उल्लेखनीय तथ्य यह कि इस रिपोर्ट में जाट समुदाय को आरक्षण न देने का कारण यह बताया गया कि वे अपने को पिछड़ा मानने को तैयार नहीं हैं। सच भी है कि उस दरम्यान जाट समुदाय ने पिछ़ड़ो कहलाने और आरक्षण लेने से मना कर दिया। अक्टुबर 1990 में हरियाणा सरकार ने सियासी लाभ के लिए दांव चलते हुए दस जातियों जिसमें जाट समुदाय भी था, को आरक्षण देने के लिए गुरुनाम सिंह आयोग का गठन किया। आयोग ने जाट समुदाय समेत दस जातियों को पिछड़ा मानते हुए आरक्षण देने की सिफारिश की। हरियाणा की तत्कालीन सरकार ने आयोग की सिफारिशें 1991 में लागू कर दी। लेकिन सत्ता परिवर्तन होते ही राजनीति का मिजाज भी बदल गया। मौजुदा सरकार के इशारे पर पूर्ववर्ती सरकार के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी और न्यायालय ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया। लेकिन कहते हैं न कि राजनीति मौके की मोहताज होती है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की नेतृत्व वाली सरकार ने अक्टुबर 1999 में भरतपुर और धौलपुर जिले के छोड़ शेष जाटों को केंद्रीय स्तर पर आरक्षण सुनिश्चित किया और उसके बाद आरक्षण की मांग तेज हो गयी। 2004 के लोकसभा चुनाव के दरम्यान सभी राजनीतिक दलों ने अपने एजेंडे में जाटों के आरक्षण को एजेंडा बनाया। उसके बाद जाट आरक्षण सियासी दलों के लिए हथियार बन गया और वे चुनाव के दरम्यान इसका इस्तेमाल करने लगे। जाट समुदाय का दावा है कि वह आर्थिक व सामाजिक रुप से पिछड़ा है और सामाजिक न्याय के तहत उन्हें आरक्षण पाने का हक है। बेशक जाट समुदाय को अपनी तार्किकता के साथ खड़ा होना चाहिए। लेकिन यह किसी भी तरह उचित नहीं कि वह अपनी मांगों को मनवाने के लिए हिंसात्मक आंदोलन पर उतर आए। आंदोलन का चेहरा उदार होना चाहिए न कि उग्र।

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