भारतीय राजनीति में कम से कम देर से ही सही अच्छाई की प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है। आप आदमी पार्टी -भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस सरीखी पार्टियों के भ्रष्टाचार और अंतर्कलह से जन्म ले सकी ,जैसा कि मेरा मानना है भ्रष्टाचार में अगर कांग्रेस को नोबल पुरस्कार दें तो अन्तर्कलह /कुमति का खिताब भाजपा को ही मिलेगा /मिलना चाहिए।
दिल्ली में भाजपा के प्रदर्शन को न तो अच्छा कह सकते हैं और न ही बेकार बल्कि ये कह सकते हैं कि ये और अच्छा कर सकते थे बशर्ते सही रणनीति के साथ मैदान में उतरते ,आपस में सामन्जस्य होता। कांग्रेस न सिर्फ अपनी बल्कि सम्पूर्ण देश की इज्जत जिस प्रकार से लुटाती रही उस हिसाब से अभी उसका पूरा इनाम बाकी है जो लोक सभा चुनावों में उसे मिल जाएगा। ‘आप ‘ की बानगी को देखते हुए ये अनुमान अभी से हो रहा है कि आम चुनावों में ये धमाकेदार इन्ट्री करेंगे ,विशेषकर ऐसे में जब बाकी दल तीसरा मोर्चा गठित कर देश चलाने का ख्वाब पाल बैठे हैं। राजनीति में परिवारवाद का झण्डा बुलन्द कर रहे उत्तर प्रदेश के मुलायम सिंह यादव जी का तो कुछ पूछिए ही नहीं दोनों हाथ में लड्डू हैं नेता जी के ,एक कठपुतली उन्होंने ने भी बैठा दी है शायद सोनिया जी की सलाह लेकर और इधर से भी खा -खाकर तंदरुस्त हो रहे हैं उनके खिलाफ सारे केस बंद करके वैसे भी केंद्र सरकार उन्हें देसी घी खिला रही है और पाचन की भी व्यवस्था कर रही है। कान्ग्रेस केवल चुप -चाप लूटने में विश्वास रखती है लेकिन सपा डकैती अर्थात लूटना -काटना -मारना किसी को परहेज नहीं मानती ,आलम यहाँ तक हैं कि क्या अधिकारी ,क्या आम जनता और क्या विपक्षी कोई अपनी खैर नहीं मना सकता अगर शांति से रहना है तो शरणागत होना पड़ेगा। इतने पर भी सार्वजनिक रूप से इन दिग्गजों के बेवकूफ़ाना बयान सोचने पर विवश कर देतें हैं कि ये जनसेवक हैं या फिर मालिक। न ही उत्तरदायित्व का बोध न ही भाषा शैली का और न ही देश -काल -परिस्थिति का अनुमान पता नहीं ये नेता जी लोग क्या साबित करने को तुले रहते हैं ,क्या बसपा ,क्या वामदल कोई इससे अछूता नहीं है। ये तो फिर भी नेता हैं मैं क्या कहूँ अपने पत्रकार लॉबी को एक अच्छा -खासा धड़ा बिना रीढ़ का हो चला है ,प्राचीन समय में राजाओं के यहाँ जिस तरह से उनके प्रशंसक हुआ करते थे उसी तरह आजकल कुछ पत्रकार अपनी महत्वाकांक्षा को उत्तरोत्तर परिपोषित कर रहे हैं। झूठे स्टिंग ,खुद चापलूसी कर दूसरों पर कीचड उछालना आजकल आम है ,अरे भाई पत्रकारिता निष्पक्ष होती है ये बताने के लिए क्या यहाँ भी कानून की देवी की अंधी तस्वीर लगानी पड़ेगी। चौथा खम्भा बोलते थे लोग तो बड़ा गर्व होता था कि हम इसका हिस्सा हैं, लेकिन लोग ऐसे कारनामे कर गुजरते हैं कि यह बताने में भी गुरेज होने लगता है कि हम इसी खम्भे की ईंट हैं। नेताओं और पत्रकारों दोनों से ही देश को ये आशा है कि कम से कम अपने नाम की सार्थकता को बनाये रखें।