इतिहास की एक उत्कृष्ट सेवा

लालकृष्ण आडवाणी

आज मुझे चेन्नई में एक अद्वितीय प्रकाशन के लोकार्पण हेतु निमंत्रित किया गया है। मैं इसे अद्वितीय इसलिए वर्णित करता हूं क्योंकि मूलत: इसका प्रकाशन तीन दशक पूर्व भारत सरकार ने शाह कमीशन रिपोर्ट शीर्षक से किया था। लेकिन मुख्य शीर्षक के साथ उप-शीर्षक ‘लॉस्ट एण्ड रिगेन्ड‘ जुड़ने और कुछ कल्पनाशील पुर्नसम्पादन ने इसे नया और महत्वपूर्ण अर्थ दे दिया है।

इस नई पुस्तक का संयोजन और सम्पादन मेरे पुराने मित्र तथा संसदीय सहयोगी इरा सेझियन ने किया है। 1923 में जन्में सेझियन डीएमके के संस्थापक सी.एन. अन्नादुरई के अनन्य अनुयायीओं और बाद में उनके अत्यन्त विश्वस्त सहयोगी बने। वह 1962 से 1984 तक संसद में थे। 1977 के चुनावों के बाद, वह जनता पार्टी के एक संस्थापक सदस्य थे और नेशनल वर्किंग कमेटी और पार्लियामेंटरी बोर्ड में भी रहे हैं। पुस्तक हेतु यह ताजा संयोजन, पुर्नसम्पादन और पुर्न:प्रकाशन से सेझियन ने इतिहास की उत्कृष्ट सेवा की है। उनकी प्रस्तावना और परिचय इसका रहस्योद्धाटन करता है कि आखिर किस कारण से उन्होंने एक सरकारी दस्तावेज को निजी प्रकाशन के रुप में छापने को बाध्य किया। वे लिखते हैं :

”यह भारत के राजनीतिक इतिहास का अंग है कि 1977 के लोकसभाई आम चुनावों में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से बनी जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को करारी पराजय दिलाई। जनता सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.सी. शाह की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित किया जो 1975-77 के आपातकाल की अवधि में सरकार द्वारा किए गए दुरुपयोग, ज्यादतियों और अनियमितताओं की जांच करें।

शाह आयोग ने अपनी तीसरी और अंतिम रिपोर्ट 6 अगस्त, 1978 को सौंपी। शाह आयोग के निष्कर्षों पर कार्रवाई करने के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने एक समिति नियुक्त की जिसमें एल. पी. सिंह को चेयरमैन और बी.एस. राघवन को सचिव बनाया गया।”

सेझियन आगे लिखते हैं :

”जब सितम्बर, 2010 के मध्य में, मैं जून 1975 में घोषित आपातकाल के बारे में कुछ पुरानी संदर्भ सामग्री चाहता था तो कुछ वेबसाइटों पर यह निश्चित रुप से पढ़कर मैं दंग रह गया कि शाह आयोग रिपोर्ट गायब है और यह एक निश्चयात्मक निष्कर्ष था कि ‘रिपोर्ट की एक मात्र प्रति भी भारत में मौजूद नहीं है।‘

मैंने भारत से शाह आयोग रिपोर्ट को वापस लेने/अनुपलब्ध होने सम्बंधी निम्नलिखित वक्तव्यों का गहनता से अध्ययन किया:

”रिपोर्ट विशेष रुप से इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी और प्रशासनिक सेवाओं के उन अधिकारियों जिन्होंने संजय गांधी की सहायता की, के लिए हानिकारक है। इस रिपोर्ट को इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार जो 1980 में सत्ता में पुन: वापस आई, ने रद्द कर दिया। सरकार ने असाधारण कदम उठाते हुए शाह आयोग की प्रत्येक प्रकाशित रिपोर्ट को वापस लेकर उसकी प्रतियों को नष्ट कर दिया। अब यह माना जाता है कि इस रिपोर्ट की एक मात्र प्रति भी भारत में मौजूद नहीं है। आयोग की तीसरी और अंतिम रिपोर्ट ऐसा लगता है भारत से बाहर चली गई और वर्तमान में नेशनल लायब्रेरी ऑफ आस्ट्रेलिया में है।”

(विकीपीडिया वेबसाइट कहती है: ”यह पृष्ठ 14 अगस्त, 2010 को अद्यतन किया गया।)

1- फ्रंटलाइन (Frontline) 28 अप्रैल-11 मई, 2001 -केथेरिन फ्रैंक की पुस्तक ‘इंदिरा-द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरु गांधी की समीक्षा सुकुमार मुरलीधरन ने की है।

अपनी नियति के प्रति आग्रही भाव रखने वाले नेहरु परिवार कभी रिकार्ड संजोकर रखने वाले तुनुक मिजाज थे। तब भी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री के रुप में बाद की अवधि में, परिवार पब्लिक रिकार्ड से कुछ निश्चित पहलुओं को नष्ट कर देने वाला सिध्द हुआ। एक उदाहरण के लिए आपातकाल में राजनीतिक ज्यादतियों की जांच करने वाले जे.सी. शाह आयोग की जांच-आयोग के सम्मुख अनेक घंटो की टेप रिकार्डिंग कार्यवाहियां खो गईं और यह माना जाता है कि इसकी अंतिम रिपोर्ट की प्रति एक भी देश में बच नहीं पाई।”

2- इण्डियन एक्सप्रेस (Indian Express ) मुम्बई 4 जुलाई, 2000-अमृतलाल लिखते हैं कैसे उन्होंने स्मृति लेख के बिना भी शाह आयोग की रिपोर्ट को दफना दिया:

”मार्च, 1980 तक इंदिरा के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार सत्ता में थी। आयोग का हिस्सा रहें एक अधिकारी ने कहा कि सभी केसों को धीमा कर दिया और धीरे धीरे खत्म किया गया या तो उन्हें जारी नहीं रखा गया या दोषियों को दण्डित नहीं किया गया। वह बताते हैं कि सरकार ने जांच रिपोर्ट की सभी प्रतियों को नष्ट करने का आदेश दिया। तथ्य यह है कि शाह आयोग की जांच रिपोर्ट अब दुर्लभ पाए जाने वाला दस्तावेज है।”

3- ”इंदिरा – द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरु गांधी” लेखक केथरिन फ्रेंक हारपर पेरेनयल संस्करण 2005।

”अपनी गंभीर कमियों के बावजूद, शाह आयोग रिपोर्ट संजय गांधी की उस समय की अवैध सत्ता की साक्ष्यों का बहुमूल्य, खजाना है जिसके चलते आपातकाल लागू हुआ और इस अवधि के दौरान अनेक लोक सेवकों तथा सरकारी अधिकारियों की चापलूसी और कायरता की पोल खोलता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता में पुन: आते ही रिपोर्ट की सारी की सारी प्रतियां वापस करा लीं।”

”जब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस लौटी, उन्होंने रिपोर्ट को खारिज करते हुए इसे बाजार से वापस मंगा लिया। तीन भागों वाली रिपोर्ट को खारिज करते हुए इसे बाजार से वापस मंगा लिया। तीन भागो वाली रिपोर्ट की एकमात्र उपलब्ध प्रति जहां तक मैं जानती हूं, स्कूल ऑॅफ ओरियंटल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, युनिवर्सिटी ऑॅफ लंदन में है।”

4- द वीक (The Week) 25 जुलाई, 2010, प्रोब द कमीशन

”शाह आयोग 1977 में मोरारजी देसाई सरकार द्वारा नियुक्त किया गया। अगस्त, 1978 में सौंपी गई 500 पृष्ठों की रिपोर्ट में 46,000 शिकायतों की जांच करने और 100 बैठकों के बाद इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय को दोषी पाया गया। हालांकि, उसके बाद की चरण सिंह सरकार ने आयोग द्वारा दोषी पाए गए लोगों के विरुध्द कार्यवाही करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। 1980 में इंदिरा के सत्ता में लौटने के बाद शाह आयोग रिपोर्ट शनै: शनै: दफना दी गई।”

5- पूर्व अटार्नी -जनरल अशोक एच. देसाई ‘सिटीजन राइट्स एंड द रुल ऑफ लॉ-एसैस इन मेमौरी ऑफ जस्टिस जे.सी. शाह‘ की प्रस्तावना में लिखते हैं:

”शाह आयोग की रिपोर्ट बगैर अंलकृत भाषा के सूक्ष्म विश्लेषण के चलते अधिक प्रभावी बनी है क्योंकि यह आपात काल में सत्ता के दुरुपयोग की घटना-दर-घटना को बताती है। र्दुभाग्य से, बाद की सरकार के चलते यह सरकारी प्रकाशनों की बिक्री केन्द्रो से गायब हो गई।

कोई भी यह आशा कर सकता है कि भारत सरकार भी उस जैसे दायित्व से बंधी हो जैसाकि इंग्लैंड में है कि किसी भी एक नागरिक द्वारा अनुरोध किए जाने पर प्रत्येक आयोग की रिपोर्ट की प्रति उपलब्ध कराई जाएगी।”(19 दिसम्बर, 2010)

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