डॉ. लोहिया का इतिहास चिंतन – डॉ. मनोज चतुर्वेदी

इतिहास की अवधारणा एवं उसकी प्रकृ ति पर अनेक मौलिक चिंतन हुए हैं। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में इतिहास की पौराणिक परिकल्पनाओं का प्रस्थान बिंदू मानव समाज में नैतिकता और सदाचार का अनुपालन ही रहा है। परंपराओं में यह माना जाता रहा है कि इतिहास वास्तव में उच्चावस्था लगातार उसके नैतिक पतन की कहानी है तथा अवतारों एवं धर्मोंपदेशकों ने समय-समय पर मानव जाति को मानवीय विचारों से ओतप्रोत करने का प्रयास किया है। भारतीय परंपरा में इतिहास सतयुग से त्रेता और द्वापर युगों से गुजरते हुए कलियुग के दौर में है और यह घुमते हुए सतयुग (श्रेष्ठ युग, सत्ययुग) की ओर जायेगा। इस प्रकार धार्मिक परंपराओं में मानव-समाज के अपने देशज आदर्शों के अनुसार उत्थान-पतन की एक चक्रीय अवधारणा रही है। धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने पुस्तक ‘मार्क्सवाद और रामराज्य’ में 60 लाख पूर्व के ताला का वर्णन किया है। इससे लगता है कि भारत का इतिहास चिंतन तथा पुरातत्व अति प्राचीन है। खैर इसमें अभी जाने की जरूरत नहीं है। आधुनिक युग में जर्मन दार्शनिक हिगेल ने मानव-चेतना की प्रगति के साथ इतिहास को जोड़ते हुए मानव संस्कृति के निर्माण में आरोहों एवं अवरोहों से युक्त ‘द्वंदात्मक विकास’ की संकल्पना प्रस्तुत की। तो दूसरी ओर कार्ल मार्क्स ने इतिहास की पदार्थवादी व्याख्या करते हुए भौतिक प्रगति यथा-उत्पादन के साधन, स्वरूप एवं संबंधों के अनुसार मानव-सभ्यता की रैखिक प्रगति की अवधारणा प्रतिपादित की। 20वीं सदी के विख्यात अंग्रेज इतिहासकार और दार्शनिक ऑरनाल्ड टॉयनबी ने विभिन्न युगों और क्षेत्रों की मानव संस्कृतियों में निहित चुनौतियों से संघर्ष की क्षमता के आधार पर उनकी जीवनविधि की प्रगति का अध्ययन प्रस्तुत किया। इस प्रकार विभिन्न इतिहासविदों द्वारा इतिहास की प्रगति के कुछ सूत्रों को निर्धारित करने के प्रयास किए जाते हैं। फिर भी मानव-चेतना और पदार्थ की गति और उनके व्याख्याएं दी गयीं, व कहीं न कहीं एकांगी ही प्रतीत हुई है।

20वीं सदी में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगवान दास, आचार्य नरेंद्रदेव, संत विनोबा भावे, पं. दीनदयाल उपाध्याय के बाद राष्ट्र चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया ही एक ऐसे विचारक थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति में स्थापित राम, कृष्ण, शिव और बुद्ध की परंपराओं में निहित मर्यादाओं, कौशल, सौंदर्य, शांति, क्रांति और आर्थिक समता (गैरबराबरी) में निहित मर्यादाओं पर ध्यान के ंद्रित करते हुए पश्चिमी समाजवादी सिध्दांतों और आंदोलनों को समझने की एक दृष्टि विकसित की। भारतीय संस्कृति के विरासत से ओत-प्रोत स्वामी विवेकानंद, वर्ध्दमान महावीर, महात्मा बुद्ध, गुरुनानक देव, अरविंद घोष तथा भक्ति कालीन संतों और पश्चिम की नयी औद्योगिक सामाजिक विसंगतियों की पृष्ठभूमि में निर्मित कार्ल मार्क्स के दर्शन के सापेक्ष डॉ. लोहिया ने इतिहास के बारे में अपनी एक स्वतंत्र और मौलिक दृष्टि प्रस्तुत की जो ‘इतिहास-चक्र’ नामक पुस्तक के रूप में है।

डॉ. लोहिया के इतिहास दर्शन में हिगेल की मानव-चेतना, मार्क्स का पध्दार्थवादी चिंतन और मानव संस्कृतियों में चुनौतियों से संघर्ष की क्षमता। सामर्थ्य से संबंधित टॉयनबी के विचारों के साथ ही अन्य आधुनिक जर्मन इतिहासकार/दार्शनिक स्पेंगलर के अनुसार सामर्थ्ययुक्त समाजों/नगरों द्वारा दुर्बल ग्रामीण समाजों के दोहन की बात भी सन्निहित रही। इस प्रकार डॉ. लोहिया ने मानव-चेतना और पदार्थ के गुणों और किसी देश-काल में उनके परस्पर संबंधों के स्वरूप को समझाते हुए इतिहास की संकल्पना का सुझाव दिया। उनके अनुसार उन संबंधों के सकारात्मक एवं नकारात्मक स्वरूप पर ही किसी सभ्यता का उत्थान और पतन निर्भर होता है। यदि किसी भी दिशा में उसके अधिकतम कौशल की स्थिति उत्पन्न होती है जिसके बाद अब पतन अवश्यंभावी है। इन संबंधों के परस्पर सकारात्मक होने पर ही समाज को पूर्ण कौशल की ओर ले जाया जा सकता है। इस दृष्टि से विश्व मानवता और भारतीय राष्ट्र दोनों हीं संदर्भों में इतिहास चिंतन पर पुनर्विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है।

डॉ. लोहिया ने इतिहास के चक्रीय व्याख्याा को पूर्णरूपेण स्वीकार नहीं किया तो अस्वीकार भी नहीं किया। आपका मानना था कि सतयुग, द्वापर, त्रेता तथा कलियुग के बाद सतयुग का आना तो ठीक है पर उसमें अच्छायी क्रमशः घटते चली जाती है। अंतिम जो हमारा कलियुग का काल है व अच्छायी के हिसाब से सबसे निम्न स्तर का है पर इसमें यह तो जरूर आता है कि पुनः सतयुग आयेगा। लेकिन लोहिया को यह विचार उतना ठीक नहीं लगता था। क्योंकि उसमें अनेक ऐसी बुराइयों की मौन स्वीकृति है जिसे वे स्वीकार नहीं करते।

राष्ट्रचिंतक, विरक्त और फक्क़ड़ डॉ. राममनोहर लोहिया स्वतंत्रता सेनानी के साथ साहित्यकार, पत्रकार और संपादक भी थे। आज जब संपूर्ण भारत डॉ. लोहिया की जन्म शताब्दी वर्ष मना रहा है तो उनकी और प्रासांगिकता बढ़ जाती है। कभी डॉ. साहब ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों के संबंध में कहा था कि वो गृहस्थों को संन्यासी बना रहे हैं तो उनके कहने का एकमात्र भाव यही था कि संघ के प्रचारक सामान्य जीवन में रहकर जनता की सेवा में सहयोग एवं समर्पण भाव से लगे हुए हैं। जो एक संन्यासी हीं कर सकता है। आज डॉ. साहब के समग्र विचारों पर रचनात्मक, आंदोलनात्मक एवं बौद्धिक विमर्श की परम आवश्यकता है तथा ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती’ पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

– लेखक, पत्रकार, समीक्षक, समाजसेवी तथा नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी संपादक हैं।

1 COMMENT

  1. मनोज जी कडी मेहनत के िलए बधाई आप ने निशिचत रूप से लोहिया जन्मशताब्दी समाराेह में चार चाद लगा िदया है आगे लोहिया जी पर आैर कार्य करना चाहते है तो कृपया सम्पर्क अवशय करें

    आलोक कुमार यादव,
    संपादक
    ए जर्नल आफ सोशल फोकस
    मो 08057144394

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