एक बार फ़िर इतिहास को कटघरे में

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jinnahजिन्ना लेकर उत्पन्न ताजा विवादों ने एक बार फ़िर इतिहास को कटघरे में ला खड़ा किया है । बात आडवानी की हो या जसवंत की मसले के पीछे प्रमाणिक इतिहास की जानकारी का अभाव है । अब तक के ज्ञात इतिहास की प्रमाणिकता को चुनौती देने का साहस हम भारतीयों में न के बराबर है ।दरअसल, हमारा इतिहास हमारा है हीं नही वो तो विदेशी यात्रियों , विदेशी आक्रान्ताओं , मुगलों और बाद में अंग्रेजों के द्वारा बुना गया भ्रमों का तथ्यात्मक जाल है । अतीत में ज्यादा दूर न जा कर आधुनिक भारत के इतिहास को देखें । आज जो कुछ हम जानते हैं वो उन्हीं किताबों के सहारे जिसे अंग्रेजों ने अपनी सुविधानुसार और स्वार्थ के वशीभूत होकर रचा था । भारतीयों में बहुत नाम मात्र के विद्वान हुए जिन्होंने इस दिशा में प्रयास किया कि अतीत और वर्तमान भारतीय पक्ष से जांच-परख कर सर्वसाधारण के समक्ष प्रस्तुत किया जाए । आज भारत की सबसे बड़ी समस्या साम्प्रदायिकता के मूल में इतिहास के ग़लत व्याख्या के अलावा कुछ नही है । अपनी अकर्मण्यता और दूसरो की काबिलियत पर आँख मूंद कर भरोसा करने की प्रवृत्ति ने हमें इस ऐतिहासिक अन्धकार में धकेला है जहाँ निकलने का एक ही तरीका है फ़िर उसी ग़लत रास्ते पर जाना । इतिहास के अनेक प्रसंग ऐसे हैं जिस पर प्रश्न उठाया गया है और कुछ पर उठाने की जरुरत है । यहाँ एक सवाल है क्या केवल प्रश्न खड़े करके हमारी जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है ? क्या केवल विवाद पैदा करना ही हमारा मकसद रह गया है ? नहीं , हमें इसका जबाव भी खोजना होगा । सही और तथ्यपूर्ण शोधों से सही और ग़लत इतिहास का चयन करना होगा । आप और हम में से कई लोग इसे बेफजूल का काम मानते हैं । वो दूसरो के द्वारा लिखे गये अपने अतीत को पढ़ कर फूले नही समाते । अनेक जगहों पर विदेशी लेखकों का जिक्र करके ख़ुद को बौद्धिक समझते हैं । वैसे तो यह आम भारतीयों की समस्या हो गयी है कि किसी को चार लाइन अंग्रेजी बोलते देखा बस उसके सामने नतमस्तक हो गये । गुलामी के पिछले २०० वर्षों में हमने खुद को भुला दिया है । भारतीय संस्कृति के संक्रमण काल की शुरुआत तो इस्लामी शासन से ही हो जाता है । लेकिन मुस्लिम शासकों ने सीधे धर्म परिवर्तन और सत्ता में जमे रहने की कवायद में ही समय गुजर दिया । वो भारतीय जनमानस में छुपी संस्कृति के सूक्ष्म तत्वों को नहीं परख सके । जहाँ तक हुआ हमारा प्रभाव उन पर पड़ा । वहीँ अंग्रेजों के शासन काल में सीधे हमला न कर हमारे इन सूक्ष्मतम मूल्यों , हमारे मन में जमी अतीत के गौरव को धीरे -धीरे कम किया जाता रहा और आज हम लगभग शून्य की स्थिति में पहुँच गए हैं । १८५७ की क्रांति के बाद ही वो समझ गए थे कि भारतीयों की ताकत इनकी सांस्कृतिक एकता और गौरव है । जिस मूल्यों और विचारों के दम पर ये १० हजार सालों से केवल जिन्दा नहीं बल्कि सोने की चिडियां और विश्वगुरु बन कर रहे उसे मिटाए बिना यहाँ पर राज संभव नहीं । तब उन्होंने बिलकुल सुनियोजित रूप में मनगढ़ंत सिद्धांतों के प्रचार से हमारे अन्दर हीनता का भाव पैदा करना प्रारंभ किया । बहुत जल्द ही हताशा में हमें ऐसा लगने लगा हम गलत थे और हमें पश्छिम का अनुकरण करना चाहिए । चाहे वो इंडो-आर्यन सिधांत हो या पश्चिमी मानकों -मूल्यों को कार्य व्यापार में शामिल करना । इस २०० सालों में हम स्वयं को ऐसा भूले कि आजादी के बाद भी उसका स्मरण न आया । हमने सत्ता , शासन , व्यवस्था , शिक्षा , व्यापार हर जगह उनके मोडल को नहीं भूल पाए । हम भूल गए कि चीजे सापेक्ष होती है जो देश- काल-परिस्थिति के हिसाब से संचालित होती है । परिणाम हमारे समक्ष है । आज भारतीय बौद्धिक जगत में भारतीय पक्ष / भारतीय दृष्टिकोण से विषय -वस्तु को देखने समझने का सर्वथा अभाव है और पहले भी रहा है ।
” भारत मेरी धमनियों में बह रहा था ….. फ़िर भी मैंने उसे एक अजनबी आलोचक की नज़र से समझा क्योंकि उसका वर्तमान मुझे नापसंद था । साथ हीं मेरी जानकारी में उसके अतीत के कई अवशेषों से मुझे खास अरुचि थी । एक तरफ़ से मैं बी हरत के नजदीक पश्चिम के जरिये आया और उसे एक हमदर्द पश्चिमवासी की निगाह से देखा । ”            जवाहरलाल नेहरू ,1946
आजाद भारत में भी जो कुछ लिखा और पढ़ा जान रहा है वो निष्पक्ष नहीं जान पड़ता ।इस दौरान जो राजनीतिक इतिहास लिखा भी गया वह या तो प्रशासनिक इतिहास लेखन की औपनिवेशिक शैली से ग्रस्त था अथवा ४७ के बाद इसी तर्ज पर रचा गया राजनयिक यानि विदेश निति के सन्दर्भ में लिखा गया इतिहास था । आरम्भ से एकतरफा लिखा जाता रहा इतिहास अब दो पाटों में कमोबेश पिस रहा था । समग्र राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक समान नज़र डालने की कोशिश ना के बराबर हुई है । इतिहास लेखन की दोनों धाराओं के बीच एक गुंजाईश अवश्य बनती है । हमें इस दिशा में प्रयास किए गये कुछ युगद्रष्टाओं के कार्यों को आगे बढ़ाने का काम करना चाहिए । अब तक समाज की जिम्मेदारी जिस बौद्धिक वर्ग के ऊपर थी वो भी इस कुचक्र में फंसकर आजकल लोगों के शुद्धिकरण में लगा हुआ है । जबकि आज सबसे पहले इतिहास के शुद्धिकरण की आवश्यकता है । आज की समस्यायों और मसलों का हल भारतीय संस्कृति की परम्परा में ढूंढ़ कर नए रूप में व्याख्यायित करने का कार्य कठिन तो है पर मुश्किल नहीं । हम आज के प्रगतिशील भारतीयों को पीछे लौटने की नहीं बल्कि भविष्य की संभावनाओ को अपनी संस्कृति में खोजने की बात कर रहे हैं ।

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