डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
जहां तक मुझे याद है, मैं 1977 से एक बात को बड़े-बड़े नेताओं से सुनता आ रहा हूँ कि भारतीय कानूनों में अंग्रेजी की मानसिकता छुपी हुई है, इसलिये इनमें आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है, लेकिन परिवर्तन कोई नहीं करता है| हर नेता ने कानूनों में बदलाव नहीं करने के लिये सबसे लम्बे समय तक सत्ता में रही कॉंग्रेस को भी खूब कोसा है| चौधरी चरण सिंह से लेकर मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, चन्द्र शेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, मुलायम सिंह, लालू यादव, रामविलास पासवान और मायावती तक सभी दलों के राजनेता सत्ताधारी पार्टी या अपने प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं को सत्ता से बेदखल करने या खुद सत्ता प्राप्त करने के लिये आम चुनावों के दौरान भारतीय कानूनों को केवल बदलने ही नहीं, बल्कि उनमें आमूलचूल परिवर्तन करने की बातें करते रहे हैं|
परन्तु अत्यन्त दु:ख की बात है कि इनमें से जो-जो भी, जब-जब भी सत्ता में आये, सत्ता में आने के बाद वे भूल ही गये कि उन्होंने भारत के कानूनों को बदलने की बात भी जनता से कही थी|
अब आजादी के छ: दशक बाद एक अंग्रेज ईमानदारी दिखाता है और भारत में आकर भारतीय मीडिया के मार्फत भारतीयों से कहता है कि भारतीय दण्ड संहिता में अनेक प्रावधान अंग्रेजों ने अपने तत्कालीन स्वार्थसाधन के लिये बनाये थे, लेकिन वे आज भी ज्यों की त्यों भारतीय दण्ड संहिता में विद्यमान हैं| जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है|
इंग्लेंड के लार्ड एंथनी लेस्टर ने कॉमनवेल्थ लॉ कांफ्रेंस के अवसर पर स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारतीय दण्ड संहिता के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये पर्याप्त और उचित संरक्षक प्रावधान नहीं हैं| केवल इतना ही नहीं, बल्कि लार्ड एंथनी लेस्टर ने यह भी साफ शब्दों में स्वीकार किया कि भारतीय दण्ड संहिता में अनेक प्रावधान चर्च के प्रभाव वाले इंग्लैंड के तत्कालीन मध्यकालीन कानूनों पर भी आधारित है, जो बहु आयामी संस्कृति वाले भारतीय समाज की जरूरतों से कतई भी मेल नहीं खाते हैं| फिर भी भारत में लागू हैं|
भारतीय प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया अनेक बेसिपैर की बातों पर तो खूब हो-हल्ला मचाता है, लेकिन इंगलैण्ड के लार्ड एंथनी लेस्टर की उक्त महत्वूपर्ण स्वीकारोक्ति एवं भारतीय दण्ड संहिता की विसंगतियों के बारे में खुलकर बात कहने को कोई महत्व नहीं दिया जाना किस बात का संकेत है?
इससे हमें यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि मीडिया भी भारतीय राजनीति और राजनेताओं की अवसरवादी सोच से प्रभावित है| जो चुनावों के बाद अपनी बातों को पूरी तरह से भूल जाता है| लगता है कि मीडिया भी जन सरोकारों से पूरी तरह से दूर हो चुका है|
इंग्लेंड के लार्ड एंथनी लेस्टर ने सवा सौ करोड़ भारतीयों को अवसर प्रदान किया है कि वे देश के नकाबपोश कर्णधारों से सीधे सवाल करें कि भारतीय दण्ड संहिता में वे प्रावधान अभी भी क्यों हैं, जिनका भारतीय जनता एवं यहॉं की संस्कृति से कोई मेल नहीं है?
अरे sahab अप bhi kin netao se v मिडिया वालो se apeksha रखने लगे???देश ke netao me इन chijo ko samajhane ki अक्ल hai hi nahi ,मिडिया वाले भेड़ चाल व् सनसनी me ही khush है………………..वैसे जानकारी dene ke लिए बहुत बहुत धन्यवाद……………
डॉ. मीना जी ने बहुत अच्छा विषय उठाया है. धन्याद.
कहावत है की घुटना पेट की तरफ मुड़ता है. जिस व्यवस्था के द्वारा नेता अयाशी कर रहे है उसे कैसे छोड़ सकते है. सरकारी नौकरी तो है नहीं की अभी भी खाओ बाद में भी मिलेगा. पांच साल का समय है, जोड़ लो जितना जोड़ सकते है.
वाकई समय है ने नियम, निति बनाने का. किन्तु नियम फिर से वोही नेता, आईएस (अति उच्च वर्ग) बनायेगे जिन्हें यह नहीं पता होता है की गुड और तेल में से के पन्नी में आता है और क्या बोतल में मिलता है.
आदरणीय श्री तिवारी जी आभार!
आपका आलेख प्रासंगिक है ,भारतीय संविधान शायद दुनिया के सभी संविधानो का सिरमौर है किन्तु यही एक चीज है जो बेहद अफ्सोश्नात्म्क और तकलीफदेय है कि आजादी से आज तक जो कुछ भी संवैधानिक संशोधन हुए वे आम तौर पर सत्ता में बने रहने या सत्ताधीशों का वित्तीय पोषण करते रहने में मददगार रहे हैं .जिन धाराओं को अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत को चिरस्थायी बनाये रखने और आवाम कि विद्रोही आवाज को दवाने के हेतु से ईजाद किया था ;उन्हें आज भी उसी रूप में उसी स्वार्थ के निमित्त प्रयुक्त किया जा रहा है .विनायक सेन का मामला हांड़ी का एक चावल है …..