विदेशी शिक्षा कितनी सार्थक

विजन कुमार पाण्डेय

महंगी होती शिक्षा आज अनेक समस्यायें पैदा कर रही है। हमारी देशी शि़क्षा बेहद सस्ती होने के बावजूद तमाम अभिभावक अपने बच्चे को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजते हैं। जबकि भारत के मुकाबले वहां पढ़ाई आठ दस गुना महंगी है। भारत में बाहर से आए छात्रों का यूनिर्वसिटी फीस और रहने-खाने का सालाना औसत खर्च 5640 डालर है। जिसमें से केवल 581 डालर फीस के रूप में वे चुकाये जाते हैं। पंद्रह देशों में 4500 अभिभावकों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि भारत में भले ही सबसे सस्ती उच्च शिक्षा मिल रही हो, लेकिन ज्यादातर भारतीय अभिभावक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया और सिंगापुर भेजते हैं। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं इसके कई कारण हैं। लेकिन सरकार उसपर ध्यान नहीं देती। दरअसल हमारे यहां कोई भी यूनिर्वसिटी का नाम 200 विश्वविद्यालयों में नहीं है। आईआईटी-मुंबई का स्थान 222 वां है जबकि आईआईटी-दिल्ली का 235 हैं। प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन के मामले में 420-230 के बीच आया है। ऐसा नहीं कि भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर ऊचा उठाने का काम नहीं हो रहा। यह काम तेजी से हो भी रहा है। लेकिन उसकी दिशा सही नहीं है। आज छात्रों में इंजीनियरिंग से मोहभंग होता जा रहा है। हर साल अधिकांश राज्यों में 50 से 60 प्रतिशत सीटें खाली चली जाती हैं। देश में तकनीकी शिक्षा के हालात दिन प्रतिदिन बद से बद्तर होते जा रहे हैं। पिछले साल भी इंजीनियरिंग और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में पूरे देश में पांच लाख से ज्यादा सीटें खाली रह गयी थीं। देश में इंजीनियरिंग में साल-दर-साल जो गिरावट आ रही है उसके पीछे कुछ मुख्य कारण है। जिसे हमें समझना होगा। मसलन तकनीकी शिक्षा के इतने विस्तार के बाद भी आज हम उसे व्यवहारिक और रोजगारपरक नहीं बना पाये हैं। कोई भी अभिभावक इंजीनियरिंग में अपने बच्चों का दाखिला सिर्फ इसलिए कराता है कि उसको डिग्री के बाद नौकरी मिले। लेकिन ऐसा नहीं होता। देश में इस धारणा को समझना होगा कि इंजीनियर बनने के लिए कोई इंजीनियरिंग नहीं पढ़ता बल्कि नौकरी पाने के लिए इंजीनियरिंग पढ़ता है। नौकरी की गारण्टी पर ही लोगों का इंजीनियरिंग की तरफ झुकाव होता है।

उच्च शिक्षा की हालत भी यही है। देश में फिलहाल 225 से अधिक छोटे-बड़े विश्वविद्यालय हैं। उनसे संबंधित कालेजों की संख्या हजारों में है। लेकिन हैरानी की बात है कि इनमें से कोई भी यूनिर्वसिटी उस स्तर की शिक्षा नहीं दे पा रही है कि उन्हें अव्वल सौ यूनिवर्सिटी में शामिल किया जा सके। उच्च स्तरीय शिक्षा पाने के लिए हर साल भारत से करीब दो लाख छात्र विदेश जाते हैं। इसलिए अब जरूरी हो गया है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई अच्छी तरह से हो। जिससे छात्रों को बाहर न जाना पड़े। अगर देश में ही विदेशी विश्वविद्यालय खुल जाये ंतो भी विदेशी डिग्री पाने का सपना थोड़े सस्ते में पूरा हो जाएगा। लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय देश में खोलने से पहले यह देखना भी जरूरी है कि आखिर विदेशी शिक्षा में ऐसा क्या है, जो दुनिया भर के छात्र अमेरिका, ब्रिटेन, आॅस्ट्रेलिया की ओर खिंचे चले जाते हैं। आप अमेरिका शिक्षा व्यवस्था को ही ले लें। यहां कानून और चिकित्सा, दो ऐसे पेशे हैं जिनमें भरपूर कमाई होती है। लेकिन इसकी पढ़ाई में काफी समय लग जाते हैं। यहां कानून की पढ़ाई पूरी करने में 7-8 साल लग जाते हैं। जबकि मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने में 11 साल लग जाते हैं। इसमें करीब एक से डेढ़ करोड़ रूपये खर्च आते हैं। इन दोनों पाठ्यक्रमों के लिए येल, हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड की गणना सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटीज में होती है। इतनी मंहगी शिक्षा के बावजूद वहां ऐसा नहीं है कि अभिभावक अपने बेटे या बेटी को पढ़ाने के लिए अपना घर-बार बेचना पड़े। इसके लिए वहां आसानी से कम ब्याज दरों पर कर्ज मिल जाता है।

मेडिकल और कानून की डिग्रियों के अलावा वहां ऐसी अनेक डिग्रियां और पाठ्यक्रम हैं जिनके जरिये एक अच्छा रोजगार पाया जा सकता है। मगर यहां बात सिर्फ उच्च शिक्षा के क्वालिटी की नहीं होती है। दरअसल अमेरिका में बच्चों की स्कूली शिक्षा की नींव को भी काफी मजबूत बनाया जाता है। यहां प्राइमरी से लेकर हाईस्कूल तक की शिक्षा मुफ्त होती है। भारत की ही तरह यहां भी प्राइवेट स्कूल काफी मंहगें होते हैं। सरकारी स्कूल सस्ते जरूर होते हैं लेकिन पढ़ाई बहुत अच्छी होती है। सरकारी स्कूल से निकला बच्चा प्राइवेट स्कूल के बच्चे से किसी मामले में कम नहीं होता। यहां कालेज स्तर की शिक्षा भी उच्चकोटि की होती है। दरअसल यहां उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम का मूल उद्येश्य पूरी तरह व्यावसायिक होता है। भारत की तरह मात्र डिग्रियों को बटोरना यहां लक्ष्य नहीं होता। बल्कि उस पढ़ाई के जरिये छात्रों को रोजगार के लायक बनाना होता है। इसलिए उनके पाठ्यक्रम भी उसी तरह तैयार किए जाते हैं। इसके लिए अमेरिका में प्राइवेट और पब्लिक दोनों ही तरह के यूनिवर्सिटी और कालेज होते हैं। वहां छात्र दो वर्षीय या चार वर्षीय ग्रेजुएशन कोर्स के चयन में पूरी तरह स्वतंत्रता रहते हैं। इसके लिए अनेक कंपनियां आॅनलाइन गाइडेंस भी देती हैं। यहां ग्रेजुएशन कोर्स की इतनी भरमार होती है कि छात्र अपनी इच्छानुसार तथा आर्थिक क्षमता के अनुसार पाठ्यक्रम चुन सकते हैं। इसीलिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया और सिंगापुर में उच्च शिक्षा एक उद्योग का रूप ले चुकी है। भारत और चीन से करीब चार-पांच लाख युवा हर साल यहां उच्च शिक्षा के लिए पहुंचते हैं। इससे अकेले अमेरिका को ही करीब 25 से 30 अरब डालर की कमाई हो जाती है। इसका ठीक उल्टा भारत में हैं। यहां सरकारी मदद के भरोसे चल रही आईआईटी और मेडिकल कालेज में न्यूनतम सुविधायें हैं। सामान्य वेतन और न्यूनतम फैकल्टी से काम चलाया जाता है।

आज देश में बड़ी संख्या में क्षात्र इंजीनियर पढ़ कर निकल रहे हैं। लेकिन उनमें स्किल की बहुत कमी है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषणों में स्किल पर बहुत जोर दिया है। स्किल की कमी से लाखों इंजीनियर हर साल बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। उन्हें मन मुताबिक काम नहीं मिल पाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में 15 लाख इंजीनियर बनते हैं। लेकिन उनमें से केवल चार लाख को ही नौकरी मिल पाती है। बाकी सब बेरोजगार घूमते रहते हैं। दरअसल वे इंजीनियर नौकरी पाने के लायक ही नहीं होते, क्योंकि उनकी पढ़ाई ही बहुत निम्न स्तर की होती है। इसलिए इंजीनियरिंग कालेजों की स्थिति साल दर साल खराब होती जा रही है। दरअसल हम अपने ज्ञान को ज्यादा व्यवहारिक नहीं बना पाये हैं। हम रट कर पास हो जाते हैं। यह नंबरों की होड़ वाली शिक्षा है। केवल रटे-रटाए ज्ञान की बदौलत हम विकसित राष्ट्र कैसे बन सकते हैं। विकसित राष्ट्र बनने के लिए शिक्षा में सुधार अति आवश्यक है। जो विदेशों में क्षिक्षा ग्रहण करने जाते हैं। वे वापस नहीं लौटते। इससे उस विदेशी शिक्षा की क्या सार्थकता देश के लिए होती है, यह सोचनीय विषय है।foreign education

2 COMMENTS

  1. यह सही है कि कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़कर अधिकतर नव स्थापित इंजीनियरिंग कालेजों में काफी सीटें खाली रह रही हैं.क्योंकि इंजीनियरिंग के प्रति मोह भांग हो रहा है.एक कारण यह भी है कि अधिकांश कालेजों में डिग्री तो मिल जाती है लेकिन स्किल का विकास नहीं हो पाता.इंजीनियरिंग के साथ-२ बेसिक साइंस के पर्याप्त शिक्षक नही बन पा रहे है.क्यों नहीं सम्बंधित संस्थानों को बेसिक साइंस के कोर्स भी चलने कि अनुमति दे दी जाती है?पर्याप्त संख्या में विज्ञानं और गणित के शिक्षक तैयार करने का अभियान चलना चाहिए जिसका उल्लेख और आह्वान पिछले दिनों प्रधान मंत्री जी ने वाराणसी के अपने पिछले दौरे में भी किया था.

  2. पाण्डेयजी मैं स्वयं ४२ वर्षों से विज्ञानं,भौतिक गणित विषय पढ़ा रहा हुँ. प्राचार्य भी रहा हूँ असल मैं इंजीनियरिंग डिग्रियों के गिरते स्तर के पीछे कारन खोजना हो तो उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की और दृष्टिपात करना पड़ेगा. भौतिक ,रसायन विषयों मैं आजकल प्रायोगिक कार्य होते ही नही. यह सर्व ज्ञात है. आप पता करिये शालाओं और महाविद्यालयों मैं प्रयोगशाला सहायक हैं क्या/यदि हैं तो वे कार्यालाओं मैं बाबू है या लेखपाल को मदद कर रहे हैं या छात्रवत्ती बांटने का कार्य कर रहे हैं या वे बोर्ड या विशव विद्यालय की परीक्षा के कार्य कर रहें हैं. निजी शालाओं मैं जितनी छात्र संख्या है उसका अनुपात मैं प्रयोगशाला और विज्ञानं की अधोरचना है क्या?आपको ताज्जूब होगा कई निजी और सरकारी शालों मैं एक कक्षा मैं इतने छत्र हैं की यदि वे किसी दिन सभी उपस्थित रहें तो बैठने की जगह नहीं मिलेगी. दूसरी और ग्रामीण जगहों पर शिक्षक अधिक हैं छात्र हैं ही नही. इतनी विसंगतियां हैं शिक्षा के क्षेत्र मैं की इनसे पर पाना कठिन हैं. मध्यप्रदेश मैं तो १२वीं का पाठ्यक्रम ऐसा है की सीबीएसई का १२ का असफल छात्र इस बोर्ड मैं प्रथम श्रेणी में आ जाय. भौतिक। रसायन ,जीवशास्त्र,गणित मैं ५०-६० पृष्ठों की ऐसी कुंजियां प्रकाशित हैं की वे दवा करतीं हैं की इनमेसे ६०-७०%प्रश्न आयेँगे. और आते भी हैं. अब स्थिति ऐसी है की ”शिक्षा के क्षेत्र मैं जितनी दवा की,मर्ज़ बढ़ता ही गया ”

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