आज़ादी कितनी अधूरी, कितनी पूरी

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स्वतंत्रता दिवस
स्वतंत्रता दिवस
स्वतंत्रता दिवस

हासिल स्वतंत्रता, किसी के लिए भी निस्संदेह एक गर्व करने लायक उपलब्धि होती है और स्वतंत्रता दिवस, स्वतंत्रता दिलाने वालों की कुर्बानी को याद करने व जश्न मनाने का दिन। एक देश के लिए उसका स्वतंत्रता दिवस, स्वतंत्रता के मायने, सपने, लक्ष्य और उसके हासिल का आकलन का भी दिन होता है। यह आकलन न हो, तो उस देश के नागरिक न तो आज़ादी के असल हासिल समझ पायें और न ही आज़ादी के असल लक्ष्य की पूर्ति में अपने हिस्से की भूमिका जान व निभा पायें। यह आकलन ही बताता है कि उस देश की आगे की दिशा क्या हो।
इसके मदद्ेनज़र यह बात तो 15 अगस्त, 1947 को ही सुनिश्चित हो गई थी कि भारत की सत्ता के केन्द्र में अब ब्रितानी नहीं, सिर्फ और सिर्फ भारतीय होंगे। राष्ट्रगीत गाने पर अब कोई कोड़े नहीं मारेगा। भारत भर में हम जहां चाहें, बेरोक-टोक तिरंगा लहरा सकेंगे। हर भारतीय को अभिव्यक्ति की आज़ादी होगी। हर भारतीय, अपना पेशा चुनने को आज़ाद होगा। भारतीय उद्यम और उद्यमी अब किसी विदेशी नकेल के अनुसार चलने को मज़बूर नहीं होंगे। भारतीयों की शिक्षा प्रणाली कैसी हो ? भारत का संविधान कैसा हो ? भारत के विकास का माॅडल क्या हो ? उसके क्रियान्वयन का ज़िम्मा किसका हो ? यह सब तय करने की आज़ादी और ज़िम्मा, दोनो ही अब भारतीयों के हाथों में होंगे। संभवतः आज़ादी के इसी अर्थ को सामने रखते हुए 15 अगस्त, 1947 को भारत का स्वतंत्रता दिवस घोषित किया गया। प्रश्न यह है कि यदि आज़ादी का अर्थ यही है, तो महात्मा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी बाजपेई समेत कई जननेताओं ने 15 अगस्त, 1947 को हासिल आज़ादी को अधूरी क्यों कहा ? भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिस पूरी आज़ादी का इंतजार कर रहा है, वह पूरी आज़ादी है आखिर है क्या ?
29 जनवरी, 1948 को जारी अपनी अंतिम वसीयत में देश के राष्ट्रपिता ने क्यों लिखा कि जब तक भारत के सात लाख गांवों को सामाजिक, आर्थिक और नैतिक आज़ादी नहीं मिल जाती, तब तक भारत की आज़ादी अधूरी है ? अटल बिहारी बाजपेई, खुद सत्ता का हिस्सा रहे। सत्ता प्रमुख के तौर पर देश के प्रधानमंत्री रहे। उन्होने भी आज़ादी का अधूरी बताया। अटल बिहारी बाजपेई ने लिखा – ’’कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं, उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं।… इंसान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है। इस्लाम सिसकियां भरता है, डाॅलर मन में मुस्काता है।… बस इसीलिए तो कहता हूं, आज़ादी अभी अधूरी है। कैसे उल्लास मनाऊं मैं, थोड़े दिन की मजबूरी है।’’ प्रख्यात धाविका पी. टी. ऊषा ने कहा कि अभी वैसी आज़ादी लड़कियों को नहीं मिली है, जैसी मिलनी चाहिए। विश्व चैंपियन निशानेबाज तेजस्विनी सावंत ने टिप्पणी दी – ’’देश को आज़ाद हुए कितने ही साल भले ही हो गये हों, लेकिन लड़कियों के प्रति सोच नहीं बदली है। उसकी पसंद से पहले, उस पर अपनी पसंद थोप देते हैं। कोई कपड़े खरीदे, इससे पहले पिता और भाई अपनी पसंद के कपडे़ उसके सामने रख देते हैं। क्या यही आज़ादी है ?’’ नारी ही नहीं, संप्रदायों व दलितों को भी उनकी आज़ादी की सीमा बताने का दुस्साहस जब तक जारी है, सोचिए कि क्या हम हासिल आज़ादी को पूरी कह सकते हैं ?
पूरी आज़ादी तो वह होती है, जिसके सम्पूर्ण हासिल तक मामूली से मामूली व्यक्ति की भी पहुंच हो। पूरी आज़ादी कभी अकेले नहीं आती, समानता, बंधुता और न्याय को वह अपने साथ लाती है। आइये, आज़ादी के 70वें वर्ष के प्रवेश दिवस पर खड़े होकर स्वयं से यह प्र्रश्न करें कि क्या वर्तमान भारत में सभी को समानता और न्याय हासिल है ? क्या आज सभी भारतीयों के बीच बगैर भेदभाव बंधुता का बोध मौजूद है ? यदि नहीं, तो हासिल आज़ादी को पूरी कैसे कह सकते हैं ?
वर्ष 1909 में महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता की एक अद्भुत परिभाषा बताई – ’’स्वराज का मतलब अपना राज नहीं, बल्कि अपने उपर खुद का राज यानी खुद के उपर खुद का नियंत्रण अर्थात आत्मानुशासन।’’ क्या आज ऐसा है ? क्या भारतीय सत्ता से लेकर जनता तक स्व-अनुशासित हैं ? 1946 में उन्होेने कहा कि जब स्वतंत्रता आयेगी, तो छोटे से छोटा व्यक्ति भी सोचेगा कि इस देश का इतिहास बनाने में मेरा भी कुछ योगदान है। क्या आज हम भारतीय नागरिक अपने लिए कोई भी काम, रास्ता अथवा मंजिल तय करने से पहले इस मानदण्ड को सामने रखते हैं ? असली आज़ादी, निस्संदेह अधिकार से ज्यादा कर्तव्य का एहसास कराती है। यदि हम भारतीय अपने कर्तव्य से ज्यादा, अपने अधिकार की मांग पेश कर रहे हैं, तो इसे क्या कहें ?
पत्र ’हरिजन’ के 24 जुलाई, 1946 अंक में गांधी ने स्पष्ट किया कि आज़ादी का अर्थ हिंदुस्तान के आम लोगों की आज़ादी होना चाहिए.. आज़ादी नीचे से शुरु होनी चाहिए। महात्मा गांधी की दृष्टि में ’स्वराज्य’ का अर्थ था, सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए निरंतर प्रयास करना। क्या यह हुआ ? दुर्योगवश आज़ाद भारत में राजसत्ता कुछ हाथों की बंधक बन गई। जिस उपभोक्तावाद और सत्ता केन्द्रीकरण को पूरी हासिल करने के मार्ग का बाधक माना गया, वही भारत में सबसे अधिक प्रभावकारी औजार बना दिए गये। परिणाम यह हुआ कि भारत की राजसत्ता को तो आज़ादी मिली, लेकिन निर्णय लेने की आज़ादी जनता के हाथों तक कभी नहीं पहुंच सकी।
गांधी जी, गांवों को भारत की रीढ़ मानते थे। ग्राम स्वराज्य और स्वराज… दोनो की दृष्टि से वह गांव समुदाय को सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखना जरूरी समझते थे और इसके लिए पंचायतों को एक औजार की तरह देखते थे। किंतु क्या आज़ाद होने के बाद भारत के गांव, हमारी ग्राम पंचायतें, स्थानीय नगर निकाय, हमारी कृषि, उद्यम, शिक्षा, रोज़गार व कर व्यवस्था के संचालन से लेकर हमारी सार्वजनिक प्राकृतिक संपदा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो पाये ? आगे चलकर जे. पी. ने लिखा कि पंचायतें, ज़िले की नौकरशाही और अंततः राज्य या के प्रादेशिक सरकार द्वारा गांवों को नियंत्रित करने का औजार बन गई हैं। इस बात को 26 जनवरी, 1986 के अपने पंचायती राज सम्मेलन के राजीव गांधी ने ज्यादा बेबाकी से व्यक्त किया – ’’जो निर्णय लेने की ताकत रही, जो डिसीजन मेेकिंग रही, वह या तो प्रशासन के हाथ रही या राज्य सरकारों के हाथों में रही; नीचे किसी के हाथ में पहुंची ही नहीं।’’ बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बीच संसद में यह कहा था कि सत्ता के दलालों के नागपाश को तोड़ने को एक ही तरीका है कि जो जगह उन्होने घेर रखी है, उसे लोकतंात्रिक तरीकों से भरा जाये।…आइये, हम सारी सत्ता जनता को सौंप दें।’’
73वें व 74वें संविधान संशोधन का असल लक्ष्य क्रमशः ग्राम पंचायतों व स्थानीय नगर निकायों को ’सेल्फ गवर्नमेंट’ यानी सबसे छोटी सामुदायिक इकाई की अपनी सरकार का संवैधानिक दर्जा देना था, किंतु राज्य सरकारों ने संशोधन की मूल मंशा को आज तक पूरा नहीं होने दिया। हमारे पंचायती राज संस्थान, राज्य सरकारों के ग्राम्य विकास विभाग तथा बीडीओ, सीडीओ जैसे अधिकारियों के अधीन कार्यरत एक क्रियान्वयन एजेंसी से अधिक कुछ नहीं हो सके हैं। नगर निकाय भी प्रशासकों के अधीन हैं। भारत की निर्णायक सत्ता आज भी कुछ ऊपरी हाथों में ही केन्द्रित है। जो जैसे जिधर चाहते हैं, देश को उस दिशा में मोड़ देते हैं। प्रमाण देखिए कि जिस नरसिम्हाराव के नेतृत्व वाली सरकार ने पंचायतीराज संशोधन विधेयक को सदन में मंजूरी दिलाकर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की नारा बुलंद किया, उसी ने आर्थिक उदारवाद के नाम पर भारत में विदेशी सत्ता के प्रवेश की एक ऐसी खिड़की खोली कि भारत की अर्थव्यवस्था आज देश की बजाय, विदेशों से नियंत्रित होने को मज़बूर दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने पेरिस सम्मेलन में किए वायदे की पूर्ति और दुनिया में सौर मिशन के नेतृत्व के नारे के साथ भारत में सौर ऊर्जा के व्यापक उत्पादन का मंसूबा जाहिर किया, तो विश्व व्यापार संगठन ने आंख दिखाई कि आप जो करने जा रहे हैं, वह विश्व व्यापार संगठन समझौते के खिलाफ है। अपनी सीमा में रहिए। कहो, क्या भारत का आर्थिक सत्ता संचालन, भारत के हाथ में हैं ?
भारत की अर्थव्यवस्था, पारंपरिक रूप से बचत आधारित अर्थव्यवस्था रही है। आर्थिक उदारवाद ने बचत आधारित ईमानदार भारतीय अर्थव्यवस्था को कर्ज आधारित एक उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था में बदलने की साजिश रची। भारतीय रिजर्व बैंक में अक्सर विश्व बैंक की पढ़ाई आये लोग गर्वनर बने। बचत राशि पर ब्याज दर जानबूझकर घटाई गईं। कर्ज बांटने की शर्तें आसान व लुभावने बनाये गये। परिणामस्वरूप, किसान से लेकर खुद हमारी सरकारें तक कर्ज व उपभोग बढ़ाने के चक्रव्यूह में ऐसी फंसी कि आज वे कर्जदाताओं द्वारा संचालित हो रहे हैं। टेंडर की शर्तों से लेकर प्रमुख पदों पर नियुक्तियां तय करने तक में निवेशकों और कर्जदाताओं की मर्जी चल रही है। 25 वर्षोंं के आर्थिक उदारवाद और विेदेशी निवेश के रास्ते आर्थिक गुलामी का इससे प्रमाणिक उदाहरण और क्या हो सकता है कि भारत के भूजल प्रबंधन कानून 2016 का प्रारूप क्या हो ? यह किसी भारतीय संगठन द्वारा नहीं, बल्कि वैश्विक कर्जदाता विश्व बैंक द्वारा तैयार किया गया है।
कहना न होगा कि भारत की अधूरी आज़ादी, पलटकर पूरी आर्थिक गुलामी के रास्ते पर चल निकली है। इस 15 अगस्त पर यह चिंता व चिंतन का भी विषय है और प्रत्येक भारतीय के लिए चुनौती का भी। आइये, सोचें, निर्णय लें और क्रियान्वयन करें; क्योंकि सोच, निर्णय और क्रियान्वयन की आज़ादी हासिल किए बगैर, आज़ादी सचमुच अधूरी ही रहने वाली है।

 

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