पक्षपातपूर्ण अदालती फैसलों की उम्मीद रखना कितना उचित?

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निर्मल रानी
पिछले दिनों 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के कई आरोपियों को अदालत द्वारा सुनाई गई। इन सज़ा पाने वालों में अन्य आरोपियों के विषय में तो शायद देश इतना अधिक परिचित नहीं परंतु इन आरोपियों के साथ ही अवैध रूप से हथियार व गोलाबारूद रखने के मामले में सज़ा पाने वाले फिल्म अभिनेता संजय दत्त के नाम से तो पूरा देश भलीभांति वाकि़फ है। और जब अदालत ने संजय दत्त को भी अवैध रूप से हथियार के मामले में आरोपी बनाते हुए पांच वर्ष की सज़ा सुनाई तो पूरे देश में संजय दत्त को दी गई सज़ा को लेकर अच्छी-खासी बहस छिड़ गई। हालांकि ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि अदालती फैसले खासतौर पर उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले आने के बाद सार्वजनिक रूप से इस प्रकार की चर्चाएं छिड़े जिसमें अदालतों को सलाह देने या उससे फैसले को बदलने की उम्मीदें रखी जाएं। परंतु संजय दत्त के मामले में तो कम से कम ऐसा ही देखने को मिला। मज़े की बात तो यह है कि इस अदालती फैसले पर असंतोष व्यक्त करने वालों व संजय दत्त को माफी दिए जाने की बात करने की शुरुआत करने वालों में पहला नाम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश तथा प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू का था। जस्टिज काटजू ने संजय दत्त को मा$फी दिए जाने की पुरज़ोर वकालत की। उसके पश्चात तो पूरे देश में यह बहस सभी वर्ग में छिड़ी दिखाई दी कि संजय दत्त को अदालत द्वारा माफ किया जाना चाहिए अथवा नहीं?
संजय दत्त के पक्ष में देश के तमाम प्रतिष्ठित लोगों, नेताओं, बुद्धिजीवियों व फिल्म जगत के तमाम लोगों के खड़े होने का जो कारण है वह ज़ाहिर है किसी से छुपा नहीं है। संजय दत्त एक अत्यंत प्रतिष्ठित व सम्मानित फिल्म अभिनेता व केंद्रीय मंत्री रहे सुनील दत्त के पुत्र हैं। उनकी माता नरगिस दत्त भी भारतीय सिनेमा की जानी-मानी अभिनेत्री रही हैं। उनकी बहन प्रिया दत्त भी सांसद हैं। संजय दत्त के अपने व्यक्तिगत रिश्ते भी कांग्रेस व समाजवादी पार्टी तथा शिवसेना सहित लगभग सभी पार्टियों से मधुर हैं। उधर संजय दत्त के पिता सुनील दत्त की असामयिक मृत्यु के पश्चात भी आम लोगों की सहानुभूति संजय दत्त को प्राप्त है। अपने नवयुवक होते संजय दत्त ने कई ऐसे गलत शौक़ भी पाले जिनकी वजह से उन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ी तथा बदनामी का भी सामना करना पड़ा। उनका अपना व्यक्तिगत वैवाहिक जीवन भी सुखमय नहीं रहा। मुंबई में रहते हुए अपनी नौजवानी के दिनों में उनके संबंध अंडरवल्र्ड के लोगों से भी हो गए थे। और इन्हीं संबंधों का परिणाम उन्हें इस सज़ा के रूप में आज भुगतना पड़ रहा है। उपरोक्त सभी परिस्थितियां ऐसी थीं जिनकी वजह से आम लोगों की सहानुभूति, संजय दत्त के साथ जुडऩा स्वाभाविक सी बात थी। उधर संजय दत्त को मुख्य अभिनेता के रूप में लेकर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में गत् वर्षों में मुन्ना भाई एमबीबीएस तथा लगे रहो मुन्ना भाई जैसी फिल्में बनाई गर्इं। इन फिल्मों के द्वारा संजय दत्त की छवि को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया। काफी हद तक फिल्म जगत द्वारा संजय दत्त की छवि उज्जवल करने व जतना के बीच इन्हें लोकप्रिय बनाने का यह प्रयास सफल भी रहा। पूरे देश में संजय दत्त द्वारा लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म में प्रदर्शित की गई उनकी गांधीगिरी की खूब चर्चा हुई। समीक्षकों ने तो यहां तक लिख डाला कि संजय दत्त ने इस फिल्म के माध्यम से गांधी जी व उनके सिद्धांतों को पुन: जीवित कर डाला।
परंतु अदालत ने न तो संजय दत्त की पारिवारिक पृष्ठभूमि को मद्देनज़र रखा, न ही फिल्म जगत में दिए गए उनके किसी योगदान का लिहाज़ किया। न ही उनकी किसी ‘बेचारगी’ का ख्याल किया। इन सबसे अलग हटकर कानून ने अदालत के माध्यम से वही $फैसला सुनाया जिसकी देश की आम जनता उम्मीद करती है यानी ‘सिर्फ न्याय’। हमारे देश का संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार देता है। कानून की नज़रों में भी सभी व्यक्ति समान हैं। ज़ाहिर है इसी सोच के अंतर्गत अदालत ने संजय दत्त को भी अपने पास अवैध व संगीन हथियार व गोला बारूद रखने का दोषी पाए जाने के जुर्म में सज़ा सुनाई। और संजय दत्त को अन्य दोषियों के समान सज़ा सुनाकर माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि कानून की नज़रों में सभी नागरिक एक समान हैं। संजय दत्त के प्रशंसकों तथा उन्हें क्षमादान दिए जाने की वकालत करने वालों के द्वारा यह तर्क दिए जा रहे थे कि उनके सामाजिक जीवन व उनकी फिल्म जगत को दी गई सेवाओं के चलते उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। यहां यह गौरतलब है कि अदालत ने संजय दत्त को सज़ा सुनाते वक्त खुद ही उन्हें दी गई सज़ा में नरमी बरतते हुए यह सज़ा सुनाई है। परंतु अदालत द्वारा संजय दत्त को पूरी तरह माफ कर दिए जाने की बात कहने वालों को ऐसा कहने या ऐसी सलाह देने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि भारतीय न्यायालयों द्वारा दिए जाने वाले सभी फैसले एक रिकॉर्ड के रूप में संकलित किए जाते हैं। तथा इन फैसलों को पूरे देश की अदालतों में अधिवक्तागण समय-समय पर व ज़रूरत पडऩे पर एक नज़ीर के रूप में पेश करते हैं। कानूनी कताबों की श्रंृखला एआईआर में भी ऐसे महत्वपूर्ण फैसले प्रकाशित किए जाते हैं। अदालतों द्वारा दिए जाने वाले फैसलों पर देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की नज़रें भी रहती हैं। लिहाज़ा यदि संजय दत्त के साथ अदालत किसी प्रकार का पक्षपात करती तो इसका देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि पर प्रभाव पडऩे के साथ-साथ भविष्य में होने वाली दूसरी घटनाओं व मुकद्दमों पर आखिर कैसा प्रभाव पड़ता ? इतना ही नहीं बल्कि देश की वह आम जनता जो आज भी इस बात को लेकर संदेह रखती है कि न्याय गरीबों को मिलता भी है अथवा नहीं कम से कम उस वर्ग को तो बिल्कुल ही यह विश्वास हो जाता कि अदालती फैसले पक्षपातपूर्ण होते हैं तथा आरोपियों व अपराधियों के ‘व्यक्तित्व’ पर आधारित होते हैं।
परंतु अदालत ने संजय दत्त के मामले में अपने फैसले के द्वारा ऐसा कोई भी नकारात्मक संदेश भेजने से परहेज़ किया। संजय दत्त कितने ही बड़े अभिनेता, प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य, समाजसेवी, राजनेता अथवा समय के सताए हुए एक सहानुभूति प्राप्त करने के हकदार व्यक्ति क्यों न रहे हों परंतु उनका व्यक्तित्व कम से कम इंदिरा गांधी के मु$काबले में तो कुछ भी नहीं है। देश ने भारतीय न्यायालय के उस कठोर रुख को उस समय भी देखा था जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनारायण द्वारा इंदिरा गांधी के विरुद्ध दायर की गई चुनाव संबंधी एक याचिका के संबंध में अपना निर्णय देते हुए इंदिरा गांधी के विरुद्ध उस समय $फैसला दिया था जबकि वे देश की प्रधानमंत्री थीं। ज़ाहिर है देश में प्रधानमंत्री का पद सर्वोच्च पद है, इंदिरा गांधी का परिवार देश का सबसे प्रसिद्ध,प्रतिष्ठित व सम्मानित परिवार कल भी माना जाता था और आज भी है। इंदिरा गांधी द्वारा देश व दुनिया के लिए किए गए तमाम सामाजिक कार्यों को भी अनेदखा नहीं किया जा सकता। परंतु अदालत ने इन सभी योग्यताओं, उपलब्धियों तथा विशेषताओं को दरकिनार करते हुए एक साधारण नागरिक की ही तरह इंदिरा गांधी के मुकद्दमे की भी सुनवाई की तथा साक्ष्यों के आधार पर उनके विरुद्ध अपना फैसला सुना डाला। हालंाकि इस फैसले का देश की राजनीति पर दीर्घकालीन प्रभाव भी पड़ा। जिसका उल्लेख यहां करना आवश्यक व प्रासंगिक नहीं।
संजय दत्त को सुनाई गई सज़ा के बाद अदालत के फैसले की आलोचना करने अथवा इसे सलाह देने के बजाए सफेदपोश लोगों को विशेषकर सेलेब्रिटिज़,समाजसेवी,राजनेता, उच्चाधिकारी, धर्माधिकारी तथा ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोगों को स्वयं सबक लेना चाहिए तथा उन्हें अपने-आप यह सोचना चाहिए कि चूंकि भावनात्मक रूप से समाज का एक अच्छा-खासा वर्ग उनके साथ जुड़ा रहता है और उन्हें अपना आदर्श व प्रेरणास्रोत मानता है। लिहाज़ा वे खुद ऐसे किसी कार्य में संलिप्त न हों जो उनकी बदनामी व रुसवाई का कारण बने। इसमें कोई शक नहीं कि जब समाज में ‘आईकॅान’ समझे जाने वाले लोग किसी अपराध में शामिल पाए जाते हैं तो उनके समर्थकों व शुभचिंतकों को गहरा धक्का लगता है। और ज़ाहिर है शुभचिंतक व समर्थक होने के नाते यह वर्ग अपने आदर्श व्यक्ति के प्रति पूरी सहानुभूति भी रखता है। ऐसे में निश्चित रूप से वह नहीं चाहता कि उसका आदर्श पुरुष अपमानित हो, गिरफ्तार किया जाए, जेल भेजा जाए या फिर उसे अदालत द्वारा सज़ा सुनाई जाए। इससे बचने के उपाय केवल यही हो सकते हैं कि सेलेब्रिटिज़ अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त व समाज में ‘आईकॅान’ समझे जाने वाले लोग अपने आचरण में सुधार करें तथा अपना जीवन संयमित होकर पूरी नैतिकता के साथ गुज़ारें। परंतु ऐसे लोगों के किसी अपराध में संलिप्त होने के बाद देश की अदालतों से इनके पक्ष में फैसले दिए जाने की उम्मीद रखना तो कतई मुनासिब नहीं है।

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