ऐसा मसलों का हल बताये कोई,
के ग़रीबों को ना सताये कोई।
मुंसिफ़ों तक पहुंच है मुजरिम की,
जुर्म से कैसे बाज़ आये कोई।
ज़ालिमों को सज़ा भी दो ऐसी,
दिल किसी का ना फिर दुखाये कोई।
हाथ दुश्मन का थाम लूं कैसे ,
वो नई चाल चल ना जाये कोई।
जां हथेली पे ले के चलता हूं,
मेरे बदले में मर ना जाये कोई।
बेक़सूरों का सर क़लम देखो,
अब तो क़ातिल का सर भी लाये कोई।
दोस्त तब दोस्त ही नहीं रहता,
करके एहसान जब जताये कोई।
जान देने से मैं नहीं डरता,
डर है तुझ पर ना बात आये कोई।।
नोट- मसलाः समस्या, मुंसिफ़ःजज, सरक़लमः हत्या