कैसे सुलझे ये कठिन पहेली

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seaडा.राज सक्सेना

जब से मैंने अण्डमान यात्रा की है,एक यक्ष-प्रश्न मेरे सम्मुख सदैव

नाचता रहा है | काव्य-शास्त्र में रुचि रख्नने वाला हरएक साहित्यप्रेमी काव्य

की गहराई तक घुसकर छंद,शेर,मुक्तक,गीत या कविता में गहराई तक जाकर

निहितार्थ समझता है या फिर समझने का प्रयास करता है तभी उसे उसमें –

आनन्द आता है या फिर  यूं कहें कि कविता की सम्पूर्णता या उसके किसी

अंश का व्याख्या की कसौटी पर खरा उतरना ही उसके रस या आनन्द   की

सीमायें निर्धारित करता है | किन्तु कभी-कभी अपवाद स्वरूप गलत उदा-

हरण और मानक की ,वस्तुस्थिति से अनभिज्ञता या जानबूझ कर ध्यान न –

देने की प्रवृति अथवा गहनता पर बल न देने से कोई काव्यांश सम्पूर्ण काव्य-

कसौटी पर बिना परखे ख्याति के चरम छूकर अमर हो जाता है | ऐसे ही –

एक सुविख्यात उर्दू(अब तो हिन्दी का भी)शेर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया |

मेरी कसौटी पर शेर आलंकारिक उदाहरण पर कहीं नहीं ठहरता | मैं  कोई –

विद्वान समीक्षक या भाषा विशेषज्ञ नहीं हूं किन्तु कलमकार होने के कारण

मुझे एक शेर में कुछ कमी अखरी है जो मैं विद्वानों की अदालत में रख रहा

हूं कि इस पर विस्तृत चर्चा हो और अगर कोई भ्रम की  स्थिति है तो उसका

समापन हो सके या संज्ञान लिया जा सके | आइये आते हैं उस शेर पर-

हममें से शायद हर एक व्यक्ति ने किसी चौराहे,सड़क या मैदान –

पर किसी मजमे वाले से यह शेर जरूर सुना होगा-

  ‘शोर-ए-दरिया से ये कहता है,समन्दर का सुकूत  ,

        जिसमें जितना जर्फ है,उतना ही वो खामोश है |’

इस शेर में मुझे तीन चीजें सही नहीं लगीं- शोर-ए-दरिया और

समन्दर का सुकूत(सुकून) प्रथम पंक्ति में तथा द्वितीय पंक्ति मे जितना

जर्फ है,वो खामोश है |

ऊपर मैंने अपनी अण्डमान यात्रा का संदर्भ दिया है | अब

मैं उसी सन्दर्भ पर आता हूं | वह एक राजकीय यात्रा थी जो समुद्र को

नजदीक से देखने तथा समुद्री यात्रा का पूर्ण आनन्द लेने के लिये जहाज

से की गई थी | इस यात्रा में समुद्र में आने-जाने की यात्रा में एक –

सप्ताह समुद्र के मध्य रह कर उसे पूरी तरह समझने का मौका मिला |

एक नया अनुभव था | जो इस शेर की व्याख्या की पृष्ठ भूमि बना |

अब से कोई दो माह पहले समुद्र-यात्रा के संस्मरण लिखते

हुए समुद्र की पृकृति को दोहराने पर इस शेर की खामियों पर नजर गई

उपरांकित खामियां महसूस हुईं | आइये संदर्भ लें –

सबसे पहले ‘शोर-ए-दरिया से प्रारम्भ करें | आपने

बड़े-बड़े दरिया (नदियां)देखे होंगे | कितनी भी बड़ी नदी हो उसमें कितनी –

लहरें उठती हों अगर वह पर्वतीय क्षेत्र मे नहीं बह रही है तो उसमे लग-

भग न के बराबर शोर होता है | अपवाद हो सकता है जो मेरी जानकारी

में नहीं है |

अब बात करें ‘समन्दर में सुकूत(सुकून)की | मैंने गोवा छोड़कर

पूरे देश के समुद्रतट देखे हैं | मुझे कहीं भी भारतीय समुद्रतट शांत नजर

नहीं आया | न द्वारिका में,न रामेश्वरम में,न दमण में,न चेन्नैई में और

न हावड़ा में | बेहद शोर लहरों के सर पटकने से होता है जिसे शांति या

सुकून तो हरगिज नहीं कहा जा सकता | यहां भी वही कहना चाहूंगा अप-

वाद हो सकता है जो मेरी जानकारी में नहीं है |

समुद्र को नजदीक से देखने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि

समुद्र कितना अशांत,बेचैन और उन्मत्त होता है | उसकी तुलना किसी

भी दशा में किसी भी शांत वस्तु(दरिया) नदी से करना उचित या न्या-

योचित प्रतीत नहीं होती है |समुद्र के मुकाबले नदी हजार गुना शान्त –

होती है | मान लिया कि काव्य में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग –

कविता का सौन्दर्य द्विगुणित करता है किन्तु यह इस शेर की विडम्बना

है कि इसमे धुर विरोधी उदाहरण का प्रयोग किया गया है जो काव्यशास्त्र

की परम्पराओं के सर्वथा प्रतिकूल है |

इस परिप्रेक्ष्य में इस के प्रतिवाद में मैने एक शेर अर्ज किया

है| अवलोकनार्थ प्रस्तुत है-

 ‘कौन कहता है समन्दर में सुकूत-ओ-चैन है,

       देखिये नजदीक जाकर हद तलक बेचैन है |’

क्या यह शेर इस प्रचलित शेर का सटीक प्रतिवाद करने में सक्षम है?यह

विद्वानों के परीक्षण का बिषय है |

अब आ इये शेर की दूसरी पंक्ति की ओर चलते हैं | समुद्र

को जर्फ ( जिसका शाब्दिक अर्थ बर्तन,सहनशीलता या समा लेने की –

शक्ति होता है ) से जोड़्ते हुए शायर ने बडे व्यक्ति की समा लेने या

सहन कर लेने की शक्ति को बड़ा बताया है |

यह भी हर देखने वाला जानता है कि समुद्र आकार में बड़ा

होने के कारण किसी भी दशा में नीरवता का प्रतीक नहीं हो सकता है |

वह तो स्वंय बदमस्ती की दशा तक उन्मत्त तथा विध्वंसक है |

अपनी सीमा (जर्फ) में पैर तक रख लेने वाले जीव को उखेड़

देने तक के लिये उद्ध्त सागर कितना कर्णभेदी शोर करता है यह

हर भुक्त भोगी अनुभव कर चुका है | जहाज पर यात्रा करने वाले बहुत

अच्छी तरह से जानते हैं कि चलता या खड़ा जहाज या उसमें बैठे  या

खड़े जीव समुद्र की उन्मत्तता और शोर के कारण कितना प्रताड़ित होते

हैं | बिना कुछ पकड़े खड़ा होना या बिना चिल्ला कर बोले आवाज तक

नहीं सुनाई देती है | ऐसे बदमस्त को जर्फ के कारण खामोश घोषित

कर देना कहां का न्याय है | क्या यही काव्य शास्त्र की कसौटी है |

आइये इस सन्दर्भ में मेरा एक शेर देखें-

 ‘कह दिया किसने समन्दर जर्फ से खामोश है ,

          देखिये साहिल पे जाकर,किस कदर मदहोश है |’

यह शेर भी मैं समीक्षकों को समर्पित करता हूं कि वे इस

शेर का भी हर पहलू से परीक्षण करके इसकी कमियों  को  जनसाधा-

रण के सम्मुख रखें |

इस परिप्रेक्ष्य में मैने तो अपना      दृष्टिकोण       सम्मानित

विद्वान समीक्षकों के सम्मुख रखने का दुःसाहस कर दिया है | देखिये

इस प्रकरण में वे क्या व्यवस्था देते हैं |

और चलते-चलते इसी संदर्भ में जर्फ पर एक और शेर

मुलाहिजा फरमाएं-

 ‘अभी से आंख में आंसू,ये कैसा जर्फ है साकी,

          अभी तो दास्तान-ए-गम शुरू भी की नहीं हमने |’

अभी तो यह इब्तिदा है | आगे का सफर अभी बाकी है |

4 COMMENTS

  1. जब आप इतने संवेदनशील हो तो मुझे नही लगता आप को आजकल के गाने सुनकर नीन्द आती होगी ।

  2. डा. सक्सेना जी,
    वेदों में सरस्वती और सिन्धु दोनों नदियों का श्रद्धामय वर्णन है।
    दोनों नदियों की प्रशंस में‌लिखा है कि वे बहुत गर्जन करती हैं, उनकी सहायक नदियां भी गर्जन करती हैं।
    और यह तो सच है कि मैदानी तथा डेल्टा अवस्था में‌नदियां शान्त बहती हैं, केवल वर्षा ऋतु को छोड़कर।
    अर्थात नदियां शान्ति का प्रतीक भी‌हो सकती हैं और शोर का भी।
    समुद्र् भी गर्जन करता है और शान्त भी रहता है। समुद्र की शान्ति के लिये उसके अन्तर की शान्ति ली‌जाती है।
    अर्थात समुद्र भी शान्ति और गर्जन का प्रतीक लिया जा सकता है।
    और समुद्र नदी से तो बहुत बड़ा होता ही है।

    आप दोनों शायरों ने अपने अपने अनुभव तथा अनुभूतियों के अनुकूल नदी तथा समुद्र के प्रतीकात्मक अर्थ लिये हैं और दोनों के शेर सशक्त बन पड़े हैं।बस, आपको प्रेरणा उर्दू शेर् से मिली, और उर्दू का शेर मौलिक है।किन्तु आपकी प्रशंसा इसलिये विशेष कि आपने उर्दू के शेर को, उसके प्रतीकों के अर्थ को बदलकर, सिर के बल खड़ा कर दिया।किन्तु शेर वह भी बहुत बलन्द है।
    मुख्य बात यह है, जिससे आप भी सहमत हैं, कि :
    जिसमें जितना ज़र्फ़ है, वो उतना खामोश है ।
    विश्व मोहन तिवारी।

  3. राज सक्सेना जीने समुंदर सी गहरी बात उठाई है ।

    मैं यह मानता हूं कि राज सक्सेना जी के दोनों शेर बलन्द हैं :

    ’कौन कहता है समन्दर में सुकूत-ओ-चैन है,

    देखिये नजदीक जाकर हद तलक बेचैन है |’
    और
    ’कह दिया किसने समन्दर जर्फ से खामोश है ,

    देखिये साहिल पे जाकर,किस कदर मदहोश है |’

    और उऩ्होंने किस कमाल से उन दो शेरों को सिर के बल खड़ा कर दिया है, प्रशंसनीय है;
    किन्तु वे दोनों शेर फ़िर भी खूब बलन्द हैं, इसलिये कि वे मौलिक हैं।

    यही तो कविता का जादू होता है।

    ’शोर-ए-दरिया से ये कहता है,समन्दर का सुकूत ,

    जिसमें जितना जर्फ है,उतना ही वो खामोश है |’

    इस दरिया को आप पहाड़ी दरिया ही‌ मानें।समन्दर में जो बाहर का शोर है वह बतलाता है कि शोर के रहते हुए भी वह अपने अंदर उतना ही शांत है।शोर के ज़माने में खामोश रहना बड़े ज़र्फ़ की‌ माँग करता है।
    धन्यवाद डा राज सक्सेना जी।
    विश्व मोहन तिवारी

    • आ.तिवारी सर सादर चरण स्पर्श | आपने ही प्रवक्ता से परिचय कराया था |आप मेरे आलेखों को ध्यान से पढ़ते हैं यह भी आप जैसे महा विद्वान् की मुझ पर कृपा है | थोड़े विस्तार से अगर आप मेरे प्रश्नों पर, मेरी शंकाओं के समाधान पर प्रकाश डालने का कष्ट करेंगे तो मुझ अकिंचन पर आप की कृपा होगी और यदि किसी अन्य के मन में भी इस तरह के प्रश्न उठ रहे होंगे तो उसकी शंकाओं का समाधान संभव हो सकेगा |आदर एवं भक्ति सहित | आपका अनुज -राज

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