पीयूष द्विवेदी
आख़िरकार बिहार चुनाव की तारीखों का ऐलान भी हो गया। १२ अक्टूबर से २ नवम्बर तक पांच चरणों में चुनाव कराने की घोषणा चुनाव आयोग द्वारा की गई है। हालांकि तारीखों का ऐलान भले अभी हुआ हो, पर बिहार चुनाव को लेकर देश में राजनीतिक पारा तो पिछले कई महीनों से चढ़ा हुआ है। हर राजनीतिक दल द्वारा मतदाता को साधने के लिए तरह-तरह के समीकरण बनाए जा रहे हैं। बिहार के सत्तारूढ़ दल जेडीयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा विगत जुलाई में ही जनता से जुड़ने के लिए ‘हर घर दस्तक’ जैसे कार्यक्रम का आगाज कर दिया गया। भाजपा प्रधानमंत्री मोदी से कई रैलियाँ करवा चुकी। कांग्रेस भी अब आगामी १९ सितम्बर की रैली के जरिये राहुल गाँधी को चुनावी मैदान में उतारने जा रही है। कहने का अर्थ है कि चुनाव के मद्देनज़र हर तरह से जनता को लुभाने की कवायदें राजनीतिक दलों द्वारा शुरू कर दी गई हैं। चुनाव की बाजी बिछ चुकी है। इस बार की चुनावी लड़ाई की बात करें तो वो लगभग पूरी तरह से द्विपक्षीय है जिसमे कि एक तरफ भाजपा और उसके लोजपा, हम आदि सहयोगी दल हैं तो दूसरी तरफ है बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जेडीयू, लालू प्रसाद यादव की राजद और कांग्रेस इन तीनों दलों के सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर हुए एका से बना जनता परिवार या महागठबंधन। इस महागठबंधन में नीतीश-लालू को सौ-सौ तो कांग्रेस को ४० सीटें दी गई हैं। मुलायम को भी ५ सीटें दी गई थीं, लेकिन सिर्फ ५ सीटें दिए जाने की उपेक्षा से नाराज़ हुए मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी भी बिहार की २४३ सीटों पर अकेले चुनाव में उतर रही है। हालांकि मुलायम का २४३ सीटों पर लड़ने का निर्णय राजनीतिक कम प्रतिष्ठा के प्रश्न वाला अधिक लगता है क्योंकि मुलायम भी ये बात अच्छे से जानते होंगे कि बिहार में उनकी पार्टी का जनाधार न के ही बराबर है। अगर कोई चमत्कार न हो तो संदेह नहीं कि इन २४३ पर लड़ने के बावजूद मुलायम बमुश्किल ही दहाई के आंकड़े में सीटें जीत पाएंगे। लिहाज स्पष्ट है कि बिहार में लड़ाई भाजपा व सहयोगी दल बनाम महागठबंधन है। भाजपा की बात करें तो उसने बिहार चुनाव में फिलहाल सीएम के लिए कोई चेहरा आगे नहीं किया है। उसका चेहरा अभी केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जो कि बिहार के गया, सहरसा, आरा आदि कई जिलों में अबतक न केवल रैलियां कर चुके हैं बल्कि अपनी आरा रैली के दौरान इस चुनावी मौसम में ही बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान भी कर दिए है। इन बातों के जरिये समझा जा सकता है कि भाजपा ने दिल्ली में किरण बेदी को चुनाव पूर्व ही सीएम के रूप में प्रस्तुत करके जो गलती की थी और इसके बदले में हार के रूप में जो खामियाजा उसे भुगतना पड़ा, उससे उसने सबक लिया है। और बिहार में मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ने का इरादा कर लिया है। इसके अतिरिक्त दलितों-पिछड़ों का वोट पूरी तरह से अपने हाथ से न निकल जाए इसलिए भाजपा ने रामबिलास पासवान और बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी को अपने साथ रखा है। हालांकि भाजपा ने अभी अपनी सीटों का ऐलान नहीं किया है, लेकिन भाजपा के सभी सहयोगियों द्वारा इसका निर्णय उसीपर छोड़ दिया गया है। उम्मीद यही है कि भाजपा १७० के आसपास सीटें अपने पास रखे और बाकी बचीं सीटों का सहयोगियों में बंटवारा कर दे। अब जो भी हो, पर इतना तो है कि जिस तरह से एक भाजपा को रोकने के लिए बिहार के लालू-नीतीश जैसे कट्टर विरोधी एक हो गए हैं, उससे साफ़ होता है कि बिहार चुनाव में भाजपा काफी मजबूत स्थिति में है। अन्यथा उसे रोकने के लिए इतनी अधिक कवायदें नहीं होतीं।
अब बात अगर महागठबंधन यानी जनता परिवार की करें तो इसके घटक दलों यानी राजद-जदयू-कांग्रेस की मौजूदा राजनीतिक स्थिति ये है कि राष्ट्रीय राजनीति में इन तीनों दलों का वजूद महज ५० संसदीय सीटों पर सीमित है। हालांकि जदयू और राजद बिहार के सबसे बड़े राजनीतिक दल हैं, लेकिन विगत लोकसभा चुनाव में बिहार में भी इन दोनों को मिलाकर महज ६ सीटें ही हाथ आई। यह कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में अंतर होता है, लेकिन दिक्कत यह भी है कि क्या बिहार की जनता लालू और नितीश जैसे कट्टर विरोधियों का एक साथ होना स्वीकार पाएगी। और नीतीश जो कि ८ साल तक भाजपा के साथ रहकर सरकार चलाए और अब उसी भाजपा को भला-बुरा कह रहे हैं तथा जिस राजद को वे पानी पी-पीकर कोसते थे अब उसीके साथ हो गए हैं, के प्रति जनता में अवसरवादिता का सन्देश क्यों नहीं जाएगा ? साथ ही उनकी सरकार का काम-काज भी पिछले साल भर से बहुत अच्छा नहीं चल रहा। इसके अतिरिक्त मुलायम की समाजवादी पार्टी भी बिहार की लड़ाई में सभी सीटों पर अकेले उतर रहे हैं। अब यदि वे यादव-मुस्लिम मतों में से कुछ को भी अपनी तरफ करने में कामयाब होते हैं तो खुद भले न जीतें, मगर महागठबंधन को नुकसान जरूर पहुंचा सकते हैं। स्पष्ट है कि ये सब बातें महागठबंधन के खिलाफ ही जाती दिख रही हैं। हालांकि राजनीति में पल-पल में समीकरण बदलते हैं, लिहाजा जबतक बिहार चुनाव होकर परिणाम नहीं आ जाते। तबतक सिर्फ अनुमान ही जताए जा सकते हैं, पुख्ता तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।