औद्योगिक नगरों की चिमनी से,
कण कण वायु प्रदूषित होती।
वाहन वायु प्रदूषित करते,
वायु प्रदूषण का विष रिस कर,
निर्जीव फेफड़े कर जायेगा,
कैसै न कैसे जिया जायेगा।
गंगा यमुना भी पवित्र कंहाँ हैं,
घुला रसायन विष इनमे है,
प्रदूषण धरा के नीचे भी है,
कूंओँ का पानी भी विषैला,
अंड़ितयों पर घात केरेगा,
कैसे न कैसे जिया जायेगा।
चिरैयों का संगीत भुलाया
झर झर झरनों की ध्वनि
कोलाहल मे लुप्त हो गई,
कभी लाउडस्पीकर पर भजन-कीर्तन,
कभी डी.जे. की धुन पर थिरकन,
कभी वाहनो की पी पी पों पों,
ध्वनि प्रदूषण का यह स्तर,
कान के पर्दे खा जायेगा,
कैसे न कैसे जिया जायेगा।
बलात्कार मासूमो का हो,
बम विसफोट आतंकवाद हो,
ख़ून जहाँ निर्दोषों का हो
भ्रष्टाचार का मुँह फैला हो,
मन मस्तिष्क प्रदूषित हो,
तब हमसे ना जिया जायेगा।
बीनू भटनागर जी की रचनाओं को पढना यथार्थ को पहचानना है . उनकी
मौजूदा कविता इसकी साक्षी है . इस उम्दा कविता के लिए उन्हें बधाई .
thank u sir.