किस मिट्टी के थे भाखरे साहब

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keshav83 वर्षीय दिनकर केशव भाखरे, राष्ट्रवादी विचारधारा के आदर्श पत्रकार थे। स्वदेशी मन और कर्म ही उनकी पहचान रही। वे अपने परिवार से ज्यादा समाज के लिए जीए। घर में मात्र दो जून की रोटी के लिए ही ठहरते बाकी का समय संघ और उससे जुड़े संगठनों के लिए खपाते रहे। कैंसर परछाई की तरह उनके साथ रहा लेकिन उसने उनमें कभी आत्मदया, कातरता या पराजय बोध नही जगने दिया। आगे पढ़ें :

वरिष्ठ पत्रकार और पं. दीनदयाल उपाध्याय शोध पीठ के अध्यक्ष दिनकर केशव भाखरे (83 वर्ष) के पार्थिव शरीर को अगिन के सुपुर्द करके जब मैं वापस लौट रहा था तो मेरे सखा प्रभात मिश्र ने श्रद्धाँजलि स्वरूप यही शब्द कहे। उनका शरीर मिट्टी का था, उसी में मिल गया। अगिन भी इस शरीर को पाकर तेजोमयी हुई होगी जिसकी आत्मा ने खुद को समाज या देश हित के लिए तिल-तिलकर जलाया। भाखरे साहब किस मिट्टी के बने थे, यह जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि वैसी जीवटता हम सभी में होनी चाहिए जैसा कि उन्होंने जी या दिखाई। गुजरे तीन महीने उनके लिए पीड़ादायक रहे लेकिन समाज के लिए जो किया या संगठन के लिए जोड़ा, दाह-संस्कार स्थल पर उमड़ी भीड़ इसकी गवाह थी। श्रद्धाँजलि देते हुए विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल ने कहा : परिवार से ज्यादा समाज के लिए जिया जाये, भाखरेजी का यही संदेश है।

ईशोपनिषद् ने कहा है : क्रतो स्मर: कृतम् स्मर:। भाखरेजी के जीवन मूल्य उस शिला के थे जिसकी रज, पद को सुशोभित करती है। वे मेहनती, मिलनसार, समय के पाबंद और कार्यकर्ताओं की कद्र करने वाले शख्स थे। उनकी तेज बुद्धि, चारित्रिक शक्ति, संयमित वाणी या अपार धैर्य का कुछ ऐसा असर था कि लोग उनसे जुड़ते चले गए। इस प्रखर आत्मा से मेरा मिलना सन् 1990 के आसपास हुआ तब वे राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ स्वदेश और युगधर्म जैसे अखबारों को पुष्पित-पल्लवित करने में लगे थे। एक सीनियर के तौर पर मेरे लिए सबक था कि विचारधारा और पत्रकारिता के टकराव से बचना। हालांकि बाजारी ताकतें यह संभव नहीं होने दे रहीें।

औरों के मुकाबले मेरे ऊपर भाखरेजी की कृपा दृष्टि ना के बराबर ही पड़ी लेकिन इसके उलट मेरे मन में उनके लिए हमेशा सम्मान बना रहा। मैं उनके दम गुर्दे का घनघोर प्रशंसक हूं। वे मुझे विलक्षण संयम और वस्तुनिष्ठ तटस्थता वाले व्यक्ति लगे। समयकाल अनुरूप रिश्तों पर जो बर्फ जम जाती थी, उसे पिघलाने में वे माहिर थे। स्वदेशी आंदोलन के साथ जुड़े तो मात्र दिखावे के लिए नहीं वरन् स्वदेशी उनके कर्तत्व में रच-बस गया था। भाखरे जी के साथ कैंसर परछाई की तरह साथ रहा लेकिन आत्मबल और गौमूत्र चिकित्सा के भरोसे वे उसे मात देते रहे। और यह शारीरिक अवस्था उनमें कभी आत्मदया, कातरता या पराजय बोध नही जगा सकी। उन्होंने एक प्रचारक सा जीवन जिया। सालों तक आरएसएस के संघ शिक्षा वर्ग में तृतीय वर्ष के स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देते रहे। घर में मात्र दो जून की रोटी के लिए ही ठहरते बाकी का समय संघ और उससे जुड़े संगठनों के लिए खपाते रहे।

उनका व्यक्तित्व तुलसीदास के शब्दों में विसद-गुनमयफल जैसा है। उन्होंने पत्रकारिता का इस्तेमाल अपना घर-बार भरने, राजनीति करने या सत्ता में भागीदारी करने के लिए नही किया अन्यथा बारह साल की पत्रकारिता में मैंने कई श्लाघा-पुरूषों को समय-काल अनुरूप सत्ता की जुगाली करते देखा है। ताउम्र किसी विचारधारा के प्रति समर्पित होना अपने आप में एक चुनौती होता है। कुटिल राजनीति, पूंजीवादी पत्रकारिता और आयातित विचारधारा से ग्रस्त समय की मार के कई थपेड़े उन्होंने सहे लेकिन विचलित हुए बिना आगे बढ़ते रहे। सुना है कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने खुद यह कहकर कि-भाखरेजी के लिए कुछ करना है-उन्हें दीनदयाल शोध पीठ का अध्यक्ष बनाया। महज ऑबलाइज करने के लिहाज से सरकार ने तीन-चार शोध-पीठ जरूर बनाई हैं लेकिन उसे सुशोभित कर रहे महानुभावों ने अपनी आत्मकथा लिखने के सिवाय कुछ नहीं किया मगर भाखरेजी इनसे जुदा थे।

वैचारिक प्रतिबद्धता कह लें या एक पत्रकार का समाज को कुछ देकर जाने का जुनून, दीनदयाल उपाध्याय शोधपीठ में रहकर जितना संभव हो सका, भाखरे जी ने किया। स्वामी विवेकानंद शाद्र्धशती समारोह हो या दीनदयाल उपाध्याय की जयंती, उन्होंने दोनों ही आंदोलनों की कमान संभाले रखी और उसे सार्थक मुकाम तक पहुंचाया। स्वेदशी मेला और स्वदेशी भवन जैसी बुलंद इबारतें, उन्हीं की प्रयोगधर्मिता का परिणाम हैं। दिनकर कभी मरा नहीं करते। भाखरेजी ने आदर्श जीवन जीने की जो पगडंडी हमें दिखाई है, वह अमूल्य धरोहर है, सुपुत्र दिगिवजय के अंश में वे हमारे बीच हमेशा बने रहेंगे। विनम्र श्रद्धाँजलि..!

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