स्वाभिमान, जिसे भारतीय बैंक संघ सुनहरे कल का अभियान बना कर 2000 से अधिक जनसख्या वाले सभी 73000 बैंक रहित गांवो में बैंकिग सुविधाये पहुॅचाने का दावा कर रहा है। बैक संघ के अधिकारी जो भात प्रतित सामाजिक और ग्रामीण जनजीवन से अनभिज्ञ है भले ही सरकार से वाही वाही लूट ले पर ग्रामीणों के लिये ऐसी मुसीबत के बीज बो रहे हैं जिससे निजात पाना उनके लिये मुकिल होगा। बैंको का दावा है कि गॉव में ये सुविधा बैक साथी के माध्यम से देगें।लगता है सरकार और बैंक, भारत के गॉव गॉव में फैले दलालों के कारनामों से अन्जान है जो पोस्टकार्ड लिखने से मनीआर्डर तक में दलाली खाते है, विधवाओं, विकलांगो और वृद्घो की पोंन तक में बंदरबाट करलेते है वे गॉव में बैंकिग व्यवस्था को कैसे बेदाग छोड सकेंगे, अथवा जान बूझ कर कबूतर को बिल्ली के हाथों सौंप रहे है। जबसे आर्थिेक उदारवाद और बाजारवाद का दौर आया है और दो जननेताओं के बदले बैंक अधिकारियों के हवाले हो गया है। प्रधानमंत्री जैसा पद जो जनता की समझ रखने वाले नेताओं के लिये होना चाहिये उस पर बैंक के रिटायर्ड नौकराह विद्यमान है, योजना आयोग के अध्यक्ष जिनकी समझ समाज की अंतिम पंक्ति पर पडे दरिद्रनारायण पर होनी चाहिये,जो विव बैंक के पुराने नौकराह रहे हैं, केन्द्र राज्य सम्बन्धो सकल घरेलू उत्पाद, जी0डी0पी0 जैसी परिभाशाओं में दो की जनता को उलझाये हुए हैं, हद तो तब हो गई जब यू0पी0ए0 की चैयरपर्सन माननीया सोनिया गॉधी की भोजन की गांरटी योजना को रिजर्व बैंक के भूतपूर्व गवर्नर रंगराजन की कमेटी ने नकार दिया। लगता है भारत दो नहीं रिजर्व बैंक के अफसरों का दफतर बन कर रह गया है। किसी जमाने में बैंक समाज के सबसे सम्मानित और रूतबे वाले दफतर होते थे वे आज बैंक कर्मचारियों की दुर्गति का सामान बने हुए है, बैंक कर्मचारी निरीह बन कर रह गये है। दुनिया में एकमात्र बैंक ही ऐसी संस्था है जहॉ प्रत्येक काम ग्राहक के आदो पर या अफसरों के निर्दो पर होते हैं, वहॉ कोई निवेदन करने वाला नहीं है इसी मानसिकता के चलते ग्रामीण क्षेत्र की बैंको में तो आये दिन गाली गलौच और िकायतबाजी की घटनायें आम है। इसके लिये जहॉ बैंको के प्रबन्धन दोशी हैं उससे ज्यादा सरकार का दबाव काम करता है। जो बैंक कर्मियों के प्रति अपमानजनक व्यवहार का जनक होता है बैंको पर काम के बोझ की हालत का अंदाजा आप इसी से लगा सकते है कि रिजर्व बैंक आफ इंडिया जो बैंको के कानूनो का नियमन करता है उसने बैंको में काम के कम से कम चार घण्टे निर्धारित कर रखें है, इससे अधिक समय तक बैंक अपने ग्राहको को सेवा देना चाहता है तो उसे दूसरी पारी भाुरू करनी होती है, इसी के साथ साथ गोपोरिया कमेटी ने बैंको को इस चार घण्टे के निर्धारित समय के बाद नान कौ ट्राजकन करने की सिफारि की थी इसी के साथ बैंक कर्मचारियों की यूनियनों और भारतीय बैंक संघ ने किसी तथाकथित बाइपरटाइट में बैंको का कार्यसमय आधा घण्टे बाने की बात तय की थी लेकिन इससे अलग आज पूरे भारत में बैंक के कर्मचारियों को सुबह दस बजे से भाम के चार बजे तक ग्राहको की सेवा करने को बाध्य होना पड रहा है। किसी सरकारी या सहकारी बैंक को कर्मचारी मना करे भी तो कैसे अनेको बैंको ने तो मार्निग 8 से इवनिंग 8 तक के बोर्ड टांग रखें है।यूनियनों के कामरेड साल भर में एक बार ’संसद मार्च’ की काल या एक दिन की स्ट्रइक करवा कर सारे साल पॉच सितारो होटलो और हवाई यात्राओं क ेमजे लेते हैं।निर्धारित काम के घण्टे’ जैसे यूनियनों के स्लोगन बीते जमाने की बात बन कर रह गये है। विभिन्न सर्वेक्षण बताते है कि बैंक के सबसे बडे ग्राहक उसके कर्मचारी होते है जो हर महीने अपने वेतन को 75 प्रतित तक अपने कर्जो के बदले कटवाते हैं अब ऐसे में कल्पना करें कि उसका गुजारा कितना दुश्कर होगा। फिर भी आज तक बैंको में बेइमानी और रिवतखोरी जैसी बुराइया सिर्फ उॅचे ओहदो तक ही है निचले पायदान आज भी साफ सुथरे हैं या यूॅ कह सकते हैकि गुलाम वृत्ति के कारण बैंक के कर्मचारी भ्रश्टाचार की हिम्मत नहीं कर पाते और अपने बे काम के बोझ को इमानदारी का रिवार्ड बता कर संतोशकरने के प्रयास करते हैं। सरकार ग्रामीणों को बेहतर सेवा दे ये तो काबिले तारीफ है पर उसके घर जाकर सेवा करें ये दास वृत्ति है।ऐसे अभियान नागरिकों में स्वाभिमान नहीं अहंकार को बाने वाले ही हो सकते हैं आज दो में बैंको की साख गोपनीयता और धन की सुरक्षा के कारण है और जब ये ही आम हो जायेगा तो स्वाभिमान जैसे अभियान अंततः दो की बैंकिग व्यवस्था को ठप्प करने का माध्यम होंगे। बैको के महासंघ को सरकार के किसान मित्र, स्वास्थय सहायक, जैसी योजना की विफलताओं से कुछ तो सीखना चाहिये ।
– अनिल त्यागी,
बिजनौर उ0प्र0