नेपाल में मानवाधिकार व नियम-कानून को किनारे कर किया जा रहा दमन

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nepalनिर्भय कर्ण

मधेशी व थारू आंदोलन का एक महीना पूरा होने वाला है और जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है वैसे-वैसे आंदोलन थमने के बजाय उग्र रूप ही लेती जा रही है। इसके पीछे हकीकत यह है कि सत्ता पक्ष आंदोलनकारी की मांगों को सहज स्वीकारने के पक्ष में नहीं है। सूत्रों की मानें तो सरकार सभी देशों को यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि यह उनका आंतरिक मामला है। इसे हम खुद सुलझा लेंगे। इस बीच सरकार ने आंदोलनकारी नेताओं से बार-बार वार्ता में आने की अपील की है तो दूसरी तरफ जगह-जगह सेना की तैनाती की जा रही है। जिससे पुलिस व प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पों की घटना में वृद्धि हुयी है। बीते 24 दिनों के आंदोलन में भिन्न-भिन्न जगहों से आए खबरों के मुताबिक, अब तक 24 लोगों की मृत्यु हो चुकी है और लगभग 400 लोग घायल हो चुके हैं। जबकि प्रहरी प्रधान कार्यालय के अनुसार 15 आंदोलनकारी, 8 प्रहरी और एक नाबालिग की मृत्यु हुयी है। ये आंकड़े दिनोंदिन भयावह ही होती जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर नेपाल सरकार किस तरह से इन आंदोलनों से निपटेगी, क्या मानवाधिकारों व नियम-कानूनों को ताक पर रखकर? टीकापुर की घटना चूंकि मीडिया में कम आयी लेकिन सोषल वेबसाइट के जरिए वहां की जो भयावह तस्वीरें आयी, वह पुलिस सहित सरकार की नीयत पर सवाल खड़ी करती है। नाबालिगों, महिलाओं को मारना-पीटना, महिलाओं के साथ बलात्कार, घर जलाने जैसे कुकृत्य से साफ हो जाता है कि आंदोलन के दौरान प्रशासन सभी नियम-कानूनों, मानवाधिकार आदि को किनारे करके और लोगों के बीच डर, खौफ आदि पैदा करके किसी भी प्रकार आंदोलन की दषा व दिषा को ही बिगाड़ दिया जाए। चूंकि टीकापुर की घटना के लिए आयोग का गठन कर दिया गया है जो विभिन्न पहलुओं की जांच करेगी जिसमें पुलिस को जला देने की घटना भी षामिल है। अब तक के परिदृश्य से यही साबित होता है कि नेपाल सरकार आंदोलकारियों से सख्ती से ही पेश आने वाली है जिससे कि किसी भी प्रकार आंदोलन को कुचल दिया जाए। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। यही सब वजह है कि मधेशी व थारू दलों के नेता वार्ता में जाने से इंकार कर रहे हैं और आंदोलन और भी तेज होती जा रही है। जगह-जगह कर्फ्यू लगाया जा रहा है। मधेशी व थारू नेताओं का साफ कहना है कि सबसे पहले सेना को वापस बुला लिया जाए। अपनी दमनकारी नीति को सरकार बंद करे तभी जाकर वार्ता की जा सकती है। एक तरफ दमन और दूसरी तरफ वार्ता करना कहां तक जायज है? इंसानियत के आधार पर भी यह कभी सही करार नहीं दिया जा सकता कि एक तरफ तो आप वार्ता करो और दूसरी तरफ आंदोलनकारियों का दमन करते रहो। यही सब वजह है कि आंदोलन ने अपना उग्र रूप अख्तियार कर लिया है। दूसरी तरफ आंदोलन से आम जनता का जीना मुहाल हो रहा है। सारा काम-काज ठप्प है। जरूरी चीजों के सामानों की कीमत आसमान छूने लगी है। गरीबों को यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कैसे हो। और जल्द से जल्द सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हो जाए जिससे कि आम जनता को अपना अधिकार भी हासिल हो जाए और जनजीवन सामान्य हो जाए। यदि यह आंदोलन और अधिक दिनों तक चला तो यह तय है कि हालात और भी बद से बदतर हो सकती है। इसलिए सभी को बस यही इंतजार है कि किसी प्रकार सरकार बात मान लें और संविधान में सभी की बातों को समाहित कर लिया जाए। सरकार को समझना चाहिए कि दमनकारी नीति से जनता कभी शांत नहीं होती बल्कि और भी आक्रोशित हो जाती है। इसलिए अपनी दमनकारी नीति को छोड़कर असंतुष्ट दलों की बात मानकर संविधान में उनकी बातों का उल्लेख किया जाए।

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