संस्मरण-२ : मानवता अभी मरी नहीं है / विपिन किशोर सिन्हा

एक दिन बाद जिला प्रशासन सक्रिय हुआ। कुछ राहत सामग्री उन्हें दी गई। बचे लोगों को गांव के स्कूल में रखा गया। एक सप्ताह भी नहीं बीता होगा, इस घटना के, कि शहर से एक पढ़ी-लिखी महिला पीड़ितों से मिलने आई। उसकी दृष्टि आशा पर पड़ी। उसने बड़े प्रेम से उसे चाकलेट दिया, बिस्कुट खिलाया और वात्सल्य की वर्षा की। गांव के मुखिया से आशा को उसे देने का आग्रह किया। स्वयं को समाज-सेविका बता रही थी वह। उसने आशा को अपने घर में रखने, पढ़ाने-लिखाने और समय आने पर शादी करने की जिम्मेदारी उठाने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया। पिता की मृत्यु के बाद वह अनाथ हो गई थी। मुखिया के साथ समाज-सेविका के साथ रहने की उसने भी हामी भर दी। समाज सेविका उसे लेकर शहर चली गई। एक सप्ताह तक उसने बड़े प्यार से उसे रखा – अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाए, अच्छा भोजन दिया और प्यार भरी बातों से उसका दिल जीत लिया। उसने बताया कि इस उम्र में छोटे बच्चों के साथ स्कूल में बैठकर क,ख,ग,घ… सीखना उसके लिए कठिन होगा। अतः उसे डान्स का प्रशिक्षण लेना चाहिए। आशा ने भी हामी भर दी। अगले ही दिन उसके लंबे बाल काट दिए गए और उसे एक ‘माडर्न लूक’ दिया गया। फिल्म के चलताऊ सेक्सी गानों पर उसका प्रशिक्षण शुरु हुआ जो तीन महीने में पूरा भी हो गया। अब वह शहर के बाहर विभिन्न आर्केस्ट्रा पार्टियों में डान्स के लिए भेजी जाने लगी। आशा ने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा काम भी करने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा। उसने मुक्ति पाने की ठान ली। एक दिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद किसी तरह वह आर्केस्ट्रा पार्टी के चंगुल से भाग निकली। पैदल ही दौड़ते हुए, रात के अन्तिम प्रहर वह हाज़ीपुर रेलवे स्टेशन पहुंची। सामने एक ट्रेन खड़ी थी। बिना कुछ सोचे-विचारे वह ट्रेन में बैठ गई। इस तरह वह कानपुर पहुंची।

मुहम्मद हुसेन बड़े ध्यान से आशा की बातें सुन रहा था। उसने जैसे ही अपनी बात समाप्त की, हुसेन की आंखें जल बरसाने लगीं। वह लगातार रोए जा रहा था। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे चुप कराया। रुमाल से उसने अपनी आंखें पोंछी। पांच मिनट बाद वह सामान्य हो पाया, फिर मेरे सामने बैठ उसने कहना शुरु किया –

“मेरे नाम से आपको पता लग ही गया होगा कि मैं मुसलमान हूं। जी, हां, मैं मुसलमान ही हूं जिसे पूरी दुनिया में आतंकावाद फैलाने के लिए आजकल जिम्मेदार ठहराया जाता है। मुसलमान शब्द से गैरमुस्लिमों में आम धारणा है कि मुसलमान संगदिल, कट्टर, असहिष्णु और हिंसक होता है। आप भी सोच रहे होंगे कि यह मुसलमान इस हिन्दू लड़की के लिए क्यों रो रहा है? मैं भी सबके सामने इस तरह आंसू बहाना नहीं चाह रहा हूं। लेकिन अपनी आंखों और दिल का मैं क्या इलाज़ करूं? इस लड़की में मुझे अपनी लड़की की सूरत नज़र आ रही है। एक बाप न हिन्दू होता है, न मुसलमान। बेटी भी न हिन्दू होती है, न मुसलमान। एक मुसलमान बाप भी शादी के बाद अपनी बेटी को रुखसत करते समय उसी तरह बिलख-बिलखकर रोता है, जैसे एक हिन्दू बाप अपनी बेटी की विदाई पर। आपको पता है, दुबई में हिन्दुस्तानी मुसलमानों को वहां के मुसलमान क्या कहते हैं? ‘हिन्दवी’। वहां मस्ज़िद में हमें नमाज़ पढ़ने की मनाही तो नहीं है, लेकिन बैठाया अलग जाता है – हिंदवी होने के कारण। शायद वे हमें अशुद्ध मुसलमान मानते हैं। मैं बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं। मौका भी नहीं मिला, कोशिश भी नहीं की। जाति का जुलाहा हूं। वही जुलाहा हूं जो पढ़-लिख जाने पर अंसारी बन जाता है। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए हाई स्कूल के बाद कपड़ा बुनने के काम में करघे पर बाप का साथ देने लगा। लेकिन ज़नाब, आजकल मिल के कपड़ों के आगे हैन्डलूम के कपड़ों को पूछता ही कौन है? रेमण्ड, विमल, सियाराम, दिग्जाम से गांव के जुलाहे कब तक मुकाबला कर सकते हैं। घर में भुखमरी की स्थिति आने लगी। कुछ नया करने और सीखने के लिए मैंने कलकत्ता की ट्रेन पकड़ी। वहां एल फ़ैक्ट्री में मेरे गांव के कुछ लोग काम करते थे। वहां मुझे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। एक फीटर के सहायक की नौकरी मिल गई। मैंने मन लगाकर फीटर का काम सीखा। पांच साल तक मैंने वहां काम किया। कलकत्ता आने के पहले मुझे एक बेटी हुई थी। जिस समय मैं कलकत्ता के लिए रवाना हुआ, उस समय वह तीन साल की थी। हमेशा मेरे पास ही रहती थी। मैं उसे अपने हाथों से खाना खिलाता था। उसे कंधे पर बिठाकर पूरे गांव का चक्कर लगाता था। जब भी माल बेचने शहर जाता था, उसके लिए केला, सन्तरा और चाकलेट लाता था। मेरे और मेरी बीवी के बीच में वह सोती थी, लेकिन मुझसे ही चिपक कर। अपनी मां की ओर हमेशा उसकी पीठ ही रहती थी। लेकिन उसके बचपन का आनन्द मैं सिर्फ़ तीन साल तक ही ले सका। रोटी की तलाश में पहले कलकत्ता पहुंचा, फ़िर दुबई। आज घर जा रहा हूं। कुछ ही घंटे बाद आज मैं उससे मिलूंगा। जानते हैं ज़नाब, मैं अपनी बेटी से कितनी मुहब्बत करता हूं? उतनी ही जितनी राजा जनक अपनी बेटी सीता से और राजा द्रुपद अपनी बेटी द्रौपदी से करते थे।

मुझे घोर आश्चर्य हुआ। पांचो वक्त का एक नमाज़ी मुसलमान राजा जनक, सीता, द्रुपद और द्रौपदी का उदाहरण दे रहा था। मैंने उससे पूछा –

“आप राजा जनक, सीता, द्रौपदी की कहानी जानते हैं?”

” जी हां। मैं अच्छी तरह जानता हूं। मैंने कुरान भी पढ़ी है, रामायण भी पढ़ी है, महाभारत भी पढ़ी है।”

” लेकिन आप तो मुसलमान हैं, फिर ये हिन्दू धर्म-ग्रन्थ कैसे पढ़े?”

” जी हां। मैं एक मुसलमान हूं, हिन्दवी मुसलमान। मेरे पुरखे मंगोलिया या अरब से नहीं आए थे। यहीं के थे। इसी धरती के थे। बहुत से पढ़े-लिखे मुसलमानों ने अपने खानदान का इतिहास अपने पास रखा है। सबके परदादा के परदादा हिन्दू ही थे। मैं गरीब जुलाहा परिवार का हूं। मेरे पास अपने खानदान का कोई इतिहास नहीं है। मुझे अपने परदादा का नाम भी मालूम नहीं है। लेकिन इतना मैं विश्वास के साथ कहता हूं कि मेरे परदादा के परदादा का नाम निश्चित रूप से राम सेवक या राम टहल रहा होगा। हमारे आपके रगों में एक ही पूर्वज का खून दौड़ रहा है। जिस दिन मुझे इस सच्चाई का पता लगा, मैंने रामायण पढ़ना शुरु किया, फिर महाभारत पढ़ी। मेरे मन में इस्लाम और हिन्दू धर्म, दोनों के लिए समान आदर का भाव है। मैं आजकल नियमित रूप से टीवी पर ‘द्वारिकाधीश’ सिरियल देखता हूं। उसके एक-एक शब्द की कीमत करोड़ों रुपए है। ज़नाब, दुबई में रहकर मैंने बहुत पैसे कमाए हैं। गांव में अब मकान भी पक्का हो गया है। लेकिन गंवाया भी बहुत कुछ है। मैं आज घर लौट रहा हूं। भाटपार रानी के पास ही मेरा गांव है। बारह बजे तक मैं अपने घर पहुंच जाऊंगा। लेकिन मेरी बेटी क्या दौड़कर मेरे गले लग पाएगी? वह दूर से ही सलाम करेगी। क्या वह मेर कंधों पर बैठकर गांव के चक्कर लगा पाएगी, मेरे साथ मेरे गले में बांहें डालकर क्या वह सो पाएगी? बचपन में मैं अपने हाथ से सन्तरे की फांकों से बीज निकालकर उसे खिलाता था। क्या मैं अब ऐसा कर पाऊंगा। धन कमाने की मज़बूरी ने मुझसे और मेरी बेटी से वो दिन छीन लिए जो कभी वापस नहीं आ सकते। वे सुख छीन लिए जो अब कभी नहीं मिल सकता। कोई भी दौलत इसकी भरपाई नहीं कर सकती। इस लड़की को देखकर मेरी आंखों से आंसू इसीलिए गिरे थे। खैर छोड़िए ज़नाब, अब मैं अपनी रामकहानी और नहीं सुनाऊंगा। आधे घंटे के बाद भटनी आएगी और उसके आधे घंटे के बाद भाटपार रानी। फिर मैं आपलोगों से ज़ुदा हो जाऊंगा। उसके पहले मैं चाहता हूं कि इस लड़की के इसके घर सुरक्षित पहुंचाने का पुख्ता बन्दोबस्त हो जाय।”

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  1. विपिन किशोर सिन्हा जी, सर्व प्रथम तो इस मार्मिक संस्मरण को अपने पाठकों के समक्ष लाने के लिए मेरी बधाई स्वीकार कीजिये.प्रेमचंद द्वारा लिखी एक कहानी के शब्द इस्तेमाल करूँ तो ,यह कहूंगा कि भारत के वर्तमान अंधियारे के बीच यह जुगनू की चमक है,पर यही जुगनू की चमक मानवता को जीवित रखे हुए है और हमें असल में मानव कहलाने का अधिकारी बनाती है.आशा के मार्ग में अभी भी बहुत कठिनाईयां हैं.पता नहीं उन कठिनाईयों के बीच वह अपने अस्तित्व को बचा पाती है या मिट जाती है,पर उसकी अब तक की कहानी भी हमारे लिए प्रेरणा स्रोत अवश्य रहेगी.

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