मानवता का होना जरूरी

डॉ. दीपक आचार्य

मनुष्य शरीर ही काफी नहीं

मानवता का होना जरूरी है

दुनिया भर में जनसंख्या विस्फोट का दौर निरन्तर जारी है। हजारों-लाखों रोज पैदा हो रहे हैं। हमारे यहाँ भी खूब पैदा होते रहे हैं, हो रहे हैं और होंगे। लेकिन हाल के वर्षों में समाज की जो स्थिति सामने दिख रही है वह बड़ी भयानक और दुर्भाग्यजनक है।

मनुष्य का शरीर तो लाखों पा रहे हैं और पाते रहेंगे लेकिन इनमें कितने वाकई मनुष्यता को गौरवान्वित कर पाते हैं यह बड़ी बात है। मानवीय मूल्यों और नैतिक चरित्र, सदाचार तथा मनुष्यत्व से परिपूर्ण लोगों की स्वाभाविक कमी होने लगी है जो पूरी मानवता के लिए खतरा ही नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रपुरुष के अस्तित्व के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती है।

मूल्यों के निरन्तर ह्रास और मानवीय गरिमा के पतन से भरे मौजूदा दौर में आदमी पशुता के सारे लक्षणों को आत्मसात कर चुका है और ऎसे में मानवीय दुर्बलताओं, कुटिलताओं तथा अंधे स्वार्थों के मेल ने मनुष्यों को पशुओं और दैत्यों से भी बुरी स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया है।

सामाजिक मूल्य दम तोड़ने लगे हैं वहीं कौटुम्बिक समरसता और सामूहिक सोच के साथ आगे बढ़ने के सारे मिथक धराशायी हो चलें हैं, आदमी में आदमीयत नहीं रही और परिवारों में पारिवारिक स्वस्थ माहौल।

समुदाय में मानवीय मूल्यों को जहर दे देकर मार डालने वाले ऎसे-ऎसे लोगों का जमावड़ा हो चला है जो न शक्ल से मनुष्य लगते हैं, न अक्ल से। इनके करमों और हरकतों की ही तरह इनका पूरा जिस्म भी ऎसी विचित्र बॉड़ी लैंग्वेज से भरा हुआ होता है जिसमें कभी पशुओं की, कभी दैत्यों की और कभी पिशाचों की छवि रह रहकर उभरती दिखाई देती है। इनकी चाल और चलन दोनों से साफ झलकने लगता है कि ये न पूर्ण मनुष्य हैं, न दैत्य या पशु। इनकी करतूतें ऎसी कि इनके पूर्वज भी खुद को लज्जित महसूस करते होंगे।

इनकी हरकतें और हथकण्डे भी ऎसे कि जैसे लगता है हमेशा लूट खाने की मनोवृत्ति रखते हुए लोगों को काट खाने को दौड़ते रहते हैं। ईश्वर ने इन लोगों को भले ही तेज धारदार नाखून, हड्डियाँ तक चूर्ण बना देने वाले दाँत, सिंग और पूँछ आदि नहीं दिए हैं मगर इनके बगैर भी ये लोग वे सारे करम कर डालने में माहिर हुआ करते हैं जो चौपाये करते रहते हैं।

दिल, दिमाग और संवेदनाओं से हीन ऎसे-ऎसे लोग हमारे इलाकों में विचरण कर रहे हैं जिनका मनुष्यता से कभी कोई वास्ता रहा ही नहीं। इन्हें देख कर ही साफ झलकने लगता है कि ईश्वर की फैक्ट्री में इन्हें बनाते वक्त पशुओं के अवयवों की कोई कमी रह गई होगी तभी ईश्वरीय विवशता का ये स्वरूप नज़र आने लगा हं।

मनुष्य का शरीर पाने वाले किन्तु मनुष्यता से हीन लोग आम भी हो सकते हैं और खास भी। बड़े-बड़े कर्णधारों से लेकर विभिन्न मार्काओं के अफसरों और पूंजीपतियों से लेकर छोटे-मोटे धंधेबाजों तक में ऎसे लोग विद्यमान हैं जिनमें न मानवीय संवेदनाएं बची हैं न मानवता। विड़म्नाजनक पहलू यह है कि जनसमुदाय के बीच रहने के बावजूद ये अपने को किसी और ग्रह का मानकर बर्ताव करते हैं और आम मनुष्यों को हीन समझते रहते हैं।

सच कहा जाए तो ये लोग पेटियों और भण्डारियों के रूप में अपने आपको स्थापित कर चले हैं जहां इनका एकमेव मकसद अपने हक में जमा करना और चाहे जहां से मिले, अपनी ओर खिंच लेना ही रह गया है।

आजकल तो ऎसे कई-कई धंधे निकल आए हैं जिनमें न मेहनत का झमेला है न बुद्धि या कौशल का। सिर्फ दिमाग चलाकर षड़यंत्रों के सहारे ही सारे जहाँ का माल अपनी ओर खिंच लेने के ढेरों रास्ते निकल आए हैं।

अपने आस-पास इस किस्म के लोगों का जमघट दिखने लगा है जो बिना कोई मेहनत किए-धराए हराम की कमाई करने के आदी हो गए हैं, हर पराये माल को अपना समझने वाले ये लोग कुर्सी या गद्दी नशीन भी हो सकते हैं और सड़कों-चौराहों व सर्कलों में भटकने वाले छुटभैये भी। दुम हिलाने वाले भी और थूँथन से आकाओं को सहलाने वाले भी।

इन तमाम हालातों को देख कर यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि मनुष्य होना अलग बात है और लोकप्रिय या बड़ा होना दूजी। कोई भी बड़ी शखि़्सयत मानवीय मूल्यों से सरोकार रखती ही हो, यह कदापि आवश्यक नहीं।

यों भी कुर्सियों में धँसे रहने वाले और एयरकण्डीशण्ड का मजा लूटने वाले लोगों के बारे में आम लोगों को पक्का यकीन होता है कि मानवता इनके आस-पास फटक तक नहीं पाती।

तभी तो ये आम आदमी से दूरी बनाये रखते हैं। यही नहीं इनके वाहनों पर भी पॉवर ब्रेक की बात लिखी होती है जो इस बात का साफ संकेत है कि इनसे दूरी बनाये रखें, वरना कभी भी, कुछ भी हो सकता है।

सिर्फ मनुष्य का चौला होना ही काफी नहीं है। जरूरी यह है कि मनुष्य के लिए विहित गुण और लक्षण हों भी और दिखें भी। वरना ऎसे लोग तो कीड़े-मकौड़ों की तरह असंख्य घूम-फिर रहे हैं जिन्हें मनुष्य कहा जाता है।

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