देश की राजनीतिक नगरी में आयोजित देश की महान विभूतियों के पद्म श्री और पद्म विभूषण सम्मान समारोह में स्वर्ग की परियों को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। बड़े दिनों तक सोच विचार के बाद स्वर्ग के प्रशासन ने परियों को सम्मान समारोह मे आने की अनुमति नहीं दी तो परियों ने अपने रिस्क पर सम्मान समारोह में आने का दुस्साहस किया। प्रशासन ने उन्हें समारोह में न भेजने के पीछे तर्क दिया कि जब वहां की स्त्रियों की रक्षा ही वहां की पुलिस नहीं कर पा रही है तो वह हमारे देश की परियों की रक्षा क्या खाक कर पाएगी। जैसे ही वहां के प्रशासन को इस बात का पता चला तो प्रशासन ने परियों को एकबार पुनः अपने फैसले पर विचार करने को कहा। पर परियां नहीं मानीं तो नहीं मानीं।
और परियां जब सकुशल जब सम्मान समारोह से वापस अपने देश लौटने लगीं कि अचानक एक नन्ही परी प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों की भीड़ में उनसे बिछुड़ गई। न किसीको पता ही चला और न किसी ने ध्यान ही दिया। सब परियां समारोह की चमक दमक देख बस अपने में ही मस्त थीं। परियों के समूह से बिछुड़ नन्ही परी बड़ी देर तक तो रोती रही। उसे सड़क पर आते जाते लोगों से तो डर लग ही रहा था,सामने खड़े पुलिस वाले को देख कर वह और भी सहम गई थी। वह मुंह में अंगूठा डाले सड़क के हर छोर की ओर लौट कर आती परियों को ढूंढ रही थी। पर उसे कहीं कोई परी नजर न आ रही थी।
ढलती सांझ! परियों का इंतजार करती करती नन्ही परी लाल किले के पास तिरंगे के नीचे बैठी थी, अपने नन्हे नन्हे पंख समेटे हुए। इधर उधर आती जाती भीड़ को देखती, सहमी सहमी सी। ऊफ! इत्ते लोग! यहां की पुलिस कानून व्यवस्था को कैसे बनाए रखती होगी? जैसे रखती होगी वैसे रखती होगी। नहीं भी रखती होगी तो उसे क्या! कौन सा उसका देश है? दादी से परी से उसने सुना था कि पुलिस के हाथ बहुत लंबे होते हैं। अपने कद से भी लंबे! पर उसे लग रहा था कि वह देश में कहीं सुरक्षित हो या न,पर तिरंगे के नीचे तो सुरक्षित रहेगी ही।
लोग थे कि रेले के रेले लाल किले के पास से आ रहे थे, जा रहे थे।
कि तभी विक्रम के घर जाता बेताल उधर से गुजरा तो अचानक उसकी नजर अपने में सिमटी नन्ही परी पर पड़ी। वह आटो से उतरा और नन्ही परी के पास जा पहुंचा। उसने नन्ही परी को अपनी बाहों में भरने की कामना करते हुए कहा,‘ हे नन्ही परी! क्या नाम है तुम्हारा? तुम यहां कैसे? चलो, मेरे साथ चलो! आओ, मेरे साथ आओ! मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूं! देखो तो सांझ ढल रही है,’ तो नन्ही परी ने उसे अजनबी समझ उससे दूर होते कहा,‘ नहीं! मुनिया को छूना भी मत ! मैं यहां पर सुरक्षित हूं। तिरंगे के नीचे! मेरे घरवाले मुझे लेने आ रहे हैं।
‘कह रहा हूं कि सांझ ढल रही है! चलो मेरे साथ चलो!’
‘तो क्या हुआ जो सांझ ढल रही हैं?’
‘अरी पगली! तुम जैसी यहां दिन को भी सुरक्षित नहीं तो सांझ को कैसे सुरक्षित रहोगी? कहा न! सांझ ढल रही है ,चलो मेरे घर! देखो मैं तुम्हारे फूफा सा हूं!’ कह बेताल को पहली बार किसीका फूफा होने का अहसास हुआ।
नहीं! मुझे इस देश के हर फूफा से डर लगता है,’ कह वह परे को हो गई तो बेताल ने फिर कहा,‘ अच्छा चलो !ं तो तुम्हारे मामा सा हूं!’
‘नहीं मुझे इस देश के मामा से डर लगता है।’
‘ तो चलो, मैं तुम्हारे चाचा सा हूं!’
तो नन्ही परी ने अपने देस की ओर देखते कहा,‘ मुझे इस देश के हर चाचा से डर लगता है।’
‘तो चलो, मैं तुम्हारे बापू सा हूं!’
‘नहीं मुझे इस देश के हर बापू संे भी डर लगता है,’ कह वह नन्ही परी बेताल से और किनारे को हो गई तो बेताल ने आंखों में कई जन्मों का वात्सल्य नन्ही परी पर छलकाते कहा, अरी पगली! मैं आदमी नहीं हूं!’
‘ तो क्या हो आप अंकल?’
‘ बेताल हूं बेताल!’ बेताल ने कहा तो नन्ही परी तिरंगे के नीचे से उठी और चुपचाप बेताल की पीठ पर मुस्कुराती हुई चढ़ उसके घर को हो ली।
अशोक गौतम
ek sundar topical lekh
वाह ….वाह… अरी पगली! मैं आदमी नहीं हूं!…. .शब्द नहीं है जी ….आखरी गेंद पर छक्का ….जैसा एहसास करवाती कहानी …बिना कुछ कहे …जैसे सब कह डाला …..ऐसा समझाती कहानी,