कविताएँ ही पढ़ता हूँ
कविता ही क्या ? तुम्हें भी तो
पढता हूँ… महज़ एक कोशिश !
तुम्हारी मुस्कान के पीछे छुपा
वो दर्द कचोटता है मेरे मन को
तुम्हारी खिलखिलाती हँसी
सुनकर लगता है जैसे किसी
गहराई से एक दबी सी आवाज़ भी
उसके पीछे से कराहती है
तुम्हें चाहता हूँ मगर शब्दों के जाल
बुनना आता नहीं और न मेरा स्वभाव
मैं चूप रहकर भी कितना कुछ बोलता हूँ
सब की नज़रों का मौन तुम्हारे लिए
मेरी कविता से कम तो नहीं
और तुम्हारी आदत गई नहीं कि
मेरे लिखे को पढने से ज्यादा तुम
मुझे ही पढती हो और समझती हो
तुम्हारे आने से मैं दिन-प्रतिदिन
नवपल्लवित होता हुआ अपने
दर्द का समान लिए चलता रहता हूँ
अविरत, अचल रेगिस्तान में..
आप तो श्रंगार रस के बादशाह हैं।