– पंकज झा
महिलाओं-बच्चियों के साथ किये जा रहे उत्पीड़न की शृंखला में टेनिस खिलाड़ी रही रुचिका गहरोत्रा का मामला एक बार और चर्चा में है. उन्नीस साल पहले हुए इस घटना में, जिसमें यौन-उत्पीड़न के विरुद्ध तीन साल तक लड़ने के बाद थक हार कर बच्ची ने आत्महत्या कर ली थी. अब जाकर इस मामले में आंशिक ही न्याय मिल पाया है. आरोपी अफसर राठोड को फिलहाल अठारह महीने के जेल की सज़ा दी गयी है. चूंकि क़ानून के हाथ कई मामले में बंधे होते हैं. फिर ये भी है कि क़ानून निर्माताओं ने कई ऐसी स्थित की कल्पना भी नहीं की होगी जिससे आज जूझना पड रहा है समाज को.कहां लोगों ने कल्पना की होगी कि आने वाले समय में ‘बाड’ ही ‘खेत’ खाने लगेगा. जिन लोगों और समूहों पर अपने लोगों के जान-माल और सम्मान के हिफाज़त का दारोमदार होगा वही लोग इन चीज़ों से खिलवाड करने लगेंगे.
इस मामले में तो तात्कालीन मुख्यमंत्री चौटाला तक ने जम कर आरोपी पुलिस अफसर का बचाव किया था जिसके कारण परेशान होकर वह परिवार चंडीगढ़ छोड़ने तक पर विवश हो गया था. और अब जा कर आरोप साबित होने पर और सज़ा बढ़ जाने पर भी हरियाणा के डीजीपी रहे राठौर इस मामले को लंबा खिचने के लिए हर तरह का हथकंडा अपनाने से पीछे हटने वाला भी नहीं है. सवाल हर बार की तरह इस बार भी वही है. ताकतवर एवं रसूख वाले लोगों द्वारा क़ानून को तोड़ना-मरोड़ना और दोषी का बरी हो जाने का प्रयास करना या कम से कम सज़ा को काफी हद तक कम कर लेना.
मामला ना ये पहला है, और ना ही अंतिम. सवाल न्यायालय से लेकर क़ानून-व्यवस्था और सड़ांध मारती लोकतांत्रिक प्रणाली पर भी है.वो तो भला हो उस बच्ची की दोस्त के परिवार वाले का, जो विदेश से आ कर इतनी बड़ी लड़ाई लड़ते रहे. अन्यथा अन्य दर्ज़नों हाई-प्रोफाइल मामले की तरह यह भी कब का गर्त में चला गया रहता. लेकिन अपराध साबित होने पर भी इतनी मामूली सज़ा फिर भी कई सारे संदेहों को जन्म देने के लिए काफी है.
यह आलेख लिखते-लिखते खबर आ रही है कि अपराधी अपने बचाव के लिए फिर उपरी अदालत में अपील करने का इंतज़ाम कर रहा है. यानी फिर से तारीख पर तारीख और अपराधी का जमानत लेकर आराम से अपनी बीवी के साथ जुगलबंदी करते हुए दुसरे की बेटियों पर नज़र गड़ाने का इंतज़ाम पूरा. यानी फिर से पीड़ित परिवार और उनके शुभचिंतक लोगों की परेड शुरू, यानि फिर से कठघरे में एक सम्मानित परिवार की छीछालेदर की व्यवस्था पूरी. चुकि न्याय व्यवस्था का अपना तकाज़ा है वह पुलिस द्वारा उपलब्ध सबूतों की बिना पर ही न्यायाधीशों के लिए फैसला लेना संभव होता है, सो जब पुलिस वाले ही आरोपी हो तो उनको बेहतर पता होता है कि केस को कैसे कमज़ोर किया जाय. किस तरह से सबूतों के साथ खिलवार किया जाए. कई बार तो न्यायाधीश ऐसे मजबूर होते हैं कि सब कुछ जानते हुए भी उन्हें अपनी आँखों पर पट्टी बांधना होता है. प्रियदर्शिनी मट्टु हत्याकांड में तो फैसला सुनाते वक्त स्वयं न्यायाधीश ने आरोपी की ओर इशारा करते हुए कहा था कि ”मैं जानता हूँ हत्यारा मेरे सामने खड़ा है, लेकिन सबूतों के अभाव में मैं उसे बरी करने पर मजबूर हूं।” तो प्रियदर्शिनी मट्टू से लेकर नितीश कटारा, जेसिका लाल से लेकर आरुषी तलवार तक हर जगह बात वही कि न्याय के लिए जबरदस्त जद्दोजहद और ना केवल अपराध से पीड़ित होना बल्कि न्याय पाने तक के दशकों लम्बे समय तक में परिवार वालों, सगे-सम्बन्धियों का बार-बार प्रतारित एवं शोषित होना.
इस मामले में सबसे अफसोसनाक रहा अपराधी की पत्नी का भी आंख मूंद कर अपने पति का बचाव करना. उसके हरकतों का ना केवल बचाव, उसे समर्थन बल्कि उसे बचा ले जाने के लिए हर तरह का हथकंडे अपनाना. अपने समाज में बहुधा यह देखा गया है कि कई बार न्याय के हित में परिवार वाले खुद ही आरोपियों को लेकर पुलिस के पास पहुच जाते हैं. हाल ही में छत्तीसगढ़ में एक ऐसे ही मामले में खुद पत्नी-बहु और बेटा अपने अभियुक्त पिता को लेकर ना केवल थाने पहुचा था अपितु उसके खिलाफ गवाही दे कर क़ानून एवं मानवता की मदद भी की थी. लेकिन दुखद तो यह है कि सभ्य कहे जाने वाले समाज के लोग किस तरह स्वार्थी होकर अपराध को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन देते हैं. कुछ अपवादों को छोडकर अभी तक के हर हाई प्रोफाइल मामले में परिवार जनों को अपने रसूख का इस्तेमाल कर न्याय को पेचीदा और मुश्किल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गयी है. तो शायद ज़रूरत इस बात की है कि बदले हुए समाज एवं उसकी बदली परिस्थिति में आपराधिक कानूनों में भी आमूलचूल परिवर्तन लाया जाय. थोड़ा ज्यादा कल्पनाशील होकर ऐसे मालों में उचित दंड एवं त्वरित न्याय की व्यवस्था करना ज़रूरी होगा. लेकिन उससे भी ज्यादे ज़रूरी यह है कि परिवार के लोग अपने किशोर होते बच्चों से संवाद स्थापित करें. उन पर लगातार ध्यान दें.
मामला चाहे रुचिका का हो या आरुषी का या इस तरह का कोई और. हर मामले में जो साम्य है वह ये कि एकल परिवार के व्यस्त माता-पिता के पास अपने बच्चों का हाल-चाल जाने की फुर्सत नहीं थी. तो ज़रूरत इस बात की है कि अभिभावक गण अपनी इस पहली जिम्मेदारी को निभाएं. हर तरह कि जद्दोजहद के बाद पैसा कमाकर लोगों का यही कहना रहता है कि यह सब वे अपने बाल-बच्चों के लिए ही करते हैं. अतः पहले उनकी जिंदगी बचाना ज़रूरी है. बच्चों में यह भरोसा पैदा करें कि उनसे ज्यादा कीमती कोई नहीं. चाहे कोई भी दुर्घटना हो जाये, कुछ भी गलती भी कर ले मासूम तो उसे यह भरोसा होना चाहिये कि हर तरह के संकटों में किसी भी तरह के झूठे मान-सम्मान से ज्यादे उन्हें अपने बच्चे के जीवन की चिंता पहले रहेगी. हाल के सभी घटनाओं का अभिभावकों के लिए यही सबक है कि वह बच्चों को निश्चित ही उड़ान भरने लायक बनायें, उनको सभी सुविधाएं भी दी जाय. लेकिन आपके समय एवं स्नेह-वात्सल्य की दरकार सबसे ज्यादा उनको है. उनको मनचाहे मंजिलों को तलाशने की सहूलियत सेट हुए भी किसी खूंखार और बदजात से बचाने हेतु प्रयासरत एवं सावधान रहना भी अभिभावकों का दायित्व होना चाहिए.
बिलकुल सही कहा ….शब्दशः सहमत हूँ ….