भाषा और उसे बोलने वाले समाज का सम्बंध सदा से अविच्छिन्न रहा है। किसी जीवंत, जाग्रत समाज के लक्षण का पहला आधारबिंदु यही है कि वह समाज अपनी भाषा और उसके प्रयोग में कितना कुशल है। किसी भी भाषा की प्रतिष्ठा का आधार सिर्फ उसका व्याकरण, लिपि, प्रयोग में सहूलियत या उसका समृद्ध साहित्य नहीं होता है, भाषा की प्रतिष्ठा तब बनती है जब उससे जुड़ा समाज उससे माता के समान स्नेह करता है। हो सकता है कि किसी भाषा में साहित्य प्रचूर मात्रा में ना हो, संभव है कि उसका व्याकरण और उसकी लिपि अस्पश्ट हो लेकिन यदि भाषा को चाहने वाले लोग हैं, उसे व्यवहार में लाने वाला समाज है और वह अपने भाषा प्रेम को सदा ह्दय से लगाकर चलना चाहता है तो किसी भाषा के लिए इससे बढ़कर प्रतिष्ठा की बात और नहीं हो सकती।
भारत के प्राचीन वांग्मय में कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात धर्म की रक्षा करो तो धर्म भी आपकी रक्षा करेगा। इस कसौटी पर यदि किसी भाषा को कसा जाए तो अर्थ निकलता है कि यदि अपनी मातृभाषा की रक्षा के लिए कोई समाज प्रयत्नशील है तो निश्चित ही भाषा भी उस समाज और उसके जीवनमूल्यों की रक्षा करती है।
भारत के वर्तमान संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि देश के समस्त प्रांतों में देश की सभी मातृभाषाओं के समक्ष अंग्रेजी का खतरा विकराल हो उठा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि भाषा अभिव्यक्ति का ही माध्यम नहीं है वरन् ये संस्कारों, रीति-रिवाजों, लोकजीवन की विषिश्टताओं को भी अपने में समेटे रहती है और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी ज्यों की त्यों आगे बढ़ाने का काम भी करती है। लेकिन पिछले दो दशकों में जबसे आर्थिक उदारीकरण की आंधी चली है, भारत की सभी भाषाओं के सामने अस्तित्व का संकट मंडराने लगा है।
इसके पीछे का कारण स्पष्ट है। भारत की मातृभाषाओं का व्यवहार प्रचलित वाणिज्यिक उपक्रमों, राजकीय सेवाओं एवं वार्ताओं, निर्णयों, कानून, चिकित्सा, प्रबंधन, षिक्षा, आर्थिक जगत सहित समाज और राष्ट्र जीवन के विविध प्रकल्पों में से हट चुका है अथवा उसे योजनापूर्वक हटा दिया गया है। इसके दुष्परिणाम इतने गंभीर हैं कि आज ग्राम-ग्राम में प्रत्येक प्रांत में अंग्रेजी के स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। अधिकांश प्रांतों में अंग्रेजी भाषा शिशु अवस्था से ही बच्चों के शिक्षण-प्रशिक्षण का माध्यम बन गई है। अनेक राज्य अंग्रेजी को प्राथमिक विद्यालयों में भी अनिवार्य बना चुके हैं और अनेक इस दिषा में प्रयासरत हैं। निजी विद्यालयों ने तो पहले से ही भारत की मातृभाषाओं को दरकिनार कर रखा है और अब इस संदर्भ में राज्य सरकारों के निर्णय अत्यंत अनर्थकारी सिद्ध होंगे।
वस्तुत: अंग्रेजी माध्यम का देश के भविष्य, बच्चों के सर्वांगीण विकास और उनके संतुलित मानसिक और बौध्दिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। बच्चों की चिंतन क्षमता एक विदेषी भाषा के बोझ के कारण बचपन में ही कुंद हो रही है। उनके अध्ययनकाल का एक बड़ा हिस्सा एक भाषा को सीखने और पढ़ने में ही बीत जा रहा है जबकि इस समय का उपयोग कर बालक सृजन और रचनात्मकता के अन्य क्षेत्रों में गहराई से काम करने के योग्य बन सकता है। संपादक संगम का इस संदर्भ में स्पष्ट मत है कि अंग्रेजी भाषा को प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाई का माध्यम कदापि नहीं बनाया जाना चाहिए। इसे माध्यमिक विद्यालयों के स्तर पर ही बालक की रूचि और प्रवृत्ति को देखते हुए वैकल्पिक विषय के रूप में स्थान देना चाहिए। इसी के साथ संगम का मत यह भी है कि देश के बौद्धिक और अकादमिक जगत को युद्धस्तर पर विज्ञान, तकनीकी, प्रबंधन, चिकित्सा आदि आधुनिक विषयों के अध्ययन और अध्यापन की व्यवस्था देश की विविध मातृभाषाओं में करनी चाहिए। भारत सरकार समेत सभी राज्य सरकारों का विशेष कर्तव्य बनता है कि वे इस संदर्भ में पंचवर्षीय योजना बनाकर उसे तत्काल क्रियान्वित करने की दिशा में उपाय प्रारंभ करें।
आज समूचे देश के जनमानस को ये सवाल गहराई से मथ रहा है कि बच्चे यदि अंग्रेजी नहीं पढेंगे तो उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। यद्यपि यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका और इंग्लैंड सहित दुनिया के तमाम विकसित देश इस बात के साक्षी हैं कि देश का विकास अपनी मातृभाषा में ही हो सकता है। जो देश अपनी मातृभाषाओं में शिक्षण-प्रशिक्षण, अनुसंधान और अध्ययन, सरकारी और निजी कारोबार का संचालन नहीं कर पाते वे देश सदा ही पिछड़े बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। संसार की कोई शक्ति ऐसे देश को कभी स्वावलंबी नहीं बना सकती जो पराई भाषा की बैसाखी पर समृद्धि रूपी वैतरणी पार करने की सोचते हैं। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार को पहले अपनी सेवाओं में, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में काम-काज का माध्यम मातृभाषाओं को बनाना होगा। इस संदर्भ में हिंदी का स्थान संपर्क भाषा का हो सकता है लेकिन विविध भाषा-भाषी समाज पर इसे थोपने भी कहीं से उचित नहीं होगा। ज्यादा ही अच्छा हो कि संपूर्ण देश में एक दूसरे की मातृभाषाओं के प्रति आदर और सम्मान की भावना स्थापित करने की दिशा में विद्वत्तजन विचारपूर्वक पहल करें।
दुर्भाग्य से अंग्रेजी ने भारत में अपना स्थान बनाने के लिए भारत की भाषा विविधता को ही हथियार बनाया है। देष के विविध भाषा-भाषी प्रांतों के अंदर ये भय अंग्रेजी मानसिकता के लोगों ने ही जगाया कि यदि हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला तो इससे उनका विकास अवरूद्ध हो जाएगा। इस बिंदु का दु:खद पक्ष ये भी है कि बिना सोचे-विचारे हमारे नीति नियंताओं के कुछ व्यवहार और नीतिगत निर्णयों ने देश में इस वातावरण को बल प्रदान किया कि हिंदी भाषा को गैर हिंदी भाषी प्रांतों पर जबरन थोपने का प्रयास हो रहा है। दक्षिण भारत सहित देश के अनेक राज्यों में भाषा के प्रश्न पर यदा-कदा उत्पन्न होने वाले तनाव इस बात के प्रमाण हैं।
भारत की भाषाओं के बीच इस कथित तनाव का फायदा भी गाहे बगाहे अंग्रेजी ने ही उठाया है। धीरे धीरे इस भाषा ने देश के समस्त प्रांतों में अपनी पकड़ बढ़ा ली और देखते ही देखते देश के समस्त प्रांतों में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया जिसे अब ना तो अपनी भाषा पसंद है, ना ही वह समाज अपनी भाषा में कोई व्यवहार करता है और ना ही वह नई पीढ़ी में अपनी मातृभाषा के प्रति कोई लगाव उत्पन्न होने देना चाहता है। विडम्बना की बात यह है कि जब भी देश में अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनता है ये वर्गविशेष हाय-तौबा करने लगता है और जानबूझकर निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए विविध भाषा-भाषी समाज में भाषा सम्बंधी संभ्रम फैलाकर तनाव उत्पन्न कर देता है।
हमारा स्पष्ट मत है कि भारत की सभी भाषाएं भारत की मातृभाषाएं हैं, राष्ट्रभाषाएं हैं। सभी भाषाएं भारत के लोकजीवन, लोकमानस और लोकसंस्कृति को अभिव्यक्ति देने में सक्षम हैं। हिंदी सहित भारत की किसी भी भाषा का भारत की किसी भाषा से कोई टकराव नहीं है। इसके विपरीत हिंदी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, पंजाबी, बंगला, असमिया आदि सभी भाषाओं का उद्गम देववाणी संस्कृत से होता है। इस दृष्टि से सभी भाषाएं परस्पर बहन सरीखी हैं, सभी मातृभाषाएं संस्कृत की सारस्वत ज्ञान गंगा को लोक जीवन में उतारने वाली गंगोत्री और गोमुख हैं। इन भाषाओं में किसी भी दृष्टि से कोई भी टकराव नहीं है। एक बात अवश्य है कि इन सभी के स्वत्व का अंग्रेजी ने चतुराई से अपहरण करने का प्रयास किया है और अंग्रेजी भाषा सभी भारतीय भाषाओं के ऊपर पटरानी बनकर देश पर राज करने लगी है।
वक्त है कि भारतीय समाज अपनी मातृभाषाओं की गरिमा को, संस्कार को, परंपरा को, उसके लोकप्रवाह को, समाज के परंपरागत जीवन मूल्यों को, उसकी मधुर ध्वनि और उच्चारणों को, भाषा की मिठास और उसकी सोंधी महक को बनाए रखने के लिए आगे आए। इसलिए हमारा समूचे देश से, देश के विद्वत समाज से, विविध मातृभाषाओं की सेवा से जुड़े संगठनों और महानुभावों से निवेदन है कि सभी लोग मिलकर अपने अपने स्तर पर, अपने अपने प्रांत में आगामी 14 सितंबर को ‘भारतीय भाषा दिवस’ के रूप में मनाएं। 14 सितंबर को किसी भाषा विशेष के उत्सवी कर्मकाण्ड के रूप में मनाने की बजाए इसे विविध प्रांतों में अपनी अपनी मातृभाषाओं के दिवस के रूप में ‘भारतीय भाषा दिवस’ के रूप में अंगीकार किया जाना चाहिए।
हमारा स्पष्ट मत है कि ‘भारतीय भाषा दिवस’ का प्रांत प्रांत में सफल आयोजन तत्काल समूचे देश पर सकारात्मक प्रभाव डालेगा। इससे समूचे देश में न सिर्फ एकता और अखण्डता के नए युग का सूत्रपात होगा वरन् ये देश में अंग्रेजी भाषा के बढ़ते एकतरफा असंतुलन को भी समाप्त करने की दिशा में सार्थक उपाय सिद्ध होगा।
प्रवक्ता डॉट कॉम
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एक बहुत ही अच्छा विषय उठाया है जिस पर हम सभी को गौर करना है। किसी भी समाज की सोच काफी हद तक उस राज्य राष्ट्र की नीतीयो पर निर्भर करती है। अंग्रजी का बोझ हमारे देश की नीतीयों का परिणाम है। फिलीपींस, कोरिया, साउदी अरब, थाईलेंड आदी भारत से बहुत छोटे देश अपने यहां की भाषा की इतनी इज्जत करते हैं कि हर जगह उसका अधिकाधिक प्रयोग करते हैं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर के साफ्टवेयरों इनकी भाषा के चयन की सुविधा होती है किन्तु भारत जैसे देश में जहां दुनिया के सबसे ज्यादा कमॅपयूटर इन्जीनीयर हमारे देश के होते है, हमारे देश की भाषा का कहीं नाम नहीं होता है।
दूसरा उदाहरण हिन्दी अंग्रजी शब्दकोश का अभाव। हमारे देश में हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए अरबो रूपए खर्च होते हैं किन्तु बड़ी शर्म की बात है कि एक भी हिन्दी से अंग्रजी शब्दकोश (आफलाइन या इन्स्टाल किया जाने वाला) नहीं है जबकि अंग्रजी से हिन्दी के बहुत से हैं। हम हिन्दी से इग्लिश शब्द चाहते हैं तो हमें इन्टरनेट पर जाना पड़ेगा या प्राइवेट डिक्शनरी खरीदनी पड़ेगीं।
अभी तक एक भी मु्फ्त हिन्दी स्पीच साफ्टवेयर नहीं विकसित हुआ।
गौतम बुध ने कहा था मै लोगों तक उनकी भाषा से पहुंचना चाहता हूँ इसलिए उन्होंने तत्कालीन भाषा (सामान्य लोगो की ) का प्रयोग किया,
दुर्भाग्य है इस देश का इस देश के लोग इस छोटी सी बात को नहीं समझ पा रहें हैं वस्तुत आप का
ये लेख भारत की मानसिकता को दर्शाता है मै आप से कुछ प्रशन पूछना चाहता हूँ bharat के नेतायों का कहना है आज जो देश में तरक्की हो रही वे अंग्रेजी भाषा के कारन हो रही है क्या किसी देश के तरक्की केवल कुछ लोगो की होती है ! जो पश्चिमी सभ्यता से पीरित हैं उनका क्या कहा जाये इस देश में भारतीय भाषा केवल चुनाव के टाइम की भाषा है, यदि कोई पार्टी अंग्रेजी से सबसे अधिक पारित है तो वे है कांग्रेस पार्टी! भारत देश तब तक विकसित नहीं हो सकता जब तक वे अपनी मात्र भाषा का उपयोग करना न सीखे
जय श्री राम saurabhtripathi121@gmail.com