इबोला: बीमारी या महामारी का हौवा

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ibolaप्रमोद भार्गव

 

एड्स, हीपेटाईटिस-बी, स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू के बाद इबोला वायरस को वैश्विक आपदा के रूप में पेश किया जा रहा है। क्योंकि यह संक्रामक बीमारी है, इसलिए दुनियांभर में आसानी से फैल सकती है। इबोला को महामारी बताकर इससे सतर्क रहने की जागरूकता फैलाने के काम में अमेरिका लग गया है। लेकिन अन्य बीमारियों की तरह इबोला महामारी है भी अथवा नहीं, इसमें संदेह है। क्योंकि एड्स को जब हौवा बनाकर डर पैदा किया गया था तो पश्चिमी देशों ने भारत को चेतावनी दी थी कि एड्स के वायरस फैलने का खतरा भारत में बहुत अधिक है। ओर इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर पैर रखते ही भारत की एक तिहाई आबादी एड्स की चपेट में होगी। लेकिन हकीकत हम सब अच्छे से जानते हैं, भारत में इसके गिनती के भी मरीज नहीं हैं। एड्स से कभी एक साथ 4-5 मौतें भी हुई हों, ऐसी जानकारी भी नहीं है। किंतु एड्स के रोकथाम के उपायों के बहाने अमेरिकी बहुराष्ट्रिय दवा कंपनियां करोड़ों-अरबों के कंडोम व अन्य गर्भ निरोधक दवाएं जरूर भारत में खफा चुके हैं। कमोबेश यही स्थिति स्वाइन और बर्ड फ्लू के साथ रही है। और इबोला का हौवा हमारे सामने खड़ा कर दिया गया है।

इबोला बीमारी की पहचान सबसे पहले 1976 में सूडान और कांगो में हुई थी अफ्रीकी देश जैरे की एक नन के रक्त की जांच करने पर एक नए वीशाणु (वायरस) इबोला की पहचान हुई। यह नन पीले ज्वर (यलो फीवर) से पीडि़त थी करीब 40 साल तक शांत पड़े रहने के बाद इस वीशाणु का संक्रमण सहारा अफ्रीका में फैलना शुरू हुआ। 2014 में इस वीशाणु का हमला पश्चिमी अफ्रीका के इबोला में हुआ। जहां से यह बीमारी गुएना, सीयरा, लियोन, गिनी नाइजीरिया और लाईबेरिया में फैली। इसके प्रकोप अब तक करीब 1719 लोग संक्रमित हो चुके हैं और करीब 1000 लोग मारे जा चुके हैं।

इस बढते खतरे से विश्व स्वास्थ्य संगठन की नींद हराम हो गई और इसकी निदेशक डाॅ. मार्गरेट चान ने इसे वैश्विक स्वास्थ्य आपदा घोषित करते हुए पीडि़त देशों के लिए वैश्विक मदद की अपील कर दी। इस आपदा की भयावहता का अंदाजा लगाते हुए जेनेवा में डब्ल्यूएचओ की हुई आपात बैठक में जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि इबोला के प्रकोप को फैलने से रोकने के लिए वैश्विक यातायात प्रतिबंध को अमल में लाया जा सकता है। क्योंकि आजकल संक्रामक बीमारियां अंतराष्ट्रिय हवाई उड़ानों के चलते जल्दी फैलती हैं। करीब दो अरब लोग हर साल एक देश से दूसरे देश की यात्राएं करते हैं। इसीलिए अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चेतावनी दी है कि वाशिगटन में जो अमेरिका और अफ्रीकी देशों के बीच सम्मेलन होने जा रहा है, उसमें भागीदारी करने वाले अफ्रीकी प्रतिनिधियों को जांच की प्रक्रिया से गुजरना होगा। भारत के केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्शवर्धन ने भी हवाई अड्डों पर सतर्कता के उपाय कर दिए हैं। हालांकि उनका कहना है, इबोला का अब तक भारत में एक भी रोगी नहीं है। जाहिर है, इबोला का भय पैदा करने के उपाय दुनियां भर में जारी हैं। चैन्नई के हवाई अड्डे पर जरूर एक व्यक्ति को इबोला से पीडित मिला है।

ऐसा कहा जा रहा है कि इबोला के वीशाणु संक्रमित प्राणी से मनुष्य में फैलते हैं। यह वीशाणु बंदर, फ्रूट बैट (फलों पर निर्भर खास तरह के चमगादड) उड़ने वाली लोमडी और सुअरों के खून या तरल पदार्थ से फैलते हैं। इन पदार्थों मंे लार, मूत्र, मल और पसीना प्रमुख है। संक्रमित हुए व्यक्तियों से यह वीशाणु दूसरे व्यक्तियों में पहुंच जाता है। इस संक्रमण से हुई बीमारी को ईवीडी मसलन इबोला वायरस बीमारी कहते हैं। इसका फिलहाल कोई उपचार नहीं है। यह विशाणु धागे जैसा होता है, इसलिए इबोला को चिकित्सा विज्ञानियांे ने फिलो वायरस का नाम दिया है। लैटिन में फिलियम का अर्थ धागा होता है। धागेनुमा यह वीशाणु मनुष्य में संक्रमण फैलाने के लिए काफी असरकारी है। यह वीशाणु शाखाओं में भी विभाजित होता है। इसके हमले से इबोला हमोरहेजिक फीवर (ईएचएफ) की चपेट में मनुष्य आ जाता है। इसके असर से रक्तस्त्राव, गले में खरास, मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द, जी मचलाना, उल्टी जैसे लक्षण षरीर मंे दिखाई देने लगते हैं। बाद में इसका असर रक्त कोशिकाओं, किडनी और लीवर को भी अपनी चपेट में ले लेता है। नतीजतन तीन सप्ताह के भीतर रोगी मौत के निकट पहुंच जाता है। कोई सटीक उपचार न होने के कारण मरीज के निर्जलीकरण को रोकने की कोशिश की जाती है। मसलन डायरिया के रोगी को जो मीठा व नमकीन पानी पिलाया जाता है, वहीं ओआरएस का घोल इबोला की दवा है। इबोला पर नियंत्रण के लिए अभी तक कोई टीका नहीं बना है।

यदि रक्तस्त्राव के लक्षण को छोड दें तो इस इबोला बीमारी में ऐसे कोई लक्षण नहीं है, जो विलक्षण हो। अन्य सभी लक्षण डायरिया और चिकनगुनियां बीमारियों के लक्षणों से मेल खाते हैं। इसलिए इबोला का मुख्य उपचार मीठा और नमकीन पानी है। लेकिन फिलहाल इसका विश्वव्यापी हौवा फैलाया जायेगा और फिर कोई अमेरिकी कंपनी इस बीमारी की दवा, टीका या बैक्सीन तैयार कर देगी। फिर ये दवाएं खासतौर से विकासशील देशों को खपाई जायेंगी। हेपेटाईटिस-बी का हौवा खडा किया गया था, उसके तत्काल बाद इसका टीका और इंजेक्षन बाजार में आ गये। टीका लगाने की मुहिम समाजसेवी संस्थाएं रोटरी और लायन्स क्लब के माध्यम से भी चलाई गईं। देखते देखते कंपनियों ने अरबों की दवाएं खपाकर वारे न्यारे कर लिए।

यह तरीका बहुराष्ट्रिय कंपनियों ने पशुओं में फैलने वाली बीमारी बर्ड फ्लू के सिलसिले में भी अपनाया था। भारतीय चिकित्सा परिशद के तत्कालीन अध्यक्ष डाॅ. अजय कुमार ने तो सार्वजनिक वयान भी दिया था कि वर्ड फ्लू अरबों-खरबों के घोटाले के अलावा कुछ भी नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों के अलावा यह कहीं नहीं था। वैसे भी चिकन या अंडे को 70 डिग्री सेल्सियष पर गर्म करने से बर्ड फ्लू के वीशाणु मर जाते हैं। यह बड़ी मात्रा मंे भारत में अमेरिका द्वारा दवायें खपाने की साजिश है। बर्ड फ्लू पर रोकथाम के बहाने पश्चिम बंगाल में लाखों मुर्गे-मुर्गियों को जिंदा दफना दिया गया था।

भारत में इसी तर्ज पर स्वाईन फ्लू का हल्ला बोला गया। इसके उपचार के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे गुलामनवी आजाद ने देश के प्रत्येक जिले के लिए 10 हजार खुराक टेमीफ्लू नामक दवा खरीद ली थी बाद में अरबों की यह दवाएं बेमियादी हो जाने के कारण नष्ट करनी पड़ी। जबकि भारत में अब तक स्वाईन फ्लू की चपेट में बमुश्किल 500 लोग आये होंगे। एड्स तो शायद बीमारियों के बहाने दुनियां का सबसे बड़ा झूठ है। एड्स का हौवा खड़ा करके आज भी अमेरिका दवा कंपनियां तीसरी दुनियां के देशों में बड़ी तादात में गर्भ निरोधक खपाकर बारे-न्यारे करने में लगी है। लिहाजा भारत को इबोला से सतर्क रहने के साथ-साथ इस बात से भी सतर्क रहने की जरूरत है, कि कहीं कथित बीमारी इबोला दवा कंपनियो का षडयंत्र तो नहीं है। यह संदेह इसलिए भी पुख्ता है कि चार दशक से कुंभकर्णी नींद में सोया पड़ा वीशाणु एकाएक कैसे ऐसी जाग्रत अवस्था में आ गया कि अमेरिका और विश्व स्वास्थ्य संगठन को महामारी का रूप दिखाई देने लगा ? संदेह इसलिए भी कि बारास्ता अमेरिका होकर आने वाली बीमारी के स्त्रोत आखिरकार गरीब लाचार अफ्रीकी देश ही क्यों होते हैं ? संदेह इसलिए भी है कि एकाएक डब्ल्यूएचओ की निदेशक डाॅ. मार्गेट चान ने अंर्तराष्ट्रिय समुदाय से प्रभावित देशों की सहायता के लिए आर्थिक मदद की मांग भी की है। पूरी दुनियां जानती है, डब्ल्यूएचओ, संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं अमेरिका की मुट्ठी में हैं। आर्थिक मंदी के दौर में अमेरिकी दवा कंपनियां व्यापार के संकट से जूझ रही हैं। इसलिए इबोला का हल्ला कंपनी के हित साधने के लिए भी हो सकता है ? इसलिए भारत बर्ड फ्लू और स्वाईन फ्लू की दवाएं खरीदने की तरह जल्दबाजी में कोई कदम न उठाये?

 

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