गो वंश की पहचान/ डॉ. राजेश कपूर

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डॉ. राजेश कपूर

गो वंश की पहचान और पंचगव्य चिकित्सा के कुछ प्रयोग

विदेशी विषाक्त गोवंश

स्वदेशी और विदेशी गोवंश को लेकर कुछ विचारणीय पक्ष हैं. अनेक शोधों से सिद्ध हो चुका है कि अधिकांश विदेशी गोवंश विषाक्त प्रोटीन ”बीटा कैसीन ए१” वाला है जो हानिकारक ओपीएट ’बीसीएम७ ’ का निर्माण पाचन के समय करता है और अनेक ह्रदय रोगों के इलावा मधुमेह, ऑटिज्म व बहुत से मानसिक रोगों का कारण है. होलीस्टीन , फ्रीजियन, रेडडैनिश आदि सभी गौएँ इसी घातक प्रोटीन वाली हैं. दावा किया जाता है कि जर्सी की ७०% ए१ तथा ३०% ए२ प्रोटीन वाली हैं. कौनसी गौएँ किस प्रोटीन वाली हैं, , यह जानने के लिए कोई तंत्र या व्यवस्था बने होने की जानकारी हमारे पास नहीं है. पर इतना तो प्रत्यक्ष है कि आज भी घातक प्रोटीन वाली होलीस्टीन, फ्रीजियन और उनकी ही संकर नस्ल ’एचऍफ़’ को हम बढ़ावा दे रहे हैं. दूध बढाने के भ्रम में ऐसा करके अनजाने में रोगों को बढ़ावा देने की भूल को समझने और रोकने की ज़रूरत है. यदि जर्सी की कोई नस्ल सही है तो उसका विरोध करने का कोई कारण नहीं है पर इसकी जांच की कोई व्यवस्था तो की जानी चाहिए. ऐसे में लगता है कि पशुपालन की नीतियों का एक बार नए सिरे से मूल्यांकन करें और नए शोध व सूचनाओं के प्रकाश में नीतियों का निर्धारण करें. न्यूज़ीलैंड की ’ए२ कारपोरेशन ने इसप्रकार का यन्त्र बनाया है जिससे गौओं की जांच काके जाँच करके जाना जा सकता है की उसमें कौनसा प्रोटीन कितना है.भारत में भी इस प्रकार के यंत्रों के विकास की आवश्यकता है. ज़रूरी हो तो इसे आयात किया जा सकता है.

हमारे कुछ उपयोगी चकित्सा प्रयोग हमनें अपने रोगियों पर स्वदेशी गोवंश के गोबर तथा गोमूत्र से कुछ उपयोगी प्रयोग किये हैं जो भावी शोध और खोज में उपयोगी सिद्ध हो सकते है. …………

– माईग्रेन व सरदर्द के असाध्य व पुराने रोगियों पर गोघृत का प्रयोग करके देखागया कि वे सभी एक मास से भी कम समय में स्वस्थ हो गए. उनके नाक. नाभि और पैरों के तलवों में प्रातः और सोते समय गो-घृत लगवाया गया. सभी को बिना अपवाद लाभ हो गया. अब उनमें से कई तो दूसरों की चिकित्सा सफलता से कर लेते हैं. हमारा सूत्र यह है कि पैरों के तलवों का हमारे स्नायुकोषों, मस्तिष्क पर सीधा व गहरा प्रभाव होता है. अल्प मात्रा में लगा घी भी स्नायु कोशों का प्रभावी स्नेहन करता है. नाक में लगे घी का भी यही प्रभाव है. ख़ास और शोध के योग्य बात यही है कि पैरों पर मालिश से स्नायुकोषों पर इतना प्रभाव कैसे होता है और वह भी गो-घृत से. एलुमिनियम के पात्रों का प्रयोग दही बिलोने, घी पकाने के लिए हम वर्जित कर देते हैं. हम सब जानते हैं कि एल्जीमर्ज़ डिजीज का प्रमुख कारण ये है. लाल रक्त कानों के इलावा यह हमारे ह्रदय, पाचन व अन्य अंगों के कोशों को भी नष्ट करता है. यदि फ्लोराईड का केवल १० लाखवां अंश इसके साथ मिल जाये तो अल्युमिनियम द्वारा विनाष बहुत तेज़ गति से होने लगता है. संभवतः सभी टूथपेस्टों में फ्लोराईड मिला हुआ है. अतः मंजन का प्रयोग ही उचित है और या फिर हो सके तो दातुन .

– अनेक उच्च रक्तचाप के रोगियों पर हमने गोबर का प्रयोग किया और सफल रहा. देसी गो के गोबर के उपले बना और सुखा कर उन पर रोगी को पाओं रख कर बैठने को कहा गया. आधे घंटे में असर नज़र आने लगता है. कुछ दिन या कुछ सप्ताह के प्रयोग से अधिकाँश रोगी ठीक हो जाते है. सूत्र यही है कि गोबर विष पदार्थों को अवशोषित करके रक्तचाप को सामान्य करने में सहायक सिद्ध होता है. दूसरा सूत्र यह है कि रक्तचाप का एक बड़ा कारण वे विष पदार्थ और रसायन हैं जिन्हें हम आहार में खाने को बाध्य हैं(रासायनिक खेती की अनुचित नीतियों के कारण ). पैरों के माध्यम से शरीर के विषों को निष्कासित करने का सूत्र तो उल्लेखनीय है ही.

– गोबर के उपलों को कांच के पात्र में गंगाजल व अल्कोहल ( ५०-५० %) में डूबा कर २ मास तक अँधेरे में रखा गया. उपले टूटे या बिखरे नहीं. अब इस तरल को छान कर प्रयोग किया गया. केवल २-३ मी.ली तरल को २५-३० मी.ली. पानी में डाल कर पीनें से अम्ल-पित्त, छाती की जलन कुछ की देर में ठीक हुई. अनेक पित्त रोगियों पर इसका प्रयोग किया गया. दुर्बल पाचन को सुधारने व विषाक्त प्रभावों को समाप्त करनें में यह बहुत प्रभावी है. एक और ख़ास बात यह हुई कि इस तरल में से अनेक प्रकार के फूलों की सुगंध आती है.

– ब्रह्म सुतली / प्रसरनी / हर्पीज़ जोस्टर से मैं कष्ट पा रहा था. अभी शुरुआत ही हुई थी. मैंने पुराना और कांच की बोतल में रखा गो मूत्र इस पर लगा दिया. पुराना अनुभव यह था कि गर्म चीज़ों से यह रोग बढ़ता है. गोमूत्र उष्ण प्रकृती का है. आश्चर्य की बात यह हुई कि मैं कुछ ही मिनेट में मैं ठीक हो गया. दुबारा प्रयोग दोहराना नहीं पडा. पर ज़रूरत है कि इस प्रयोग को अभी और परखा जाए.

– मॉल द्वार में गो घृत का स्नेहन करने से अनेक मानसिक रोगों का अतिरिक्त सुखी खांसी, आँखों के रोग ( ई फ्लू आदि) में अद्भुत लाभ होता है. अनेकों रोगियों पर हमने आज़माया है. शुद्ध का विषय है की आखिर मॉल द्वार का प्रभाव इतनी तेज़ी से आँखों, गले, छाती, फेफड़ों, स्नायु कोशों पर कैसे होता है ?

– अपने मोबाईल पर गोबर की आधा सेंटीमीटर की टिकिया चिपकाने से उसका रेडियेशन प्रभाव बहुत घट गया. अब हमनें 5000 रु. खर्च करके मोबाईल पर चिपकाने वाली डिबिया सी बना दी है जिसमें गोबर का पिसा चूर्ण और अति अल्प मात्रा में सोने का वर्क डालते हैं. सोने के प्रभाव से इसकी आयु बढ़ जाती है. स्वर्ण डाले बिना भी ये काम करता है. बस इतना ही है कि बार-बार इसे बदलना पडेगा. डिबिया की ‘डाई’ बनाने पर एक बार ही खर्च होना है.बिना डिबिया के भी चिपका कर लाभ लिया जा सकता है.

कुछ करने योग्य प्रयोगों का सुझाव. – यंत्रों के अभाव में स्वदेशी-विदेशी गोवंश के प्रभावों का तुलनात्मक अध्ययन कठिन है. यदि वैज्ञानिक सहयोग उपलब्ध न हो तो कैसे पता चले कि कौनसा गोवंश किस प्रभाव का है ? चिकित्सक और वैज्ञानिक सहयोग करना भी चाहे और उसके पास यंत्र व प्रयोगशाला की सुविधा उपलब्ध न हो ? और हो भी तो सरकारी नीति ही अनुकूल न हो तो ? सरकार का तंत्र और सोच बदलने में समय लगता ही है और वह भी तब जब दिशा विपरीत हो. यदि हम गोवंश की पहचान के बारे में अनुभव व परम्परा ज्ञान से जानते भी हैं तो उसे सिद्ध या स्थापित कैसे करें? अथवा अपने स्वयं के विश्वास और अपने ज्ञान को सही साबित करने के लिए क्या उपाय है ? इसके बारे में कुछ सुझाव है. हम अपने अनुभव और समझ से इसमें और भी बहुत कुछ जोड़ सकते हैं.

– रक्तचाप जांचने वाला एक यंत्र लें. इसका प्रयोग जानने वाले किसे फीर्मासिस्ट, कैमिस्ट या चिकित्सक का सहयोग लें. ५-७ मित्रों को साथ ले लें. सबके रक्तचाप की जांच कवाकर लिख लें. अब २-३ स्वदेशी और २-३ गौएँ विदेशी संकर नस्ल की अलग-अलग समूह में ज़रा दूरी पर बांधें. पहले स्वदेशी गोवंश के पास जाकर सब लोग उन्हें प्यार से उनकी पसंद का आहार खिलाएं और सींगों से पूंछ की और हाथ फेरते रहें. १०-१२ मिनेट बाद फिरसे रक्तचाप की जांच करें और लिख लें. अब विदेशी गोवंश के पास जाकर यही क्रिया दोहराए. लौट कर फिरसे सबका रक्तचाप देखें. यदि रक्तचाप बढ़ जाए तो समझ लें कि विदेशी गोवंश विषाक्त प्रभाव वाला है. स्वदेशी पर हाथ फेरने से रक्तचाप सामान्य होने लगे तो समझे कि वह लाभदायक प्रोटीन वाला है.

ऐसा करते समय गोवंश का सही विवरण भी लिखें जिससे आप विषय को आगे ठीक से वर्णित कर सकें.

– दुसरे प्रयोग में तीन पौधे एक ही प्रकार के चुनें. अब दोनों प्रकार के गोवंश का मूत्र अलग-अलग किसी पात्र में एकत्रित करें. एक लीटर गोमूत्र में १० ली. पानी मिलाये और उस पर लेबल लगा कर रख दें कि वह किस गो का है. अब एक पौधे में प्रातः सायं देसी गो वाला और दुसरे में विदेशी गो वाला तथा तीसरे में सादा पानी डालते रहें. यदि विदेशी गो मूत्र से पौधा मरे या कमज़ोर हो तो वह विषाक्त है. तीनों पौधों का १० दिन का विवरण लिख कर रखें. कैमरा मिले तो फोटो भी उतारें. अनुमान यह है कि विदेशी गौओं का दूध, गोबर, गोमूत्र, स्पर्श विषाक्त होने के कारण पौधों, पर्यावरण व मनुष्यों पर इसके दुष्प्रभाव होते हैं.

– तीसरे प्रयोग में ३ पात्र ५-५ किलो के लें. एक में स्वदेशी गो का १ कि. गोबर, १ ली गो मूत्र डालें. अब इसमें १५० ग्राम गुड और १५० ग्राम उर्द साबुत का आटा डालें. गुड पशुओं वाला डालें. दाल का आटा न हो तो दाल को रात को भिगो कर प्रातः पीस लें. इसी प्रकार दूसरे पात्र में विदेशी गो का गोबर, गोमूत्र डाल कर बाकी सामान डाल दे. तीसरे पात्र में केवल विदेशी गो का गोबर और मूत्र ही डालें, गुड व आटा न डालें. इन पात्रों को बोरी के टुकडे से ढक कर रखें. प्रतिदिन दिन में एक-दो बार इन्हें अलग-अलग डंडे से हिलाते रहें. ८-१० दिन यक क्रिया जारी रखें. तीनो पात्रों पर १-२-३ अंक लगा दें. अब चार पौधें एक जैसे चुनें और उन्हें भी १-२-३-४ न. दे दें. अब रोज़ सायं काल १ न. की खाद १ न. में, २ न. की खाद २ न. में तथा ३ न. की ३ न. में डालते रहें. ४ न. में केवल सादा पानी डालें. * यह खाद डालने से पहले उसे हिला लिया करें और उसमें १० गुना पानी मिला कर प्रयोग करें. अर्थात मानों आपने १०० ग्राम यह तरल खाद एक पात्र से निकाली तो उसमें १० गुणा यानी १ ली. पानी मिला कर खूब हिला लें, तब पौधे में डालें. रोज़ सायंकाल यह क्रिया दोहरायें. अनुमान यह है कि यदि विदेशी नस्ल विषाक्त है तो उसके गोबर और गोमूत्र से बनी खाद से २ व ३ न. के पौधे रोगी, कमज़ोर बनेंगे. वैज्ञानिकों के सहयोग के बिना किसान गो वंश के बारे में सही जानकारी प्राप्त कर सकेंगे.

– दो सामान आकर के कमरों में वायु प्रदुषण की जांच की जाय. एक में स्वदेशी और एक में विदेशी गो को आधे घंटे ( या अधिक ) तक बाँध कर रखे. अब पुनः कमरे की वायु का नमूना लेकर जांच करके तुलना से निष्कर्षों प्राप्त किये जाएँ. संभावना है कि विदेशी गो के कमरे में विषाक्तता बढ़ेगी और स्वदेशी में घटेगी. मीथेन प्रदुषण के झूठ- सच की भी इससे जांच की जा सकती है. जांच यंत्रों और माईक्रोबाईलोजिस्ट के सहयोग के बिना यह प्रयोग संभव नहीं.

अंत में इतना निवेदन है की स्वदेशी गो वंश के गुणों को समझ कर इसकी रक्षा के उपाय प्रत्येक को अपने-अपने स्तर पर करते जाना चाहिए.

9 COMMENTS

  1. माननीय राजेश जी,

    यह लेख महत्वपूर्ण जानकारी से परिपूर्ण है । इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

    अब केन्द्रीय प्रशासन इस विष में अनुकूल विचारों वाला है । ऐसे में क्या आप इस अनुकूलता का कोई लाभ उठा रहे हैं? विशेषतः आपके द्वारा दर्शाए गए प्रयोग राष्ट्रीय स्तर की किसी शोधशाला में करके उनके परिणाम दूरदर्शन द्वारा जन-जन तक पहुँचाए जा सकते हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक सङ्घ के गौ सेवा प्रमुख शङ्कर लाल जी आपकी इसमें सहायता कर सकते हैं ।

    • आपका सुझाव बहुत अच्छा है पर सरकार या शंकर लाल जी से सम्पर्क बनाना भी एक समस्या है. प्रयत्न जारी है.

  2. रमन जी आपका सुझाव उपयोगी है, एक युवा सहयोगी से कहा है, वे शायद आज-कल तक एकाउंट बना देंगे. धन्यवाद

  3. बहुत अच्छा लेख लिखा है श्री मान जी| आपके कुछ अन्य लेख भी पढ़े और उनसे बहुत प्रभावित हुआ हूँ| आपसे निवेदन है के आप Facebook पर भी अपना एक account बनाएं ताकि आपकी आवाज़ अधिक से अधिक से लोगों तक पहुँच सके|

  4. प्रो मधुसुदन जी की टिपण्णी प्रेरक और सारगर्भित है. विश्वास रखें की जल्द ही प्रयोगों के परिणाम सामने आयेंगे. केवल मेरे द्वारा किये प्रयोग पर्याप्त नहीं हैं. अपेक्षा है कि कहीं भी, कोई भी प्रयोग करे और विश्वास से कह सके कि भारतीय और विदेशी गोवंश के बारे में दी जानकारी प्रमाणिक है. इस प्रकार खोया स्वाभिमान और अपनी संस्कृति के प्रति खोया हमारा विश्वास हम प्राप्त करेंगे , जिसकी हमें बड़ी ज़रूरत है. श्रीमान इंसान ने इमानदारी से स्वीकार किया है कि अपनी संस्कृति से प्यार होने पर भी विश्वास का अभाव है. ( कृपया उनकी सुझाई पुस्तक को ज़रूर देखें) हम सब की यही स्थिति है. कारण है आज की शिक्षा और विदेशी हाथों में बिका चालाक मीडिया. अपनी बुधि को इनके जाल से बाहर निकालना सरल नहीं. अस्तु समय के प्रभाव से यह होना ही है. अनंत काल तक दानवी शक्तियों का साम्राज्य चल नहीं सकता.

  5. डॉ. राजेश जी का यह लेख हमारी परम्परा के उपेक्षित विषय पर सही प्रकाश फेंकता है|

    (१)भारत अपनी ही उपेक्षित परम्परा से लाभ उठाये|
    (२) सुझाए गए प्रयोग ही सभीका विश्वास जीतने में सहायक होंगे, उन्हीं पर भार दिया जाए|
    (३) प्रयोग भी अलग अलग जानकार विद्वानों द्वारा किये जाएं| जिससे लोगों की श्रद्धा पक्की हो|
    (४)अर्ध शिक्षित और अशिक्षित ले भागु चिकित्सकों द्वारा जो हानि हुयी है, उसीके कारण जनता की श्रद्धा डग मगा गयी है|
    (५) कोई सर्वाधिक मानक वाली, भ्रष्टाचार रहित संस्था द्वारा, कड़ी परीक्षा के आधार पर, प्रमाण पत्र भी वितरित हो|
    विशेष:
    ==>उन्हों ने सुझाए हुए प्रयोग किये जाने ही चाहिए|
    ऐसे प्रयोग ही सामान्य जनता में आयुर्वेद और पञ्च गव्य चिकित्सा के प्रति विश्वास जगाएंगे|
    डॉ. राजेश जी भी , ऐसे प्रयोग कर सकें तो सब से बड़ा योगदान होगा|
    और अन्यान्य आयुर्वैदिक शोध सामयिकों में उन्हें मुद्रित भी किया जा सकता है|
    गौ माता आपको आशीर्वाद ही देगी|
    ऐसे आशीर्वाद के सामने मेरा धन्यवाद हीन ही प्रमाणित होगा|
    बहुत बहुत धन्यवाद|

  6. समकालीन विषय पर लिखा यह आलेख एक प्रशंसनीय प्रयास है| भारत में पशु-पालन विभाग तथा स्वास्थ्य विभाग को इस ओर ध्यान देना होगा|

    कीथ वुडफोर्ड द्वारा लिखी पुस्तक Devil in the Milk Illness, Health, and the Politics of A1 and A2 Milk पर की गई समीक्षा में बताया है कि भारतीय गाय (Bos indicus) व भैंस में ९९ से १०० प्रतिशत उपयोगी बीटा कैसीन ए2 पाया जाता है और इसी लिए भारत में दूध और दूध से बने पदार्थों का अधिक सेवन होते हुए भी दूध ह्रदय रोग का कारण नहीं है|

    मैं डा: राजेश कपूर के स्वास्थ्य-संबंधी सभी आलेखों से प्रभावित रहा हूँ लेकिन स्वदेशी चिकत्सा में व्यक्तिगत गर्व होते हुए भी मैं इस बारे संशयी रहा हूँ| इस में मेरा कोई दोष नहीं है| आधुनिक युग में उपयुक्त मानकीकरण किसी भी विद्या व विज्ञान को उसका समाज में उचित स्थान दिलवाने में अवश्य सहायक है और इस प्रकार ऐसे अभ्यास से मानव जाति को पूर्ण लाभ होता है| हमारे भारत में उपयुक्त मानकीकरण, उसके संपादन, व उसके कार्यान्वित होने के अभाव के कारण अथवा स्वयं अपनी अज्ञानता के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वदेशी उपयोगिता को संदेह की दृष्टि से देखा गया है| पश्चिम की ओर ध्यान लगाए शनैः शनैः हम अपने आस्तित्व को ही भूले जा रहे हैं|

  7. * लेख में उपरोक्त चित्र विदेशी, विषाक्त ए१ गौ का है. यह होलस्टीन की संकर नस्ल है . सम्पादक महोदय से निवेदन है की इस चित्र को न हटायें मिल सके तो एक चित्र भारतीय नस्ल का भी लगा दें, जिससे पाठकों को दोनों प्रकार के गोवंश को पहचानने में सरलता हो. * इस गौ के सर पर सींग नहीं हैं. महत्वपूर्ण बात यह है कि चंद्रमां तथा अन्य अनेक प्रकार की जीवनीय ऊर्जा को ग्रहण करनें में सींग एंटीना की तरह काम करते हैं. शक्तिशाली भैस और भैसे के सींग तो आप कभी नहीं काटते ? फिर गो के ही क्यों ? इसमें भी कोई शरारत है क्या ?
    * एक और बात जान लें कि दुधारू गो की मृत्यु का बाद उसके सींगों में एक ऐसी अद्भुत खाद ६ मॉस में बनाते है जिसकी केवल ३० ग्राम मात्रा से साधे चार बीघा भूमि उपजाऊ हो जाती है. सींगों द्वारा चान्द्रमान से आकर्षित की गयी अपार शक्तिशाली ऊर्जा के कारण यह कमाल होता है. यह बायो डायनामिक खाद विश्व के अनेक देशों में प्रयोग हो रही है.
    * हम ज़रा विचार करें कि जीवित गो के सर पर ये सींग होने पर कितने प्रभावी होते, कितना उर्जावान बना देते गो के उत्पादों को. तो क्या विषाक्त गो के सींग कटाने से उसका विषाक्त प्रभाव और बढ़ जाता होगा ? यह विचारणीय है.
    * स्वदेशी गोवंश के इतने उपयोगी सींग काटना कहाँ की समझदारी है ? यह भी विचार का विषय है.

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