पहचान खोता लखनऊ

-निशा शुक्ला-
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एक बार मैं बनारस से लखनऊ आ रहा था, ट्रेन लेट होने के कारण मुझे चारबाग स्टेशन पहुंचते-पहुंचते काफी रात हो गई। यही कोई रात के 12 या साढ़े 12 बजे थे। मैं स्टेशन से बाहर निकला। स्टैंड पर रखी बाइक उठाई और अपने कमरे की पर जाने लगा। अभी थोड़ी ही दूर पहुंचा था कि एक राहगीर ने मुझे हाथ देकर रोका और लिफ्ट मांगी। मैंने पूछा कहां जाना है तो उसने कहा अलीगंज, चूंकि राहगीर देखने में ठीक-ठाक घर का लग रहा था औऱ मैं भी उधर ही जा रहा था सो मैंने उसे बाइक पर बैठा लिया। मैं अभी कुछ ही दूरी पर गया था कि मुझे ऐसा लगा पीछ बैठा वह व्यक्ति में पीठ मेरी पर हाथ फेर रहा है, फिर मुझे लगा हो सकता है वह अपना बैग ठीक से रख रहा हो और मेरी पीठ पर हाथ चला गया, यह सोच कर मैंने इसे नजरंदाज कर दिया, लेकिन थोड़ी ही देऱ बाद उसका हाथ मेरे शरीर के अन्य जगहों पर जाने लगा, तो मैंने बाइक रोकी उसे उसकी हरकत बताते हुए बाइक से उतर जाने को कहा जिस पर वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा और बाइक से न उतर कर मेरे साथ मेरे कमरे पर आने की जिद करने लगा। खैर, जैसे-तैसे मैंने उससे छुटकारा पाया औऱ अपने कमरे पर पहुंचा। उसकी इस हरकत से मैं परेशान हो उठा था और सोच रहा कि क्या यह वही लखनऊ है जहां कि सभ्यता और संस्कृति की ताऱीफ करते हमारे बड़े बुजुर्ग नहीं थकते थे। जहां की संस्कृति का डंका देश ही नहीं विदेशों में भी बजता है।

आज जो मेरे साथ हुआ उसके बाद मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया कि क्या यह वही लखनऊ है जो अपनी गंगा- जमुनी तहजीब और हिन्दी उर्दू की मिली जुली भाषा की मिठास के कारण हर किसी के बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। क्या यह वही लखनऊ है जिसकी तमीज व तहजीब की चर्चा दुनिया के कोने-कोने में होती है, क्या यह वही लखनऊ है जिसकी सांस्कृतिक विरासत को देखने के लिए देशी तो क्या विदेशी भी लालायित रहते हैं। शायद नहीं। क्योंकि आज मेरे साथ जो हुआ उसने मेरे दिल में बसी-बसाई लखनऊ की तस्वीर को हटा दिया और सामने आया पाश्चात्य रंग में रंगा लखनऊ। जी हां अपनी नजाकत, नफासत, सभ्यता और संस्कृति के लिए दुनियाभर में जाना जाने वाला लखनऊ आज जिस तरह से पश्चिमी रंग में रंगता जा रहा है वह इस शहर के लिए काफी नुकसानदायक है और यही वजह है कि विश्व पटल पर धीरे-धीरे लखनऊ की तस्वीर धुंधली होती जा रही है। वैसे तो यह शहर विरासत में मिली लखनऊ की संस्कृति के साथ अधुनिकता जीवनशैली को अपने में समेटने की भरपूर कोशिश में लगा है, इसके लिए तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं भी दिन-रात प्रयासरत है, लेकिन आधुनिकता की चमक में खोती यहां की संस्कृति के बचाने में उन्हें भी काफी परेशानी का समाना करना पड़ रहा है।

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अभी यह बातें मेरे दिमाग से हट भी न पाई थीं कि एक रोज मैं अपने एक दोस्त के साथ शाम के समय घूमने निकला और सड़कों पर जींस टाप, और मिनी स्कर्ट पहने लड़कियों को लड़कों के साथ हाथों में हाथ डाले घूमते देखकर मुझे बड़ा अफसोस हो रहा था कि आज लखनऊ शहर कहां से कहां पहुंच गया। आज यहां कि महिलाओं में हया और अदब तो जैसे रह ही नहीं गई हो। अदब के चलते अपने से बड़ों के सामने सिर उठा कर बात न करने वाले युवा आज उनके साथ बैठकर शराब, पान, मसाला खाने में तनिक भी गुरेज नहीं करते बल्कि ऐसा करने में वह गर्व का अनुभव करते हैं। लडकियों के साथ फ्लर्ट करना, नाइट क्लब में रात बिताना, पब जाना अब यहां के युवाओं की जीवनशैली का अहम हिस्सा बन चुका है। और तो और नबाबों के जमाने से चली आ रही पहले आप वाली परंपरा भी अब कही गुम सी होती जा रही है। हालांकि समाज का एक तबका हिन्दी, उर्दू की मिली जुली भाषा, यहां की संस्कृति और पहले आप वाली शैली को बचाने के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम को एकता के सूत्र में पिरोने की कोशिश में लगा है। वह बात और है कि आधुनिकता की चकाचौंध में अंधा हो चुका लखनऊ का एक विशाल वर्ग इन्हें दकियानूस, अनपढ़, गंवार व पिछड़ा हुआ मानता है और इनके साथ उठने बैठने से भी परहेज करता है।

रहन-सहन में कितना बदला लखनऊ

अदब और तहजीब के इस शहर में जन्म लेने, यहां पलने-बढ़ने वालों के व्यक्तित्व में खुद-ब-खुद यहां की संस्कृति रच बस जाती है। जो उनकी बोलचाल व रहन सहन में साफ झलकता है। हांलंकि यहां के रहन-सहन व बोली भाषा में अब वह बात नहीं रह गई हैं। पुराने बुजुर्ग लोग भले ही यहां की संस्कृति को अपने में संजोये हैं, परन्तु युवा पीढ़ी को यहां के रहन सहन, व भाषा का इस्तेमाल करने में शर्म महसूस होती है। मैं देख रहा था कि यहां के युवा अंग्रेजी बोलने, अंग्रेजी स्टाइल में उठने-बैठने औऱ अंग्रेजों के जैसे कपड़े पहनने में फक्र महसूस करते हैं, तो ऐसे युवा पीढ़ी से हम और आप अदब व तहजीब के साथ लखनऊ की संस्कृति को बचाने और उसे आगे बढ़ाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। पुरुषों के साथ-साथ यहां कि महिलाओं पर भी आधुनिकता का रंग चढ़ता जा रहा है।

कहां, वह साड़ी, सलवार सूट, लहंगा पहनने, व परिवार के बीच रह कर परिवार को अपना सब कुछ मान कर जीवन जीने में भरोसा करती थीं, वही अब जींस, टीशर्ट कैप्री पहनकर घर की चाहरदीवारी से बाहर निकल कर अपना वजूद तलाश रही है। हालंकि कुछ हद तक देखा जाए तो यह सही भी है इससे उनमें आत्मविश्वास आ रहा है और वह हर क्षेत्र में खुद के साबित भी कर रहीं हैं। वहीं इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि व पश्चिमी सभ्यता में रंगने के चक्कर में वह अपने परिवार और बच्चों से दूर भी होती जा रही है।

खानपान में आया बदलाव

रहन सहन, बोली व्यवहार के साथ अब इस शहर क खानपान में भी काफी बदलाव आ चुका है। पहले जहां अवध क्षेत्र की एक अलग नबाबी खान पान शैली होती थी, जिसमें विभन्न तरह की बिरयानी, कोरमा, नाहरी कुल्चे, शीरमाल, जर्दा रुमाली रोटी आदि व्यजंन जब थाली में परोसे जाते थे तो वह लोगों की भूख बढ़ा देते थे। लेकिन अब यहां की युवा पीढ़ी इस खाने से दूर भागती नजर आ रही है। आपको बताऊं कि जब में लखनऊ रहने के लिए आया था तो सोचा था कि लखनऊ के बारे में जो बातें अभी तक सिर्फ किताबों में पढ़ी थी या फिर बड़े बुजुर्गे से सुनी थी उसे करीब से देखने-जानने का अच्छा मौका है। साथ ही यहां के नबाबी खान पान का लुत्फ भी उठाने का मौका मिलेगा। यही सोचकर एक दिन मैं अपने लखनऊ के ही रहने वाले एक मित्र के साथ पुराना लखनऊ घूमने निकला। घूमते-घूमते काफी देर हो गई और हम दोनों को भूख लगने लगी तो मैंने उससे कहा चलो कही कुछ खाते है और लखनऊ के नबाबी दौर का कुछ खाना है जिस पर उसने कहा अबे अब यहां के नबाबी खाने में कुछ नहीं रह गया है चल तुझे कुछ अच्छा सा खिलाता हूं, जिसे खाकर तेरा यह नबाबी खाने का भूत उतर जाएगा। पुराने लखनऊ में घूमते समय मैंने यह गौर भी किया कि अब यहां कि नबाबी खाने की दुकानों पर वही भीड़ नहीं थी जो चायनीज के साथ अन्य वेस्टर्न व्यंजनों को परोसने वाले रेस्टोरेटों में थी।

कम हुआ चिकन के कपड़ों का क्रेज

चिकन व जरदोजी यहां की कशीदाकारी का एक उत्कृष्ठ नमूना है या यूं कहा जाए कि यह पुराने लखनऊ का लघु उद्योग है। एक समय था जब यह उद्योग लगाने व यहां पर काम करने वालों की एक हैसियत होती थी, लेकिन आज हालात यह हो गए हैं कि ठेके पर काम कराने वाले तो फिर भी ठीक ठाक स्थिति में हैं पर इस काम को करने वाले कारीगर भुखमरी की कगार पर पहुंच चुके हैं। वजह साफ है कि अब चिकन के कपड़ों की ओर लोगों का रुझान काफी कम हो गया है।

हिन्दू-मुस्लिम एकता में आई दरार

लखनऊ में वैसे तो सभी धर्मों के लोग रहते हैं और इनमें खासा आपसी सौहार्द भी है, यह हिन्दू मुस्लिम बाहुल्य शहर माना जाता है। एक वह दौर था जब यहां हर हिन्दू-मुस्लिम साथ मिलकर त्यौहार मनाते थे। चाहे वह ईद, बकरीद, मोहर्रम, दीपावली होली, बारवाफत या फिर अन्य कोई त्योहार सभी साथ मिलकर हर्षोल्लास के साथ मनाते थे। उनका आपसी सौहार्द देखकर यह पहचान पाना मुश्किल हो जाता था कि इसमें कौन मुस्लिम है और कौन हिन्दू। आपको बताते चलें कि लखनऊ में तमाम ऐसे धामिर्क स्थल भी हैं जो हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक माने जाते हैं। उदाहरण के तौर अलीगंज का हनुमान मंदिर यहां के किसी मुस्लिम नबाब में बनवाया था उसी तरह से यहां बेहता नहीं और उसके पास बने प्राचीन शिवमंदिर का निर्माण सन 1786-88 में नबाब आसिफ उद्दौला के कार्यकाल में उनके प्रधानमंत्री टिकैटराय ने कराया था। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं अब यहां कुछ लोगों को छोड़कर कोई एक दूसरे के त्यौहार में शरीक होना जरूरी नहीं समझता। इसमें भी वह होते हैं जिनकी आपस में गहरी मित्रता होती है। अब दोनों धर्मों के बीच एक गहरी खाई बन गई है। वह आपस में लड़ते तो नहीं है लेकिन एकदूसरे को पसंद भी नहीं करते और इसे हवा देने का काम कर रही हैं तमाम राजनीतिक पार्टियां। जहां सपा के वोट बैंक मुस्लिम वर्ग माना जाता है, वहीं भाजपा की वोट बैंक हिन्दू है। और इस वोटबैंक को बचाने के लिए दोनों राजनीतिक दल एकदूसरे के खिलाफ तरह-तरह की बयानबाजी करने से भी नहीं चूकते। छह दिसंबर 1991 में भाजपा व विहिप के द्वारा अयोध्या में किए बाबरी विध्वंस ने इस खाई को दिन-प्रतिदिन और गहरा किया है। आज भी छह दिसंबर के दिन पूरे प्रदेश में सांप्रदियक दंगे के फैलने के डर से विशेष सतर्कता बरती जाती है क्योंकि मुस्लिम वर्ग बाबरी विध्वंस की बरसीं मनाता है। मैंने लखनऊ की इस तेजी से बदलती हुई फिजा को देख कर काफी बुरा महसूस किया और दुख भी हो रहा कि जिस तमीज औऱ तहजीब की कायल सारी दुनिया है, हमारी अवध की संस्कृति हमारी धरोहर है, उसे बचाकर रख पाने में हम नाकाम होते जा रहे हैं। सच कहूं तो अगर ऐसे ही चलता रहा तो हम धीरे-धीरे अपनी पहचान खो देंगे और अपनी अपनी आने वाली पुश्तों को देंगे एक पश्चिमी रंग में रंगा लखनऊ, जहां लोगों को दिलों में न तो बड़ों के लिए सम्मान होगा और न छोटों के लिए प्यार। होगा तो बस इतना कि लोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए किसी को किसी भी हद तक नुकसान पहुंचा देंगे।

आज के हालात देख कर मैं यही कहना चाहूंगा की लखनऊ वासी पश्चिमी सभ्याता को अफनाए लेकिन उसे जो उन्हें पीछे ढकेलने के बजाय आगे लेकर जाए। जैसे विदेशी तकनीकी कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, समेत अन्य विदेशी चीजें जिससे वहीं दुनिया भर में अपनी पहचाने बनाने के साथ उसके साथ दौड़़ लगा सकें। लेकिन हमें विरासत में मिली इस बेशकीमती संस्कृतिक धरोहर को संभालकर रखना होगा क्योंकि हमारा यह मनना है कि हम कितने भी आधुनिक हो जाएं हमारी संस्कृति हमारा वजूद है, हमारी पहचान है जिससे अलग होकर हम कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते।

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