महिषासुर के नाम पर विचारधारा की जंग?

राजीव रंजन प्रसाद

mahishasurधीमा जहर कैसे फैलाया जाता है और मिथक कथाओं के माध्यम से सर्वदा विद्यमान जातिगत खाइयों को किस तरह चौड़ा किया जा सकता है इसका उदाहरण है इन दिनों महिषासुर पर चलाई जा रही कुछ चर्चाएं। बस्तर में सिपाहियों की शहादत पर दारू छलका कर जश्न मनाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में कुछ वर्षों से ‘महिषासुर डे’ मनाये जाने के नाम पर उन अदृश्य हथियारों से तनाव फैलाने का सिलसिला जारी है जिनका संधान निरुद्देश्य नहीं किया गया। इन दिनों विचारधारा की पटाखा-लड़ियाँ किसी भी गली के कुत्ते की पूंछ पर बाँध कर सुलगा दी जाती हैं फिर तमाशा चालू आहे। क्या आदिवासी समाज को अपने गर्व के लिये अब कुछ गढी जाने वाली कहानियों पर निर्भर रहना पड़ेगा? संघर्ष की वे गाथायें जो एकलव्य से लेकर गुण्डाधुर तक फैली हुई हैं क्या वास्तविक आदिवासी विमर्श नहीं हैं? प्रश्न यह नहीं कि महिषासुर कौन था अथवा दुर्गा बहुसंख्यक समाज की आराध्य देवी हैं; प्रश्न यह भी नहीं कि महिषासुरमर्दिनी की आलोचना होनी चाहिये अथवा नहीं चूंकि हमने राम पर हमेशा ही सीता का परित्याग करने के लिये प्रश्न उठाये हैं, हमने कृष्ण को सदैव से छलिया ही माना है, हमारे अतीत के विमर्शों ने सृष्टि निर्माता कहे जाने वाले ब्रम्हा, पालनकर्ता माने जाने वाले विष्णु यहाँ तक कि संहार करने वाले शिव के कृत्यों पर भी अनेक प्रश्नचिन्ह लगाये हैं। श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणों पर सार्थक बहसें हमेशा से होती रही हैं। इसी बात को आगे बढाते हुए महिषासुर के नाम पर हो रही जहरीली बहसों के संदर्भ में मैं कहना चाहता हूँ कि किसी भी मिथक को इतिहास के साथ जोड़ने के आधारों पर चतुराई पूर्ण मौन क्यों फैला हुआ है? वस्तुत: हम एसे युग में रह रहे हैं जहाँ अध्ययन कम है लेकिन बात बात पर नाक मुँह फुलाने वालों की जमात बढती जा रही है। अब किसी संदर्भ पर तथा उसकी गहराई को समझने के लिये संवाद नहीं होते अपितु नारों के पीछे ही दौड लगाना सभी प्रकार के आन्दोलनों की नियति बन गयी है। संघर्ष का अर्थ कलात्मक पोस्टर किसी ‘विशेष विचारधारा परक कैम्पस’ में लगाना अथवा मोमबत्ती जलाना भर रह गया है।

संदर्भों पर आने से पहले महिषासुर को ले कर फैलाई जाने वाली आज की कहानियों की चीर फाड़ करते हैं। जो कहानी सबसे ज्यादा फैलाई जा रही है उसके अनुसार महिषासुर पश्चिमी भारत के बंग प्रदेश का प्रतापी राजा था। दुर्गा को राजा महिषासुर की हत्या करने में नौ दिन लगे। इन दिनों में देवता महिषासुर के किले के चारों तरफ जंगलों में भूखे-प्यासे छिपे रहे। जिसके कारण दुर्गा को मानने वाले लोगों में आठ दिनों के व्रत-उपवास का प्रचलन है। आठ दिनों तक दुर्गा महिषासुर के किला में रही और और नौवे दिन उसने द्वार खोल दिये और महिषासुर की हत्या हुई। कहानी कहती है कि सवर्णो (?) की बर्बर कार्रवाईयों में बड़ी संख्या मेँ असुर (?) बस्तियाँ जला दी गयी; असुर नागरिकों को निशाना बनाया गया, औरतों का बलात्कार किया गया और बड़े पैमाने पर बच्चों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इन बर्बर कार्यवाहियों से घृणा और आत्मग्लानि से व्यथित, उस स्त्री जिसे दुर्गा कहा गया था..नदी मेँ कूदकर आत्महत्या कर ली.. जिसे विसर्जन का रूप देकर सवर्णो द्वारा महिमामंडित कर दिया गया। मैं यह प्रश्‍न खडा नहीं करना चाहता कि आर्य और सवर्ण क्या पर्यायवाची हैं। हास्यास्पद विवरणों को इतिहास बताने की साजिशों पर प्रतिवाद केवल इस लिये नहीं होते क्योंकि एसे लेखकों से कोई तथ्य की मांग नहीं करता, इनसे किसी को संदर्भ पूछने की फुर्सत नहीं। विर्जन तो गणेश प्रतिमाओं के भी होते हैं तो क्या वह भी आत्महत्या का प्रतीक प्रदर्शन है?

अब कोई पूछे कि किस साक्ष्य को इस कथन का आधार बनाया गया है और कहानी को बंगाल से जोड कर प्रस्तुत किया गया है? क्या केवल इसलिये कि दुर्गा पूजा बंगाल की सबसे समृद्ध परम्पराओं में से एक है। वे कौन सी श्रुतियाँ अथवा तथ्य हैं जो बताते हैं कि महिषासुर वध के बाद बलात्कार हुए और बच्चों की हत्यायें हुईं। किसी भी घटना को कारुणिक और उत्तेजक बनाने के विचारधारापरक प्रचलित ‘शब्द हथियार’ हैं – बलात्कार और हत्या। आईये बंगाल से इतर कुछ स्थलों पर चलते हैं जहाँ यह माना जाता है कि वही वास्तविक स्थल है जिसका कि सम्बन्ध महिषासुर से है। सारे दावे उत्तर-भारत से ही हों क्या जरूरी है? दक्षिण भारत का भव्य एतिहासिक शहर है मैसूर। मैसूर शब्द पर ध्यान दीजिये क्योंकि प्रचलित मान्यता है कि एक समय में मैसूर ही महिषासुर की राजधानी ‘महिसुर’ हुआ करती थी; तर्कपूर्ण लगता है कि महिसुर बदल कर मैसूर हो गया हो। मैसूर के निकट की चामुण्डा पर्वत की अवस्थिति है जहाँ यह माना जाता है कि महिषासुर का वध भी यहीं हुआ था। अब समस्या आती है कि क्या सही है; जो दक्षिण की मान्यता है अथवा दिल्ली और झारखण्ड में ताजा-ताजा जो कहानी बुनी हुई है। अगर इन दोनो ही कहानियों से आगे बढें तो हमें पूर्वी भारत अर्थात हिमांचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में नैना देवी शक्तिपीठ तक पहुँचना होगा। पुराणों के अनुसार देवी सती के नैन गिरने के कारण यह शक्तिपीठ स्थापित हुआ किंतु महिषासुर की कथा भी इसी स्थल से जुडी हुई मानी जाती है तथा उसका वध-स्थल भी यहीं पर माना जाता है। कहानियाँ और भी हैं; झारखण्ड के चतरा जिले का भी यह दावा है कि महिषासुर का वध वहीं हुआ। इसके तर्क में तमासीन जलप्रपात के निकट क्षेत्रों में प्रचलित कथा है कि नवरात्र के समय आज भी यहाँ तलवारों की खनक सुनाई देती है तथा यत्र-तत्र सिंदूर बिखरा हुआ देखा जा सकता है।

जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के कथित विद्वानों द्वारा फैलाई जा रही इन सभी कहानियों से अधिक प्रामाणिक मुझे वह संदर्भ लगता है जो बस्तर की मान्यताओं में अवस्थित है। ज्ञानी विश्वविद्यालय के गुणीजन यह जान लें कि बस्तर के जिस क्षेत्र का संदर्भ मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूँ वह हमेशा से ही जंगली भैंसो के लिये विख्यात रहा है; पुनश्च भैंस अर्थात महिष। अपने विशाल स्वरूप और बलिष्ठ काठी के कारण बस्तर के महिष को कभी दैत्याकार लिखा गया तो कभी उसका विवरण भयावहतम शब्दों में प्राचीन पुस्तकों में प्रस्तुत किया गया है। बस्तर के इन महिषों/जंगली भैंसों पर गल्सफर्ड की डायरी (1860) से लिया गया यह एक विवरण देखें – “इसकी एक सींग साढे अठहत्तर इंच लम्बी होती है। यदि हम मस्तक की खोपड़ी एक फुट चौड़ी माने तो यह सिर से पैर तक चौदह फुट ऊँचा होता है”। फैलाई जा रही नई कहानी के अनुसार महिषासुर पशुपालक समाज का राजा था। यदि इस कहानी का बस्तर से उद्गम माना जाये तो यहाँ के महिष पालतू नहीं थे तथा उनका शिकार किया जाता रहा है। क्या यह संभावना नहीं बनती कि एसे ही किसी आक्रामक महिष के किसी स्त्री द्वारा किये गये शिकार को रोचक काव्य-कथा का रूप दे दिया गया हो? वस्तुत: महिषासुर के वध से जुडी कहानी बस्तर के बड़े डोंगर क्षेत्र से मानी जाती है। इस सम्बन्ध में क्षेत्र के दो वरिष्ठ विद्वानों श्री घनश्याम नाग और श्री जयराम पात्र की पुस्तक ‘बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर – देवलोक बड़े डोंगर”’ से उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। बस्तर में प्रचलित जन मान्यताओं के अनुसार बडे डोंगर के मध्य में स्थित महिषाद्वन्द्व पहाड़ (बोलचाल की भाषा में भैंसादोंद डोंगरी) में दुर्गा और महिषासुर के मध्य अंतिम युद्ध हुआ। इस किंवदंती को अपने क्षेत्र की विरासत मानते हुए स्थानीय आदिवासी भैंसादोंद डोंगरी पर स्थित सिंह के पंजों के अनेक चिन्ह, आक्रामक महिष के अनेक पग चिन्ह, दुर्गा के पद चिन्ह, युद्ध के कारण पत्थरों पर पड़े निशान एवं महिषासुर का वध स्थल सहर्ष दिखाते हैं। इस सभी कहानियों में मिथक और सत्य जिस तरह घुले मिले हैं क्या उन्हें अलग करने का प्रयास किसी विद्वान ने किया है?

हमारे पूर्वाग्रह गहरे हैं तथा हम अपनी-अपनी पहचान की मानसिकताओं के साथ इतने अधकचरे तरीके से जुडे हुए हैं कि यह मानते ही नहीं कि वह सब कुछ जो भारत भूमि से जुडा हुआ है, हमारा ही है; आर्य भी हम हैं और द्रविड भी हम। अपनी ही चार पीढी से उपर के पूर्वजों का नाम जानने में दिमाग पर बल लग जाते हैं फिर किस काम का वह छ्द्म गौरव जो हमारी मानसिकताओं को वर्ण और रक्त की श्रेष्ठताओं जैसी अनावश्यक बहसों में उलझाता है। “मूल निवासी कौन?” इस झगडे का निबटारा तो शायद वह पहली कोषिका भी नहीं कर सकती जिसके विभाजन नें ही यह सम्पूर्ण जीवजगत पैदा किया है। जब यह धरती सबकी एक समान रही होगी तब हर रंग, हर रूप तथा हर नस्ल का मानव यहाँ यायावरी करता हुआ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र भटकता रहा होगा। इस भूमि पर कई घूमंतू मानव प्रजातियों ने कदम रखे; जब द्रविड इस देश में आये यहाँ आग्नेय जाति (अनुमानित मूल स्थान – यूरोप के अग्निकोण) वालों की प्रधानता थी और कुछ नीग्रो जाति (अनुमानित मूल स्थान – अफ्रीका) के लोग भी विद्यमान थे। अत: अनुमान किया जा सकता है कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पहले द्रविड सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान पश्चिम एशिया) में आयीं और पीछे द्रविड-आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान मध्य एशिया) में भी। नाग जनजातियों (अनुमानित मूल स्थान मध्य एशिया) को भी इसी प्रकार का संघर्ष और युद्ध करते हुए भारत भूमि में प्रविष्ठ होना पड़ा। तुर्क-मुगल भी इसी तरह मध्यकालीन भारत की राजनीति में पैठ बना सके और आज भारतीय अल्पसंख्यक समाज का सबसे बड़ा हिस्सा हैं। यही कारण है कि हर समाज एक दूसरे से जुडा हुआ है, एक दूसरे के साथ मिल कर अथवा उससे संघर्ष करता हुआ आगे बढा है। विजयी होने पर एक समाज ने दूसरे पर अत्याचार किये तो पराजित का पलायन होता रहा। साथ ही साथ उसके जीवन संघर्ष की कहानियाँ कभी किंवदंति बन कर तो कभी शिलालेख बन कर सामने आती रही हैं। हर कहानी हम सभी की है तथा उसमे अनावश्यक रूप से काल्पनिक जातीय पहचान को प्रविष्ठ करा कर विद्यमान सामाजिक खाई को चौडा करना मैं बौद्धिजीविक षडयंत्र मानता हूँ, इसे विचारधारा के खास लक्ष्य को हासिल करने के लिये जान बूझ कर फैलाया जा रहा है।

मेरा एसा मानने के कई कारण हैं। इतिहास में दर्ज प्राचीन संदर्भ बताते हैं कि असुरों के गुरु शुक्राचार्य ही आरंभिक आर्य राजा इक्ष्वाकु के पुत्र दण्ड के गुरु भी थे, राम ने केवट जनजाति, शबर जनजाति, वानर, भालू तथा गीध टोटेम रखने वाली आदिवासी जनजातियों के सरदारों से मित्रता स्थापित की तथा रावण के विरुद्ध युद्ध लिया। इन आर्येतर जनजातियों में भी आपसी संघर्ष विद्यमान थे अन्यथा सुग्रीव को बाली का वध करने के लिये राम की आवश्यकता ही नहीं थी? इधर राक्षसों के भी तीन विभेद बताये गये हैं – विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। ये तीनों सैद्धांतिक रूप से एक साथ रावण की सत्ता में प्रतीत होती हैं किंतु रावण के घायल होने पर विराध (असुर) शाखा का प्रसन्नता व्यक्त करना (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6) यह बताता है कि ये आपसी मतभेद के भी शिकार थे। विराध शाखा की उपस्थिति दण्डकारण्य के दक्षिणी अंचल में मानी जाती है। यह भी उल्लेख मिलता है कि रावण ने इन्द्रावती व गोदावरी के मध्य के अनेक दानवों (दनु शाखा) का वध किया था – हंतारं दानवेन्द्राणाम। उपरोक्त उद्धरण यह बताते हैं कि इतिहास पर बचकानी टिप्पणियों से बचना चाहिये। भारत के इतिहासकार इस आओचना के योग्य हैं कि उन्होंने वाद-विचार में उलझे रह कर तथ्यों और सत्यों का मानकीकरण नहीं किया इसी कारण अपनी अपनी व्याक्याओं से किसी भी संदर्भ को आरी बना कर समाज को काटने-बांटने का खेल खेला जाता है। असुर केवल झारखंड की ही विरासत नहीं अपितु सम्पूर्ण दक्षिण भारत की सत्ता का एक समय केन्द्र रहे हैं। महिषासुर पर जेएनयू की अनाप-शनाप बहसों को बस्तर और मैसूर से पहले गुजरना चाहिये। इस प्रकरण से यह भी स्पष्ट होता है कि दिल्ली के कुछ विश्वविद्यालय उस मध्यकालीन मानसिकता में जी रहे हैं जहाँ यह माना जाता था कि राजधानी से कही गयी बात ही परम सत्य है। इन विश्वविध्यालय के इतिहास विभाग पर कोई दबाव बनाये कि अतीत पर पूर्वाग्रह रहित दृष्टि यदि आपके शोध दे सकते हैं तो ठीक; अन्यथा आपकी उपादेयतायें क्या हैं?

5 COMMENTS

  1. sir,
    i do agree with your remarks and comments given on our great king Mahishasur, actually it is a matter of acceptance and blind faith of people towards Durga propagted by brahmines for their own interest . They are making fool to people through religion . Blind faith lead towards supersitions . We should start our mission by taking in confidence to all but in particular to femals.They are suffering a lots and spending a lot of time on religious works. We should the shops of brahmines of Temples.then only we will be free and will to further development ourselfs and to others .
    Let us start the mission from West Bengal,
    Jai Yadav , Jai Madhav
    Arun Kumar Yadav
    PGT, maths
    JNV Gandey
    Giridih
    9431557357

  2. Ye sabhi videshi sadyantra hai jisme vo kamyab bhi ho rahe hai ye sabhi us galat siksha pranali ka dosh hai jo bachho ko di ja rahi hai sirf is desh ko andhkar ki taraf le ja rahe hai saram aani chahiye aise logo ko jo dharam ko na hi samajh paye aur na hi sach ko aur bate karte hai ved puran ki yadi tumne ek din ka chintan bhi kiya hota to sayad aisi bate na karte dhikkar hai tumhe indian hone par jo devi devtao ki aad lekar keval bharat ko todne ki mansa rakhne walo ka sath de rahe hai agar sach me hindu devi devta itne galat hai to unhi devi devtao ki bate hi sach sabit hoti ayi hai fir kyu inke upar itna prasn uthaya jata hai pahli bat unhone keval sach ke sath chalne ke raste bataye hai aur kab is dharam ka nam hindu pada ye bhi nahi malum ye keval hamare dwara diya gaya nam hai bhartiya dharam keval prithvi aur samast praniyo ki seva bhav hi iska udhesya hai………

    • आपलोग हिंदी की टिप्पणीरोमन लिपि में क्यों लिखते हैं?निम्न लिखित लिंक पर जाइए और वहां रोमन लिपि में लिखते जाइए.जैसे जैसे आप कर्सर को आगे बढ़ाएंगे ,वह स्वतः देवनागरी लिपि में परिवर्तित होता जाएगा.
      https://hindi.changathi.com/

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