मूर्ति पूजा विमर्श

moortiकृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री

संसार में मूर्ति पूजा का इतिहास ज्ञात करने पर पता चलता है कि जैन-बौद्ध-काल से पूर्व इसका आरम्भ नहीं हुआ था। चीन के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता और यात्री फाहियान ने सन् 400 ई0 में भारत की यात्रा की थी। उसने देखा था कि पटना में प्रतिवर्ष दूसरे मास के आठवें दिन मूर्तियों की एक सवारी निकाली जाती थी। उसका रूप आजकल की, जगन्नाथ यात्रा में निकाली जाने वाली मूर्तियों की रथ यात्रा के समान था। फाहियान की यात्रा के लगभग 240 वर्ष बाद सन् 640ई0 में दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया। उसके आगमन के समय तक हिन्दुओं में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन हो चुका था। कुछ विद्वानों का मत है कि सबसे पहले मूर्ति पूजा जैनियों ने प्रारम्भ की और बौद्धों ने जैनियों से मूर्ति पूजा करना सीखा। हिन्दुओं ने जैनियों और बौद्धों से मूर्ति पूजा करना सीखा था। महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार पाषाणदि मूर्ति पूजा की जैनियों से प्रचलित हुईं। मूर्ति पूजा के प्रारम्भ के समय के सम्बन्ध में विद्वानों के मतों में थोड़ा़-बहुत अन्तर हो सकता है परन्तु यह निर्विवादित तथ्य है कि वैदिक काल से लेकर महाभारत काल पर्यन्त इस देश में किसी प्रकार की मूर्ति पूजा नहीं की जाती थी। विचारणीय विषय यह है कि मूर्ति पूजा का आरम्भ क्यों हुआ?

महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें सम्मुलास में लिखते हैं- ‘‘जब बडे-बड़े विद्वान्, राजा, महाराजा, ऋषि, महर्षि लोग महाभारात युद्ध में बहुत से मारे गए और बहुत से मर गए तब विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट हो चला। ……केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे सो पाठमात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया, क्योंकि जब अविद्वान् हुए गुरु बन गए तब छल, कपट, अधर्म भी उनमें बढ़ता चला। ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबन्ध बाँधना चाहिए। सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम ही तुम्हारे पूज्यदेव हैं। विना हमारी सेवा किए तुमको स्वर्ग या मुक्ति नहीं मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे ता घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्या वाले धार्मिकों का नाम ब्राह्मण और पूजनीय वेद और ऋषि-मुनियों के शास्त्र में लिखा था उनको अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लम्पट, अधर्मियों पर घटा बैठे। भला, वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूर्खो में कब घट सकते हैं? परन्तु जब क्षत्रियादि संस्कृत विद्या से अत्यन्त रहित हुए तब उनके सामने जो-जो गप्प मारी सो-सो विचारों ने मान ली। तब इन नाम मात्र के ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन-जाल में बाँधकर कहने लगे कि- ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः । (पाण्डव गीता)

महर्षि स0 प्र0 एका0 समु0 में कहते हैं- ‘‘ जब पोपजी अपने चेलो को जैनियों से रोकने लगे तो भी मन्दिरों में जाने से न रुक सके और जैनियों की कथा में भी लोग जाने लगे। जैनियों के पोप इन पुराणियों के पोपों के चेलों को बहकाने लगे। तब पुराणियों ने विचारा कि इसका कोई उपाय करना चाहिए, नहीं तो अपने चेले जैनी हो जायेंगे। पश्चात् पोपों ने यही सम्मति की कि जैनियों की सदृश चैबीस अवतार, मन्दिर, मूर्ति और कथा के पुस्तक बनावें। इन लोगों ने जैनियों के चैबीस तीर्थंकरों के सदृश चैबीस अवतार, मन्दिर, और मूर्तियाँ बनाईं। और जैनियों के आदि और उत्तर पुराणादि हैं, वैसे ही अठारह पुराण बनाने लगे।

वेदों में मूर्ति पूजा का अत्यन्त निषेध- वेदों में मूर्ति पूजा का कोई विधान नहीं है। वेद में तो स्पष्ट घोषणा की गई है-

न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।

अर्थात् जिसका नाम महान् यशवाला है, उस परमात्मा की कोई प्रतिमा परिमाण सादृश्य वा मूर्ति नहीं है।

महर्षि लिखते हैं कि वेदों में परमेश्वर के स्थान पर अन्य पदार्थ को पूजनीय मानने का सर्वथा निषेध किया गया है।

महषि, स0 प्र0 एका0 समु0 में एक शंका ‘मूर्ति पूजा में पुण्य नहीं तो, पाप तो नहीं है।’ का उत्तर देते हैं-‘कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक विहित- जो कत्र्तव्यता से वेद में, सत्यभाषाणदि प्रतिपादित हैं। दूसरे निषिद्ध हैं। जैसे विहित का अनुष्ठान करना वह धर्म, उसका न करना अधर्म है, वैसे ही निषिद्ध कर्म करना अधर्म और न करना धर्म है। जब वेदों से निषिद्ध मूर्तिपूजादि कर्मों को तुम करते हो तो पापी क्यों नहीं?

पुराणों के अनुसार मूर्ति पूजा का स्वरूप-

जहां पुराणों में अनेक स्थानों पर मूर्ति पूजा का विधान मिलता है और एक दृष्टि से देखा जाए तो पुराणों की रचना ही अवतारवाद की स्थापना और मूर्ति पूजा को शास्त्रीय रूप देने के लिए की गई थी, वहीं इन ग्रन्थों में मूर्ति पूजा का अत्यन्त निषेध मिलता है। समस्त अठारह पुराणों का प्रणयन महर्षि वेद व्यास द्वारा किया जाना बताया गया है परन्तु सभी में न केवल सृष्टि के उत्पन्न होने के विषय में भिन्न-भिन्न कथाएं दी गई हैं अपितु प्रत्येक पुराण में दूसरे पुराण के आराध्य देवता की पूजा करने का घोर विरोध किया गया है। निम्न उदाहरण सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं-

पुराणों में मूर्ति पूजा का निषेध-

१- श्रीमद्भागवत, स्कं0 १॰, अ0 ८४ में कहा गया है कि पत्थरों की मूर्तियां देवता नहीं होतीं। वे बहुत काल में भी पवित्र नहीं करती हैं।

२- श्रीमद्भागवत, स्कं0 ३, अ0 २९/२१-२२ में कहा गया है कि सर्वप्राणियों में जीवात्मा रूप में मैं व्याप्त रहता हूँ। जो मेरा निरादर करके मूर्ति का पूजन करते हैं, यह विडम्बना है। मैं सबकी देह में रहने वाला हूँ। जो मनुष्य मुझे त्याग कर प्रतिमा का पूजन करते हैं, वे अपनी अज्ञानता से राख में हवन करते हैं।

३- देवी भागवत, स्कं0 ९, अ0 ७/४२ में कहा गया है-

न ह्यम्बमयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः।

ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ता क्षणादहो।।

अर्थात् पानी के तीर्थ नहीं होते, मिट्टी और पत्थरों के देवता नहीं होते, वे किसी काल में भी पवित्र नहीं करते हैं।

पुराणों में आराध्य देवता से भिन्न अन्य देवताओं की पूजा का विरोध- कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं-

१- गणेश पूजा का निषेध-

योऽमूद् गजाना गणाधिपतिर्महेशात् तं भजन्ति मनुजा वितथप्रपन्नाः।

जानन्ति तेन सकलार्था फल प्रदात्रीः त्वां देवि विश्व जननी सेवनीयाम्।।

अर्थात् जो गणों के अधिपति शिवजी से पैदा हुआ है, उस गणेश जी की मूर्ख लोग पूजा करते हैं, वे सकल कला वाली एवं फलदात्री आपको नहीं जानते (इसलिए मूर्खतावश पूजा करते हैं)। पौराणिकों के समस्त मंगल कार्य गणेश पूजा से प्रारम्भ होते हैं, परन्तु देवी भागवत (५-१९-२॰) में गणेश पूजा का निषेध है।

२- विष्णु पूजा का निषेध-

शप्तो हरिस्तु भृगुणा कुपितेन कामं मीनो बभूव कमठः खलु शूकरस्तु।

पश्चात्नृसिंह इति यच्छल कृद्धरायां तान्सेवितान्जननि मृत्यु भय न किं स्यात्।।

अर्थात् जिस विष्णु ने भृगु के शाप से मछली, कछुआ, शूकर और नृसिंह के अवतार धारण किए और पीछे वामनादि बनकर संसार में छल किया, उस विष्णु के अवतारों की जो भक्ति करेंगे, उन्हें मृत्यु भय क्यों नहीं प्राप्त होगा? देवी भागवत (५-१८-१८)

३- ब्रह्ममा और शिव की पूजा का निषेध-

अनचय्र्या ब्रह्मारुद्राद्या रजस्तमोविमिश्रिताः।

त्वं शुद्धसत्त्वगुणवान् पूजनीयोग्रजन्मनाम्।।

अर्थात् ब्रह्मा और शिव रजोगुण और तमोगुण से युक्त हैं, अतः ये पूजने योग्य नहीं हें। हे विष्णु! आप सतोगुणयुक्त हो, अतः आप ही ब्राह्मणों द्वारा पूजे जाने योग्य हो। पù पुराण(उ0 ख0 अ0 २६३/६॰)

पुराणों में आपस में अत्यन्त विरोध और साम्प्रदायिक प्रतिद्वंदिता है जिसके अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। उपरोक्त दृष्टान्तों से यह सिद्ध होता है कि चाहे आदिकाल में मूर्तिपूजा का कुछ भी कारण रहा हो परन्तु आगे चल कर इसका व्यावसायिकता में विस्तार हुआ और यही कारण है कि प्रत्येक पुराण में दूसरे पुराण के आराध्य देव की कटु आलोचना करते हुए अन्य देवों की पूजा न किए जाने सम्बन्धी बातों का कठोर रूप से उल्लेख किया गया है। धन कमाने की यही लोलुपता और पौराणिक काल की साम्प्रदायिक ईष्र्या आगे चल कर भारत के पतन का कारण बनी। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा अपनी पुस्तक, ‘परापूजा’ में मूर्ति पूजा की कड़ी आलोचना की गई है। इस पुस्तक मे मूर्ति पूजा सम्बन्धी विरोध इस प्रकार है-

१- पुराणों का वाक्य है- प्रतिमा-पूजा अधम है, स्तोत्रों का जपना मध्यम है, वेद-पूजा सर्वोत्तम है, महात्माओं की पूजा ‘सोऽहम्’ है।

२- तीर्थ, पशुयज्ञ, लकड़ी, पत्थर और मिट्टी की मूर्तियों में जिनके मन लगे हैं, वे मनुष्य अज्ञानी हैं।

३- पत्थरों से एक स्थान में बांध कर और देव को पाषाण बना कर, अरे पण्डित! कह तो सही, वह देवता कहाँ पर रहता है?

श्री शंकराचार्य ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर ईश्वर के साकार होने का खण्डन किया और दावे के साथ कहा कि परमेश्वर सर्वाधार, और सर्वव्यापक है परन्तु इस देश दुर्भागय ही कहा जाना चाहिए कि उनके उत्तराधिकारियों ने उनके किसी भी सदुपदेश को नहीं माना और देश की भोली जनता को मूर्ति पूजा और अन्धविश्वास के गहरे कुएं में धकेल दिया। उनके द्वारा स्थापित चारों मठों को चार तीर्थ घोषित कर मूर्ति पूजा का पहले से भी अधिक व्यापक प्रचार व प्रसार किया। श्री शंकराचार्य ने वैदिक धर्म की पुनः स्थापना का प्रयास किया था। इन पोपों की लीला से यह सपना साकार नहीं हो पाया। ऐसे में उन्नीसवीं शदी में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म की पुनः स्थापना का ध्वज अपने पावन हाथों में दृढ़ता से पकड़ा। उन्होंने वेदों के आधार पर परमेश्वर का सत्य स्वरूप को हमारे समक्ष रखा जो निम्न प्रकार बताया गया है-

परमेश्वर का सच्चा स्वरूप-

यजुर्वेद (४॰/८) में परमात्मा के विषय में कहा गया है-

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँशुद्धमपापविद्धम्।

अर्थात् परमात्मा सबमें व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सबका अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन आदि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। यह सगुण स्तुति अर्थात् जिस-जिस गुण सहित परमेश्वर की स्तुति करना वह सगुण, अकाय अर्थात् वह वह कभी शरीर धारण व जन्म नहीं लेता, जिसमें छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता है।

महर्षि ने वेद मंत्रों के आधार पर कहा कि परमेश्वर सच्चिनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, सर्वव्यापक और नित्य आदि अनेकानेक गुणों से युक्त है। परमेश्वर आप्त-काम और पूर्णकाम है। परमात्मा में कोई कामना नहीं है जिसे उन्हें पूरा करना हो। अथर्ववेद में परमात्मा के विषय में कहा गया है-

अकामो धीरो अमृतः स्वयंभू रसेन तृप्तो न कुतश्चनेनः। अथर्व0 10.8.44

इस मंत्र का भावार्थ यह है कि परमेश्वर अकाम हैं, सारी कामनाओं से रहित हैं, उन्हें अपने लिए किसी वस्तु को प्राप्त नहीं करना है, वे धीर हैं, संसार के किसी भी परिवर्तन से उनमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता, वे सदा एक-रस रहते हैं, वे अपनी समावस्था को नहीं खोते हैं, वे मृत्यु से रहित हैं, स्वयंभू हैं- अपनी सत्ता का हेतु स्वयं ही हैं, उनकी सत्ता में और कोई कारण नहीं है, उन्हें किसी ने बनाया नहीं है, वे सदा से स्वयं ही चले आ रहे हैं, वे आनन्द से तृप्त हैं, परिपूर्ण हैं अर्थात् कहीं से भी किसी प्रकार की कमियों वाले नहीं हैं।

मूर्ति पूजा के प्रचलन से लोगों को यह बताया जाता है कि यदि मन्दिर में प्रसाद या रुपयों का चढ़ावा देंगे तो परमेश्वर प्रसन्न होकर उन्हें मनवांछित फल प्रदान करेंगे। यह बात उनके हृदय में बैठ जाती है और वे उपासना को व्यापार की वस्तु समझ बैठते हैं। वे समझते हैं कि परमेश्वर को प्रशंसा और कीर्तिगान चाहिए, जिसे प्रदान कर वे उससे अपना कोई भी प्रयोजन सिद्ध कर सकते हैं। परमेश्वर न तो प्रशंसा के भूखे हैं और न ही उन्हें किसी प्रसाद आदि से संतुष्ट किया जा सकता हैं। साथ ही वे परमात्मा की कर्मफल व्यवस्था से भी परिचित नहीं रहते हैं। यह सिद्धान्त निम्न प्रकार है-

कर्मफल भोग का सिद्धान्त-

वैदिक धर्म के अनुसार के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के लिए ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था परमात्मा के सार्वभौम नियमों द्वारा संचालित होती है। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु फल परमात्मा के अधीन है। उसे शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए मूर्ति पूजा निरर्थक है। परमात्मा का साक्षत्कार पांचों ज्ञानेन्द्रियों से नहीं किया जा सकता है। यदि उसका साक्षात्कार करके मोक्ष मार्ग पर बढ़ना है तो इसके लिए उसकी उपासना करनी चाहिए। विद्या और तप से अपने आत्मा को शुद्ध करके परमात्मा के गुणों का चिन्तन करते हुए उसमें ध्यान लगा कर समाधि की अवस्था तक पहुंचना ही उपासना का वास्तविक प्रयोजन है। मूर्ति पूजा- मृतक श्राद्ध, तर्पण, तंत्र विद्या, फलित ज्योतिष, गुरुडम, जातिवाद, सतीप्रथा, बालविवाह, पशुबलि आदि कुप्रथाओं और अन्धविश्वासों से बड़ा अज्ञान और पाखण्ड है। यह इस देश के पतन का सबसे बड़ कारण रहा है। इस अन्धविश्वास को दूर करने में ही राष्ट्र की प्रगति और हमारा आध्यात्मिक कल्याण निहित है।

3 COMMENTS

  1. अगर आपकी बात सच भी मानी जाए तो फिर उन्ही शंकराचार्य ने शिव और दुर्गा स्तुति क्यों की !!!!
    (वैसे कुछ हद तक मैं भी सहमत हूँ कि पुराण आपस में contradictory हैं ..शिव पुराण में सभी देवो की उत्त्पत्ति शिव से कही गयी है तो विष्णु पुराण में विष्णु से,,देवी पुराण में देवी से !!!!)

  2. भारत में मूर्ति पूजा के आरम्भ काल से सम्बन्धित देश में काफी साहित्य उपलब्ध है। वैदिक काल जो कि महाभारत काल तक रहा है, भारत में मूर्ति पूजा तो क्या इसका नाम तक का भी किसी को नहीं था। इसका कारण कि वेद ईश्वर को सचिच्चदानन्द आदि लक्षणयुक्त मानते हैं जिनके अनुसार जड़ पदार्थों का सदुपयोग करना ही पूजा है, अर्थात लकड़ी से फर्नीचर बनाना तथा ईंट व पत्थरों से भवन आदि बनाना। वेदों व इसके मन्त्रों में ईश्वर को प्रसन्न करने व उसकी प्राप्ति के लिए निराकार, सर्वव्यापक व सर्वज्ञ ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने का विधान है। महाभारत काल के बाद व बौद्ध मत के आरम्भ तक भारत में वैदिक मान्यताओं का ह्रास होता रहा। तब तक भी मूर्ति पूजा आरम्भ नहीं हुई थी। सभी यज्ञ करते थे जिसमें हिंसा का प्रयोग होना आरम्भ हो गया था। भेड़ आदि को मार कर यज्ञों में आहुतियां दी जाती थी। इसका भगवान बुद्ध ने अपने समय में विरोध किया। भगवान बुद्ध ने ईश्वर का कहीं व कभी विरोध नहीं किया। वह तो यज्ञों में हिंसा के विरोधी व सामाजिक समानता के पक्षधर थे। उनकी मृत्यु के बाद उन्होंने व जैनियों ने मूर्ति पूजा को आरम्भ किया। इसके भी ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। जब बौद्ध व जैन नास्तिक मतों का प्रभाव बढ़ गया तो स्वामी शंकराचार्य जी ने उज्जैन के राजा सुधन्वा से कहकर नास्तिक मत के आचार्यों से शास्त्रार्थ किये जिसमें उनका विजय व बौद्ध व जैन मत का पराजय हुआ। स्वामी शंकराचार्य जी का मत वैदिक मत था। वह मूर्तिपूजक नहीं थे और न ही उन्होंने मूर्ति पूजा को स्वीकार किया व हि उसको कभी किया ही। जैन मत की प्रतिक्रिया में, पूर्व नाम आर्य और परिवर्तित नाम हिन्दुओं ने जैन व बौद्ध मत का अनुकरण कर मूर्तिपूजा का आरम्भ किया। इसके भी प्रमाण उपलब्ध है। जैन व बौद्ध मत के अनुयायी ईश्वर को न जानते थे और न मानते थे, इसलिये इन्होंने मूर्तिपूजा का आरम्भ किया था। हिन्दूओं ने अपने स्वार्थ के लिए इसको अपनाया, इसके भी आप्त प्रमाण व उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिल जाते हैं। मूर्ति जड़ पदार्थ होने से चेतन ईश्वर का स्थान कदापि नहीं ले सकती। मूर्तिपूजा से मनुष्यों की बुद्धि जड़ हो जाती है, ऐसा वेदों के विद्वान महर्षि दयानन्द का मानना है। आर्यसमाज में वैदिक धर्मी लोग वेदमन्त्रों से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं व उसके गुणों व उपकारों का चिन्तन व ध्यान करते हैं। यही ईश्वर की पूजा है। ईश्वर का ध्यान ही उसकी सच्ची पूजा है। उसकी कल्पित मूर्ति बनाकर कृत्रिम प्राण प्रतिष्ठा आदि करना व उस पर जल, फल, फूल व पत्तियां, अक्षत व अन्न तथा धन चढ़ाना किसी प्रकार से भी ईश्वर की पूजा सिद्ध नहीं होती। दूसरी बात यह भी है कि मूर्ति या तो श्री रामचन्द्र जी की, या श्री कृष्ण जी की या शिवजी अथवा विष्णु जी की बनाई जाती हैं। यह ऐतिहासिक पुरूष थे जो कि संसार के जन्म व मृत्यु के नियम का पालन करते हुए मृत्यु को प्राप्त होकर पुनर्जन्म या मोक्ष को चले गये। अब यदि उनकी मूर्ति पूजा की जाये तो यह सम्भव नहीं है कि उनको इसका कुछ ज्ञान भी होगा। भावना कर लेने व मान लेने से कोई बात सत्य नहीं हो जाती। ईश्वर को तो उसका अध्ययन कर व उसके गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उसकी वेदाज्ञानुसार आचरण कर ही प्रसन्न किया जा सकता है और जीवन को सुखी व आनन्दित किया जा सकता है। मूर्तिपूजा पर विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थ हैं। यह भी जानने योग्य है कि इस मूर्तिपूजा व फलित ज्योतिष आदि के कारण ही हम असंगठित, गुलाम व पराधीन हुए थे और हमारी माता-बहिनों व पितर पूर्वजों का नाना विध अपमान हुआ था। अतः देशोन्नति, समाजोन्नति व मनुष्योन्नति हेतु मूर्तिपूजा छोड़कर एक सर्वव्यापक, निराकार तथा सर्वान्तर्यामी ईश्वर की पूजा व ध्यान करना ही श्रेयस्कर है। यहां यह भी बता दें कि वेद ही नहीं सभी दर्शनों, उपनिषदों आदि में कहीं भी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। यदि कहीं कुछ मिलता है तो वह प्रक्षेप होने के कारण हो सकता है। जहां तक मन्दिरों की बातें हैं, संसार में ऐसा कोई मन्दिर नहीं जहां मूर्तिपूजा होती रही हो और वह एक या दो हजार वर्ष से अधिक पुराना हो। बुद्ध व महावीर जैन काल से पूर्व भारत या संसार कहीं मूर्तिपूजा के होने का कोई प्रमाण नहीं है और न हि कहीं कोई दो हजार वर्ष से अधिक पुराना मन्दिर विद्यमान है। हमने अपने यह विचार श्री सुनील पटेल जी की प्रतिक्रिया को पढ़कर प्रकट किये हैं। यह भी बता दें कि यदि प्राचीन भारत में मूर्तिपूजा होती तो महर्षि पतंजलि को योग दर्शन लिखने की आवश्यकता न पड़ती और फिर वेद व उपनिषद आदि में मूर्तिपूजा के समर्थन में मन्त्र व श्लोक भरे हुए होते। हमने यह विचार निष्पक्ष भाव व समाज हित में प्रकट किये हैं जिसका आधार हमारा प्रमाणिक ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन है।

  3. शास्त्री जी ने अच्छा विषय उठाया है. हमको इसको विस्तृत में देखना होगा. भारत में मूर्ति पूजा कबसे हो रही है, यह चर्चा का विषय हो सकता है. आज के और पुराने भारत में बहुत अंतर है. आज भी पुरातत्व विभाग को हजारो साल पुराने मंदिर सिर्फ भारत में हे नहीं बल्कि यूरोप में भी मिल रहे है, यह प्रमाणित करता है की मूर्ति पूजा दो – ढाई हजार साल नहीं बल्कि हजारो हजारो सालो से हो रही है. रही बात वेदों उपनिषदों की तो संस्कृत श्लोको में समय साथ साथ बदलाव भी किया गया होगा, हो सकता है. अंग्रेजो, मुगलों के दवाव में जानकार कुछ शब्दों के फेरबदल से मतलब बदल सकते है. यह तो बहुत विस्तृत चर्चा का विषय है जिसे बहुत बहुत जानकर ही शास्त्रार्थ कर सकते है.

    भारत में १८३५ के बाद से अंग्रेजी शिक्षा जो मेकाले के द्वारा चालू की गई है जिसने शिक्षा व्यवस्था को, समाज को छिन भिन्न कर दिया है. ऐसे में मूर्ति पूजा ही है जिसने भारतीय समय को इकठा कर के रखा हुआ है और समाज एक है. आज की भागमभाग की जिन्दगी में जब व्यक्ति खुद के लिए कुछ वक्त नहीं निकल सकता है तो मूर्ति पूजा के द्वारा भगवान् की पूजा करके प्रसनचित हो जाता है और सकारात्मक उर्जा महसूस करता है.

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