यदि आज महामति चाणक्य होते तो

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भाग-1   chanakya

आज की राजनीति में कांट-छांट, उठापटक, तिकड़मबाजी से काम निकालने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कुटिल नीतियों से, छल-बल से, दम्भ से, पाखण्ड से अन्याय से, अत्याचार से किसी भी उचित अनुचित ढंग से अपने वैचारिक विरोधी को नीचा दिखाने की इस प्रवृत्ति को ही आज के राजनीतिज्ञों ने कूटिनीति की संज्ञा दे दी है। हमारे समाचार पत्रों में भी उपरोक्त गुणों से संपन्न व्यक्ति को ‘चाणक्य’ कह दिया जाता है। इससे हमने चाणक्य को उपरोक्त गुणों का ही पर्याय मान लिया है। वस्तुत: ऐसा है नही।
महामति ‘चाणक्य’ के विषय में ऐसा मानना उस महान व्यक्तित्व के स्वामी महामानव का अपमान और तिरस्कार करना तो है ही साथ ही अपने गौरवपूर्ण अतीत के प्रति अपने बौद्घिक दीवालियेपन का परिचय देना भी है। हम भारत के लोग क्योंकि अपने अतीत से जुड़कर देखने में कई बार हीनता का अनुभव करते हैं, इसलिए ऐसे बौद्घिक दीवालियेपन का प्रदर्शन करते हुए हमें किसी प्रकार के हीनभाव का अनुभव तक नहीं होता। हमने बस इतना सुना है कि साम, दाम, दण्ड, भेद की चतुरंगिणी नीति का उद्घोष ‘चाणक्य’ का रहा है तो हम नितांत अवसरवादी लोगों को भी इन नीतियों का सहारा लेते देखकर उन्हें ‘चाणक्य’ कह डालते हैं। ‘चाणक्य’ कौन था? उसका आदर्श क्या था? उसका जीवन कैसा था? आदि-आदि प्रश्नों का उत्तर जानने और उसके आदर्श जीवन को समग्र संसार के समक्ष उद्घाटित करने की समझ हमारे पास नही है। कृतघ्नता की भी हद होती है। मैकियावली, प्लेटो, अरस्तु के साथ चाणक्य का तुलनात्मक अध्ययन करना हमें हमारे विदेशी आकाओं ने सिखाया था, दुर्भाग्यवश हम आज तक उसी तुलनात्मक अध्ययन में अटके, भटके, लटके और पटके खड़े हैं। उससे आगे बढ़कर देखने, चलने और संभलने की आवश्यकता थी जो पूरी नही की गयी। मैकियावली जैसे उपरोक्त वर्णित विदेशी विद्वान ‘चाणक्य’ की महामति से उत्पन्न वैचारिक भोज के उच्छिष्ट भोजी विद्वान हैं, उन्हें ‘चाणक्य’ के साथ रखकर चाणक्य को छोटा करके समझना मूर्खता की बात है।
व्यक्ति के विचार जितने पवित्र, निर्मल और सर्वमंगल कामना के भावों से भरे होते हैं उतने ही अनुपात में वे मानव को अमरता प्राप्त कराने में सहायक होते हैं। महामति ‘चाणक्य’ के विचार राजनीति के क्षेत्र तक ही सीमित नही थे। उनके विचार सामाजिक क्षेत्र में हमारे पारिवारिक संबंधों यथा पति-पत्नी और पिता पुत्र के संबंधों की मार्मिकता तक फैले थे। जिनमें भारतीय मनीषा में पल्लवित कर्मबंधन के व्यापक सिद्घांत का पुट स्पष्ट परिलक्षित होता है। राजनीति और राष्ट्र की सीमाओं के पार चलने वाली कूटनीति से लेकर परिवार तक का व्यापक दृष्टिकोण किसी ‘चाणक्य’ का ही हो सकता है-मैकियावली अथवा प्लेटो का नही?
‘चाणक्य’ ने लगभग असंभव संकल्प लिया था-तत्कालीन राजसत्ता को उखाड़ फेंकने का। समय ने सिद्घ किया कि उसने वह संकल्प पूर्ण किया-इतिहास की साक्षी हमारे पास है। हमारी बात यद्यपि दो वाक्यों में पूर्ण हो गयी किंतु उस महामानव को इस बात को पूर्ण करने में कितना परिश्रम करना पड़ा होगा, कितनी बुद्घि लगानी पड़ी होगी, इसे उसके अतिरिक्त कोई नही जानता। महानंद को गद्दी से हटाने और चंद्रगुप्त मौर्य के राजसिंहासन पर बैठाने का उसका अपना पुरूषार्थ सचमुच वंदनीय है।
यह लेखनी ‘चाणक्य’ की संपूर्णता का परिचय नहीं करा सकती। आज राष्ट्र चहुं ओर से अरक्षित है। महानंद ने ‘चाणक्य’ को 1947 ई. में अपमानित किया था, फिर 1962 में अपमानित किया। हमारे ढेर सारे ‘चाणक्यों’ ने संसद में शपथ ली कि भारत की एक एक इंच जमीन को शत्रु से वापस कराके दम लेंगे। कुछ ‘चाणक्य’ चले गये और कुछ जीवित होते हुए उस संकल्प को भूल चुके हैं अथवा भूलने का नाटक कर रहे हैं। किसी भी ‘चाणक्य’ ने चोटी नही खोली थी कि जो उसे हर क्षण अपने लक्ष्य और संकल्प का अहसास कराती रहती कि सोना नही है, प्रमाद नही करना है, व राष्ट्र के प्रति छल नही करना है। ‘चाणक्य’ की विरासत के वारिस वातानुकूलित भवनों में बैठकर भारत मां की उस बलात प्रसव पीड़ा को भूलकर सो गये हैं जिसके कारण भारत को विखण्डन का गहरा सदमा झेलना पड़ा था। जो कौमें अपने राष्ट्रपुरूषों के प्रति तिरस्कार का भाव रखते हुए उनके उपयोगी विचारों को पुस्तकों तक सीमित छोड़ देती है, उनके साथ ऐसा ही हुआ करता है। हमने अपने संविधान के निर्माण में अपने महामानवों के उपयोगी विचारों को समाविष्ट नही किया, यहां के इतिहास की, यहां के भूगोल की, सामाजिक परिस्थितियों की पूर्णत: उपेक्षा की। लंगड़ी लूली राष्ट्रीयता का परिणाम हमारे सामने है।
आतंकवाद का विषधर हमारे लिए प्राणलेवा बन रहा है। छाती पर बैठकर दाल दलने वाले भी यहां का अन्न खा-खाकर विषैले नाग बन चुके हैं। मजहबी झण्डों के नीचे सिमटती दुनिया के सामने भारत विश्व में मित्रों के होते हुए भी अकेला सा है, उसके शत्रु बढ़ रहे हैं। भारत पर विदेशी ऋण का बोझ दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। घोटालेबाज राष्ट्र के कर्णधार बन चुके हैं। एक घोटाला शांत नही होता इतने में ही दूसरे की गूंज सुनाई देने लगती है। बाहरी शत्रुओं की अपेक्षा भीतरी शत्रुओं से भारत को अधिक खतरा है। इसका तात्पर्य है कि राष्ट्रवाद की भावना का समुचित विकास नही हो पाया। राष्ट्रवाद के अलम्बरदारों ने जिन्होंने कश्मीर की पीड़ा को पीड़ा के रूप में समझा था और राष्ट्र को उसे उसी रूप में समझाने का प्रयास किया था, आज धारा 370 जैसी विघटनकारी धारा को अपनी मौन सहमति सी दे डाली है। राष्ट्र की अंतरात्मा प्रश्न कर रही है-कि उसका ऐसा विद्रूपित चेहरा क्यों बना डाला गया है? सारी समस्यायें एक बड़ा प्रश्नचिन्ह बन चुकी हैं? यह मानना पड़ेगा कि भारत मां बांझ नहींहुई- वह वीर प्रस्विनी रही हैं और आज भी हैं। न तो उसकी मनीषा की उर्वरा शक्ति पर कोई प्रभाव पड़ा है, और ना ही उसकी कोख और गोद खाली है। पुनश्च आज राष्ट्र संकट के जिस दौर से गुजर रहा है उसमें राष्ट्र सपूत महामति चाणक्य उपनाम कौटिल्य की प्रासंगिकता का रह रहकर बोध हो रहा है। वह होते तो अपने प्रधानमंत्रित्व में उक्त समस्याओं पर उनकी मति क्या निर्णय लेती?
कौटिल्य ने कहा था-चरित्रहीन राजा, तटस्थ प्रजा, संशययुक्त निर्णय और भयमुक्त अपराधी ये चारों किसी भी राज्य को पड़ोसी का आहार बना डालते हैं।
यह सर्वमान्य सत्य है कि ऊपर की सीढ़ी पर बैठे हुए व्यक्ति का अनुकरण नीचे वाले करते हैं। राजा का अनुकरण जनता करती है, जनता का राज हो। हमारे जनप्रतिनिधि चारित्रिक पतन की जिन सीमाओं को लांघ रहे हैं, उन पर प्रतिबंध के लिए चाणक्य चुनाव सुधार विधेयक की नही अपितु चरित्र सुधार विधेयक की अनुशंसा राजा (महामहिम राष्ट्रपति महोदय) से करते। क्योंकि वह जानते थे और यही उनका तर्क भी होता कि ‘सच्चरित्र जनप्रतिनिधि ही राष्ट्र की उन्नति की सबसे बड़ी गारंटी है।’ प्रतिभाओं की राष्ट्र में कभी कमी नही रही आज भी नही है, अवसर की समानता का खोखला नाटक करते हुए उनके अवसरों का दोहन और शोषण कर उन्हें उपेक्षित करते हुए काल के विकराल गाल में जानबूझकर धकेला जा रहा है। महामति चाणक्य ऐसा नही होने देते। वह राष्ट्र की सच्ची पूंजी को संवारकर ऊपर लाते और उसका सदुपयोग करते। चुनाव सुधार विधेयक को वापस कर महामहिम राष्ट्रपति जी ने केन्द्र की राजग सरकार को एक सुनहरा अवसर ऐसा करने के लिए दिया था। किंतु वह दुर्भाग्यवश इस अवसर का सदुपयोग नही कर पायी। चाणक्य महामहिम को भी ऐसा अवसर उपलब्ध नही होने देते। यह सब चिंतन का अंतर ही तो है।
सच्चरित्र राजनीतिज्ञों के ही राजनीति में रखने के एक प्रस्ताव मात्र से भारत की कई बड़ी बड़ी समस्यायें समाप्त हो जातीं। भारत पर विदेशी ऋण शैतान की आंत की भांति बढ़ रहा है, यह समाप्त हो जाता। सारे घोटाले समाप्त हो जाते। भ्रष्टाचार समाप्त हो जाता। विकास परियोजनाओं को पूरा करने से राष्ट्र का आर्थिक विकास होता। आर्थिक विकास दर प्रगतिशील राष्ट्रों की भांति नही अपितु विकसित राष्ट्रों की भांति होती। भुखमरी से मर रही जनता असमय मृत्यु का ग्रास नही बनती। भोजन, वस्त्र और आवास की मूलभूत आवश्यकताएं सभी को उपलब्ध होतीं। भारत के लोकतंत्र ने जिन लोगों को भारत का नेतृत्व करने का अवसर प्रदान किया है उससे भारतीय लोक और तंत्र दोनों की ही प्रतिष्ठा को आंच आयी है। लोकतंत्र के पावन मंदिर संसद में यह लोग लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मान्यताओं की धज्जियां उड़ाते हैं, मर्यादाओं के साथ क्रूर और घृणित मजाक करते हैं। इनके इस अपरिपक्व और असंयमित आचरण को देखकर भारत का लोक और तंत्र भीतर ही भीतर रोते हैं। (शेष अगले अंक में)

1 COMMENT

  1. I think teachings of Chanakya must be included in schools, colleges and those who go in administration ought to throughly study Kautilya Shastra along with Gita, Ramayan, Mahabharat and Tirukural written by Tiruvalluvar .Tirukural cotains 1300 verses and there are 130 topics and there are 10 verses for each topics. Tirukural is a master peace in Tamil but it has been translated it many languages includindg in English by C.Rajgopalacharya which is available from Bharatiya Vidya Bhavan. This must be read by all to understand to face and solve the problems of daily life and it has universal advise on problems you name it.

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