अबोध सितारें

उस रात में

कहीं कुछ घट रहा था

जो

दिन भर की तपिश के बाद

शीतलता को साथ लिए

निकल पड़ी थी

अपने

मूर्त-अमूर्त सपनों की बारात लिए.

 

उस रात के आँचल में

जड़ें सितारें और

उसके पीछे चलते

कितनें ही रहस्यमय घनें अन्धेरें

स्पष्ट करते चलते थे

परस्पर

एक दुसरें की परिभाषाओं को.

 

अबोध सितारें

अंधेरों के विशाल आकार को

न देख पाते थे

और न ही बुझ पाते थे

उसका अविरल विस्तृत अनहद आकार.

 

अंधेरों को

अबूझ सितारें बड़ा ही सुन्दर देतें थे नाम

और उसके आस पास

बना देते थे

एक

झीना, चमकीला ओरस.

 

सब के बदले

सितारें स्वयं भी

गहन अंधियारों से

आस लगायें रहतें थे

कि

वे छिप जायेंगे उसके आँचल में शिशुवत;

और हो जायेंगे उस विशाल

ब्रह्माण्ड से अलग

जहां उन्हें उसकी विशालता और विकरालता से

लगता है भय.

 

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