जूट उत्पादक किसानों की त्रासदी

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हरे राम मिश्र

पिछले दिनों असम में जूट उत्पादक किसानों और पुलिस के बीच हुए खूनी संघर्ष में कम से कम पांच किसानों की मृत्यु हो गयी और कम से कम पन्द्रह किसान गंभीर रूप से घायल हो गये। करीब पांच सौ किसानों नें गुवाहाटी से करीब 80 किलोमीटर दूर दरांग जिले में बेसिमारी के पास अपने जूट की उत्पादित फसल की सरकार से बेहतर बाजार मूल्य दिलाने की मांग करते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 52 पर जाम लगा दिया था। यह संघर्ष अचानक ही नही हो गया। किसानों द्वारा महीनो से जारी शान्तिपूर्ण प्रर्दशनों के बाद भी जब सरकार नें उनकी बात अनसुनी कर दी तो किसानों ने चक्का जाम करने का प्रयास किया, और इस किस्म के खूनी संघर्ष की नींव पडी।

दरअसल देश के जूट बेल्ट कहे जाने वाले इलाकों में इस साल मौसम की अनुकूलता के चलते जूट की बंपर पैदावार हुई है। जूट की खेती करने वाले किसानों में इस बात की बडी चिंता है कि अगर सरकार ने उन्हे इसके अच्छे दाम न दिलवाए तो कई जूट उत्पादक किसान गहरे कर्ज में डूब कर तबाह हो जाएंगे। किसानो की नराजगी इस बात को लेकर भी है कि स्थानीय बाजारों में ब्यापारी जूट को औने-पौने दामों में ही खरीद रहे हैं और सरकार किसानों को न्यूनतम सर्मथन मूल्य भी नही दिलवा पा रही है। किसानों की बस इतनी ही मांग थी कि सरकार उनके खून पसीने से पैदा किये गये जूट का एक लाभप्रद दाम दिलवाने की गारंटी करे, लेकिन सरकार को यह बात नागवार गुजरी और इस खूनी संघर्ष में किसानों को अपनी जान से हाथ धोना पडा।

दरअसल देश के लिए इस तरह की घटनाए न केवल आम हो चलीं हैं, बल्कि देश के हर एक कोनों में किसी न किसी रूप में आये दिन घट रही हैं। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद देश के किसानों पर जिस प्रकार से आये दिन हमले बढ रहे हैं, इशारा करते हैं कि पूरी की पूरी खेती और उससे जुडा खेतिहर समाज आने वाले समय में काफी नाजुक दौर से गुजरेगा। इस प्रकार की घटनांए खेती किसानी और खेतिहर मजदूरों पर एक गंभीर विमर्श की अनिवार्यता की ओर इशारा कर रही हैं।

यह देश किसानों के लिए, देश के लिए त्रासदी ही कही जाएगी कि हाल के लगभग दो दशकों में खेती का जीडीपी में कुल योगदान घटता ही जा रहा है। जो खेती देश के सत्तर फीसदी आबादी को रोजगार देने में सक्षम हो वही सरकारी उदासीनता और बहुराष्ट्रीय कंपनियो के दबाव के चलते आज हाशिए पर खडी है। दरअसल आर्थिक मोनोपाली के इस दौर में, जहां पूंजी के केन्द्रीकरण की होड चल रही हो, कृषि को तबाह और बर्बाद होना ही है। सरकार के द्वारा एक सोची समझी चाल के तहत ऐसी नीतियां लागू की जा रही हैं जो खेती और किसानी में लगे लोंगों को अर्थव्यवस्था के हाशिए पर जबरिया धकेल रही हैं। यह सरकारी नीतियो का ही परिणाम है जहां बढती उत्पादन लागत ने संसाधन विहीन किसान को अधिक कर्जदार बनाया, और फिर विश्वबाजार में बिचौलियों के बीच किसान को अकेले छोड दिया। इससे किसान की स्थिति दिनों दिन और खराब होती गयी। कुल मिलाकर आम आदमी और खेती की इन्ही किसान विरोधी नीतियों के कारण आज देश का अन्नदाता आत्महत्या करने को विवश है।

बात केवल जूट और कपास जैसी अखाद्य फसलों की ही नही है आज पूरी भारतीय कृषि ही एक गंभीर संकट का सामना कर रही है। खाद्य फसलों का घटता हुआ दायरा यह दिखाता है कि हम बहुत जल्द ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उपर आश्रित हो जांऐगें जिसका सबसे बडा असर बीपीएल और एपीएल खाद्यान्न वितरण जैसी योजनाओं पर पडेंगा।बहुराष्टीय कंपनियॉ देशी कृषि के तबाह होने के बाद जहां मनमाने रेट पर अनाज की सप्लाई करेंगी वहीं दूसरी ओर कृषि के तबाह होने के बाद देश में बेरोजगारों की संख्या भी बढ जाएगी। जो अस्थिरता को बढावा देगी। कुल मिलाकर किसानों के हालात पर अगर एक गंभीर बहस राष्ट्रीय स्तर पर जल्द ही न शुरू हुई हम अपनी उस धरोहर को ही जल्द खो देंगे जो हमारी दुनिया में एक अलग पहचान बनाए हुए है। लेकिन हमारा राजनैतिक नेतृत्व, जो बहुराष्टीय का दलाल है क्या उससे यह उम्मीद की जानी चाहिए?

कुल मिलाकर आज हमारा पूरा समाज एक अघोषित किस्म के कृषि संकट से जूझ रहा है। अगर इस पर समय रहते गंभीर बहस शुरू नही हुई तो वह दिन दूर नही जब हम खाद्यान के मामलों पर पूरी तरह से विदेशों पर निर्भर होंगे जो हमारे देश में भुखमरी तो फैलाएगा ही एक गंभीर सुरक्षात्मक संकट भी पैदा करेगा। अफसोस इस बात का है कि हमारा राजनैतिक नेतृत्व बहुराष्टीय कंपनियों के इस समाज विरोधी कृत्य में वफादारी के साथ लगा हुआ है तभी तो उसने उचित दाम मांग रहे किसानों पर गोलियां चलवाई।

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