विपिन जोशी
प्राकृतिक संपदा के साथ छेड़छाड़ करना मनुष्य की प्रवृति बन चुकी है। औद्योगिकीकरण, विकास और इन सबसे बढ़कर उसकी लालच ने उसे अंधा बना दिया है। जमीन के उपर जंगलों की कटाई तो और जमीन के अंदर से अवैध खनन ने धरती को खोखला बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखा है। परिणामस्वरूप भूकंप, बाढ़, सूखा, भूस्खलन और सूनामी जैसी प्राकृतिक आपदओं का कहर सामने आता है। उत्तराखंड देश के उन राज्यों में है जहां भूकंप का सबसे ज्यादा खतरा है। विशेषज्ञ इस समूचे प्रदेश को जोन पांच की श्रेणी में रखते हैं। जहां जान और माल की अत्यधिक क्षति की संभावनाएं रहती हैं। इसके अलावा वर्षा के मौसम में प्रति वर्ष होने वाले भूस्खलन से भी बड़ी संख्या में क्षति होती है। पहाड़ी क्षेत्र होने के साथ साथ यहां हो रहे अवैध खनन भी इसके मुख्य जिम्मेदार हैं। क्षेत्र से होकर बहने वाली गंगा और उसकी उपनदियों के अतिरिक्त गोमती नदी से देर रात रेता व पत्थर की तस्करी आम बात हो गई है। इन नदियों के किनारे बसे गांव व खेती योग्य भूमि पर खतरा मंडराने लगा है। जिन लोगों के खेत नदी के किनारे हैं उनकी चिन्ता जायज है कि भविष्य में यदि सितम्बर 2010 की तरह आपदा आ गई तो उनकी खेती नदी के हवाले हो जायेगी।
जमीन के साथ-साथ आदमी के लिए एक अदद घर भी जरूरी है। परंतु भूमि कटान और बाढ़ के कारण नदी किनारे बसे गांव तैलीहाट के सामने अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती मुह बाये खड़ी है। उत्तराखंड के बागेश्वर जिला अंतर्गत गरूर मंडल स्थित यह गांव अवैध खनन के कारण खतरे मे है। परिणामस्वरूप घरों के करीब से भूमि कटान शुरू हो गया है। लेकिन प्रशासन और सम्बन्धित विभाग सब कुछ मालूम होने के बावजूद भी अजनबी बना हुआ है। स्थानीय मीडिया और भूमाफियाओं की मिलीभगत के चलते अखबारों व टीवी से खनन संबंधित खबरें गायब रहती हैं। मुख्यधारा की मीडिया स्थानीय स्तर पर इस खबर को मुद्दा ना बनाये तो ना सही मैं इसे कम्युनिटी मीडिया के माध्यम से प्रचारित करने की गुस्ताखी कर ही सकता है। ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला भी है। पुराणों में देवभूमि के रूप उल्लेखित यह क्षेत्र सितम्बर 2010 में प्राकृतिक आपदा की जद में था। जिसे आजतक यहां के लोग भूले नहीं हैं। जब भूस्खलन ने भयंकर रूप से तबाही मचाई थी। उस समय गोमती नदी के किनारे बेतहाशा कटान हुआ था। तैलीहाट गांव के समीप राजेसेरा में खेती योग्य भूमि और एक प्रार्थना भवन व माल्दे हाईस्कूल की सुरक्षा दिवार भी इस भूमि कटान का शिकार हुई थी। तब भी यहां आसपास अवैध रूप से रेता-बजरी का खनन जारी था जो आज तक जारी है। शहरीकरण का विस्तार होगा तो भवन भी बनेंगे ही और निर्माण कार्य भी होंगे जिसके लिए रेता-बजरी तो चाहिए परंतु प्रशासनिक तौर पर यह तय होना चाहिए कि नदी किनारे बसे गांवों के समीप से बजरी व पत्थर का व्यावसायिक प्रयोग ना हो, नदी में भारी वाहनों के रात्रीकालीन आवाजाही पर रोक लगे। वन अधिनियम और लागू विधिक अधिनियमों को ताक पर रख कर अधिकारियों की जेबें गरम कर नदी को खोखला करने की कवायद पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि तैलीहाट गॉव में सातवीं सदी के स्थापत्य व शिल्प की जीवंत कहानी बयां करने वाले तीन विश्वविख्यात मंदिर हैं। जिनमें सत्यनारायण मंदिर तो नदी के मुहाने पर ही अवस्थित है। यदी खनन कार्य नहीं रोका गया तो मुमकिन है कि नदी की तीव्र लहरों में गांव के साथ मंदिर का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाये। स्थानीय नागरिकों को भी ललचायी गिद्ध दृष्टि को त्यागना होगा। बैजनाथ गांव विश्व पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है इसे धाम का दर्जा भी प्राप्त है। दूसरी ओर गांव वालों को भी इस संबंध में जागरूक होने की आवश्यकता है। उन्हें अपने घरों का कचरा नदी में डालने से परहेज करना चाहिए। ज्ञात हो कि इन कचरों के कारण जहां नदी प्रदूषित हो रही है वहीं वर्षा के दिनों में इसके कारण जल-जमाव की समस्या भी उभर कर सामने आती है। बरसात में बजरी निकालो और बाकि समय में नदी को प्रदूषित करो, इस दृष्टि को बदलने की आवश्यकता है।
बेचारी नदी कभी खनन से खोखली हो रही है तो कभी प्रदूषण का दंश झेल रही है। धीरे-धीरे इसका असर नदी के पानी का प्रयोग करने वालों पर तो होगा ही वहीं सिंचाई व्यवस्था भी प्रभावित होगी। इन सारे प्रभावों का असर दिल्ली या देहरादून में बैठे लोगों पर नहीं बल्कि गोमती नदी के आस-पास निवास करने वाले लोगों को ही झेलना होगा। सितम्बर 2010 की आपदा राशि 21 दिसंबर 2011 तक पूर्ण रूप से नहीं बंट पायी है और तो और जो राशि वितरित भी की गई है कि उससे ध्वस्त मकान का दरवाजा तक नहीं बना जा सकता है तो नदी के प्रकोप से जब खेत और गॉव ध्वस्त हो जाएंगे तो क्या होगा? आवश्यकता है कि अपनी भूमि और घरों को बचाने के लिए स्वंय स्थानीय समुदाय को एकत्र होकर कोई ठोस योजना बनानी होगी तभी प्रशासन भी जागेगा और अवैध रूप से हो रहे खनन पर त्वरित रूप से रोक भी लगेगी। (चरखा फीचर्स)
(लेखक उत्तराखंड में स्वंतत्र पत्रकार के रूप में कार्य करते हैं)