नामधारी सम्प्रदाय के सदगुरु जगजीत सिंह जी १२ दिसम्बर को पंचतत्व में विलीन हो गये ।१९२० में पैदा हुये , ९३ वर्ष के जगजीत सिंह जी ने १९५९ में अपने पिता और सम्प्रदाय के चौथे गुरु श्री प्रताप सिंह जी से नामधारियों की यह परम्परा सँभाली थी और ५३ साल तक उस की यश गाथा में वृद्धि करते हुये वीरवार को अन्तिम साँस ली । वे देश विदेश में सामाजिक सांस्कृतिक कार्यों में सदा अग्रणी रहे । भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योगदान था ।वे स्वयं भी एक कुशल शास्त्रीय संगीत गायक थे । पंजाब के अनेक लुप्त हो रहे वाद्य यंत्रों को पुनः: प्रचलित करने और उन्हें लोकप्रिय बनाने में उन्होंने गंभीर प्रयास किये और इसमें उन्हें सफलता भी मिली । विश्व में शाकाहार आन्दोलन के भी वे अग्रदूत थे । यह ठीक है कि शाकाहार नामधारी सम्प्रदाय के मूल सिद्धान्तों की भी आधार भूमि है , लेकिन बीसवीं शताब्दी में शाकाहार को उन्होंने नैतिक मूल्यों से जोड़कर एक नई दिशा दी । वे विद्वानों , बुद्धिजीवियों , कलाकारों व संगीतज्ञों को संरक्षण देते थे और उनका उत्साहवर्धन करते थे । श्री जगजीत सिंह जी अपने शिष्यों का शााब्दिक मार्गदर्शन ही नहीं करते थे बल्कि वे स्वयं अपने आचरण से उसकी अभिव्यक्ति करते थे । यही कारण था कि आज के भौतिकवादी युग में भी केवल उनके सम्प्रदाय के लोग ही नहीं बल्कि सामान्य जन भी उनके प्रति आस्था रखता था । यह परम्परा उन्हें विरासत में मिली थी । नामधारी सम्प्रदाय के प्रथम गुरु श्री बालक सिंह जी ने यह उत्तरदायित्व १८१२ में संभाला था । १८१६ में उन्होंने यह उत्तरदायित्व सदगुरु राम सिंह जी को सौंप दिया । १८१९ में उन्होंने यह विरासत श्री हरि सिंह जी के हवाले की । १८९० में श्री प्रताप सिंह जी इस परम्परा के ध्वजवाहक बने । उसी परम्परा को श्री जगजीत सिंह जी ने प्राणपन से निवाहा ।
दरअसल सदगुरु रामसिंह जी के समय से ही नामधारी सम्प्रदाय देश के सामाजिक आन्दोलन में सबसे ज़्यादा मुखर हो गया था । बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि ब्रिटिश सरकार को हटाने के लिये भारत में स्वदेशी आन्दोलन की अवधारणा सबसे पहले सदगुरु रामसिंह ने ही दी थी । महात्मा गान्धी व दूसरे नेताओं ने बहुत बाद में स्वदेशी को आन्दोलन का आधार बनाया । ब्रिटिश सरकार से असहयोग का आन्दोलन , जिसको बाद में महात्मा गान्धी ने सफलता पूर्वक संचालित किया , भी सबसे पहले नामधारी सम्प्रदाय ने ही प्रारम्भ किया था । गो हत्या के विरोध में नामधारी सम्प्रदाय द्वारा चलाये गये आन्दोलन के कारण अनेक नामधारियों को शहादत का जाम पीना पड़ा । अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें तोप के आगे खड़ा करके उड़ा दिया । सम्प्रदाय के उस समय के सदगुरु श्री राम सिंह जी को जलावतन कर रंगून की जेल में रखा गया और वहीं उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूरी की । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में यह आन्दोलन कूका आन्दोलन के नाम से विख्यात है ।
नामधारी सम्प्रदाय का केवल स्वतंत्रता संग्राम में ही नहीं , पंजाब में सामाजिक कुरीतियाँ को दूर करने में भी अविस्मरणीय योगदान है । यह नामधारी स्मप्रदाय ही था जिसने उन्नीसवीं शताब्दी में ही पूरी सख़्ती से कहा कि जो पैदा होते ही कन्या की हत्या करते हैं , उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाये । उन्होंने यह केवल कहा ही नहीं उसका क्रियान्वयन भी करके दिखाया । विवाह के समय दहेज प्रथा को सख़्ती से रोका । यही कारण है कि आज भी नामधारी सम्प्रदाय में अधिकांश विवाह बिना तड़के भड़क और बिना दहेज के यादें ढंग से ही होते हैं ।
सदगुरु जगजीत सिंह जी ने नामधारी सम्प्रदाय की इन परम्पराओं की केवल रक्षा ही नहीं की बल्कि युगानुकूल उन्हें आगे भी बढ़ाया । वे सम्प्रदाय में जड़ता के वाहक नहीं थे बल्कि कालसापेक्ष प्रगति के पक्षधारी थे । मेरी उनसे मुलाक़ात सत्तर के दशक में थाईलैंड की राजधानी बैंकाक में हुई थी । उन्हें इस बात का दुख था कि स्वतंत्रता संग्राम में नामधारियों की भूमिका को उसके अनुपात में स्वीकारा नहीं गया । वे समाज में मूल्यों के पतन को लेकर भी चिन्तित थे । यह मानना होगा कि वे जीवन पर्यन्त इन्हीं सामाजिक , सांस्कृतिक व आर्थिक मूल्यों के लिये लड़ते रहे । आशा करनी चाहिये की उनकी यह विरासत उनके जाने के बाद भी अक्षुण्ण रहेगी ।
केवल कूका विद्रोह ही नहीं बल्कि देश की आज़ादी के लिए हुए सभी संघर्षों को केवल एक दल और एक परिवार तक सीमित कर दिया गया है.बिरसा मुंडा, रानी गायिदिन्ल्यु एवं ऐसे अनगिनत योद्धा तो दूर की बात है हमारी नयी पीढ़ी तो राजगुरु, सुखदेव और वीर सावरकर के नाम से भी अनभिग्य है.हाँ बोलीवुड की हर छोटी बड़ी घटना की उन्हें जानकारी रहती है.सांस्कृतिक अधोपतन को बदलना बहुत चुनौतीपूर्ण है.