मनमोहन कुमार आर्य
देहरादून के एक गुरुकुल श्रीमद् दयानन्द आर्ष ज्योतिमठ गुरुकुल के वार्षिकोत्सव के अवसर पर 31 मई, 2015 को अपने पुराने परिचित आर्य विद्वान श्री धर्मपाल शास्त्री जी से हमारी भेंट हुई। 84 वर्षीय श्री धर्मपाल जी वर्षों पूर्व देहरादून में आर्यसमाज के पुरोहित रहे हैं। यद्यपि सन् 1970 में इन पंक्तियों क लेखक के आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पहले ही आप देहरादून से मेरठ जा चुके थे परन्तु उसके बाद भी देहरादून में हमारे अनेक मित्रों के यहां नियमित रूप से शास्त्री जी का आना जाना हुआ करता था। अपने मित्रों से हम श्री धर्मपाल शास्त्री जी के बारे में बहुत सी बातें सुनते रहते थे। उनसे फिर भेंट होना भी आरम्भ हो गया और उनके आर्यसमाज के प्रति गहरी निष्ठा के कारण हम विगत 40 वर्षों से उनके सम्पर्क में हैं। विगत 16 वर्षों से तो वह देहरादून के गुरुकुल पौंधा के उत्सव में आ रहे हैं। यहां उनसे भेंट होती है। इसके अतिरिक्त भी अन्य कई स्थानों पर उनसे भेंट हो जाती रही है। इसी प्रकार कल गुरुकुल पौंधा में उनसे भेंट एवं लम्बा वार्तालाप हुआ। इस वार्तालाप के परिणामस्वरूप हमारे मन में उनके प्रति एक लेख के रूप में अपने विचार लिखने का विचार आया जिसका परिणाम आज का यह लेख है।
पण्डित धर्मपाल शास्त्री जी का जन्म 10 अगस्त, सन् 1938 को मेरठ जिले के एक ग्राम ‘सूप’ में पिता श्री राजसिंह एवं माता श्रीमती बुगली देवी जी के यहां हुआ था। अब यह ग्राम जिला बागपत में है। आप 5 भाई एवं 2 बहनें हैं। आपके पिता श्री राजसिंह जी पक्के आर्यसमाजी एवं देश की आजादी के निष्ठावान सिपाही वा सत्याग्रही थे। इस कारण आपको 28 दिन फांसी की कोठरी में तथा ढ़ाई महीने तन्हाई में रखा गया था। वर्तमान में आप ग्राम हरियावाला, काशीपुर, उत्तराखण्ड में निवास करते हैं जो मुरादाबाद रोड पर काशीपुर बस अड्डे से 5 किमी. की दूरी पर है। आपका एक पुत्र चि. विनय और एक पुत्री है। दोनों विवाहित हैं एवं ससन्तान, सुखी एवं सम्पन्न हैं। यद्यपि श्री धर्मपाल शास्त्री जी के जन्म के गांव में आर्यसमाज नहीं था परन्तु गांव के कुछ आर्यसमाजी मिलकर यज्ञ किया करते थे जिससे आप बचपन से ही आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित होकर आर्य विचारों के बन गये थे। पिता का आर्यसमाजी होना भी आपको महर्षि दयानन्द का भक्त बनाने में सहायक रहा।
आपकी कक्षा 5 तक की प्राथमिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। जूनियर हाई स्कूल अर्थात् कक्षा 8 तक की शिक्षा आपने अपने पड़ोसी गांव रमाला के विद्यालय मे प्राप्त की। आपने गुरुकुल आर्य महाविद्यालय, किरठल में एक वर्ष रहकर प्रथमा का अध्ययन किया। इसके बाद सन् 1961-62 में आपने उपदेशक महाविद्यालय, यमुना नगर में स्वामी आत्मानन्द जी के आचार्यात्व में अध्ययन किया। आप देहरादून की ऋषि दयानन्द के द्वारा स्थापित एक आर्यसमाज धामावाला के लगभग 26 वर्ष तक सदस्य रहे। आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश की अन्तरंग सभा में भी आप लगभग 16 वर्षों तक रहे। सन् 1964 में आप देहरादून में आर्यसमाज, धामावाला के पुरोहित बने। तीन वर्ष यहां रहने के बाद आप देहरादून से चले गये थे और कुछ समय बाद पुनः देहरादून आकर लगभग डेढ़ वर्ष तक पुनः पुरोहित का कार्य किया। इस बार देहरादून से आप मेरठ गये और वहां पुरोहित का कार्य करने के साथ आर्यसमाजों में उपदेशों द्वारा प्रचार किया करते थे। सन् 1974 से आप स्वतन्त्र रूप से आर्यसमाज के प्रचार से जुड़ गये। जिन दिनों पं. प्रकाशवीर शात्री जी द्वारा गगा तट पर एक भव्य, वृहत एवं होटल के समान सुविधाओं से पूर्ण आर्यसमाज का निर्माण हो रहा था तो आपने हरिद्वार में यहां की व्यवस्था एवं देखभाल का कार्य किया। आप यहां आर्यसमाज में पुरोहित के रूप में यज्ञ आदि कराने के कार्य के साथ निकटवर्ती आर्यसमाजों में व्याख्यान भी दिया करते थे। सन् 1974 के बाद आपने पूरे देश में व्याख्यान वा उपदेशों के माध्यम से आर्यसमाज की सेवा प्रारम्भ की व वर्तमान में भी देश विदेश में यही कार्य कार्य रहे हैं। भारत के जिन राज्यों के आर्यसमाजों में आपने जा जाकर व्याख्यानों द्वारा प्रचार किया है उनमें उत्तर प्रदेश, हरयाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा, बिहार व बंगाल आदि प्रदेश सम्मिलित हैं। एक बार हम सन् 1992 में अपनी सेवा से जुड़े किसी सरकारी कार्य से मुम्बई व हैदराबाद गये थे। इस अवसर पर हम आर्यसमाज सुल्तान बाजार भी गये थे। वहां समाज का उत्सव चल रहा था। वहां हमें पं. धर्मपाल शास्त्री सहित आर्य भजनोपदेशक पं. ओम्प्रकाश वर्म्मा, यमुनानगर और हैदराबाद के आर्य विद्वान पं. मदनमोहन विद्यासागर जी मिले थे। इन विद्वानों से हम पहले से परिचित थे अतः वहां हमें इस सुखद संयोग को पाकर अतीव हर्ष का अनुभव हुआ था।
सन् 1957 में आर्यसमाज ने पंजाब में हिन्दी सत्याग्रह की घोषणा की थी। पंजाब में हिन्दी की घोर उपेक्षा की जा रही थी व अब भी हो रही है। तब आर्यसमाज एक संगठित तेजस्वी संगठन था। इस सत्याग्रह में आप लगभग 10 सत्याग्रहियों का एक जत्था लेकर गये थे। यहां से आप अम्बाला पहुंचे थे और वहां से चण्डीगढ़ के सेक्टर 22 सी के एक आर्यसमाज में पहुंचे। इस समाज में देश भर से आये सत्याग्रहियों के साथ आप रहे। चण्डीगढ़ में पंजाब में हिन्दी रक्षार्थ प्रतिदिन 200 से 300 लोग सत्याग्रह करते थे। पुलिस के लोग सब आर्य सत्याग्रहियों को पकड़ लेते और अपनी गाड़ियों में भरकर दूर जंगल में ले जाकर छोड़ आते थे। उसके बाद आप लोग वहां से पैदल चण्डीगढ़ के आर्यसमाज आ जाया करते थे और अगले दिन फिर उत्साह के साथ सत्याग्रह करते थे। इस प्रकार से 1 सप्ताह तक सत्याग्रह चलता रहा। इसके बाद सत्याग्रह जारी रहने पर आपको बन्दी बना लिया गया और गिरफ्तार सत्याग्रहियों को पंजाब की भिन्न जेलों में रखा गया। आपको व अन्य 35 सत्याग्रहियों को रोपड़ की जेल में रखा गया। रोपड़ में दो दिन रखने के बाद आपको खरड़की के हवालात में रखा गया। इसके दो दिन बाद पुनः चण्डीगढ़ के हवालात में ले जाकर रखा गया। चण्डीगढ़ से आपको फिरोजपुर की सेण्ट्रल जेल में भेज दिया गया था जहां आप दिसम्बर, 1957 के अन्त तक रहे। श्री घनश्याम सिंह गुप्त के प्रयासों से देश के प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू व गृहमंत्री श्री गोविन्द बल्लभ पन्त के आश्वासन देने पर आर्यसमाज द्वारा सत्याग्रह समाप्त किया गया और आपकी जेल रिहाई हुई। जिन दिनों आप फिरोजपुर की जेल में थे, उन दिनों 14 अगस्त, 1957 को जेल में पुलिस ने कैदियों पर भंयकर लाठी प्रहार कर सौ से अधिक कैदियों को घायल कर दिया था जिसमें एक कैदी की मृत्यु भी हो गई थी। इस घटना का समाचार दिल्ली की केन्द्र सरकार तक पहुंचा और वहां से कांग्रेस दल के संसदीय सचिव श्री अलगू राय शास्त्री व श्री घनश्याम सिंह गुप्त जी जेल में निरीक्षण के लिए भेजे गये। आर्यसमाज द्वारा आहूत इस हिन्दी सत्याग्रह का नेतृत्व आर्यसमाज की भाषा स्वातन्त्र्य समिति ने किया था जिसके नेता थे स्वामी अभेदानन्द जी, पं. रघुवीर शास्त्री और पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी आदि। इन दिनों पंजाब के मुख्य मंत्री श्री प्रताप सिंह कैरों थे जो आर्यसमाज की जायज मांगों को मानने के लिए तैयार नहीं थे अपितु उसे कुचलना चाहते थे। धर्म निरपेक्ष भारत में राष्ट्र भाषा हिन्दी को सम्मान देने के प्रति यह राजनैतिक असहिष्णुता का उदाहरण प्रतीत होता है।
विगत 20 वर्षों से पं. धर्मपाल शास्त्री विदेशों में प्रचार के लिए अधिक समय देते हैं। सन् 1996 में आपने हालैण्ड, सूरीनाम व फ्रांस आदि देशों की पहली विदेश यात्रा की थी। अब तक आपने अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड के लन्दन आदि नगरों, हालैण्ड, सूरीनाम, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, दुबई, शरजाह, अबूधाबी आदि अन्य देशों में जाकर आर्य विचारधारा का प्रचार कर उसका प्रसार किया है। 28 जून, 2016 को आप पुनः लम्बी विदेश यात्रा पर जा रहे हैं।
पण्डित धर्मपाल शास्त्री का आर्यसमाज की विचारधारा के मूर्तस्वरूप भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह जी से भी गहरा व निकटतम संबंध रहा है। चौधरी चरण सिह जी व आपके पिता स्वतन्त्रता आन्दोलन में कई बार एक साथ जेल में रहे जिससे दोनों में निकटता होने के साथ दोनों का परस्पर एक दूसरे के परिवारों में आना जाना होता था। आपसे हमें ज्ञात हुआ कि चौधरी चरणसिंह जी वकालत करते थे। आप गाजियाबाद आर्यसमाज के प्रधान रहे। यहां जो सत्संग होता था उसकी कार्यवाही रजिस्टर में आप अपने हाथ से ही लिखते थे। यहां होने वाले आर्यसमाज के सत्संगों में कोई वक्ता मंच से आर्यसमाज के सिद्धान्तों के विरुद्ध कोई बात नहीं कह सकता था। आप वकालत करते हुए कोई झूठा व गलत केस नहीं लेते थे। आप गुरुकुल डोरली के प्रधान भी रहे। आप 2 वर्षों तक परोपकारिणी सभा के प्रधान भी रहे। भारत के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री भी रहे। ऋषि के प्रति गहरी निष्ठा का आपका यह भी उदाहरण है कि आप अपने कमरे में केवल महर्षि दयानन्द जी का चित्र ही रखते थे। एक बार इस विषय में कुछ मित्रों ने पूछा तो आपने कहा कि गुरु एक ही हुआ करता है। आप जब ऋषि दयानन्द की चर्चा किया करते थे तो आप प्रायः भावुक हो जाते थे और आपकी आंखे गिली हो जाती थी। इसका उदाहरण टंकारा में सामने आया जिसे हम यथास्थान बाद में प्रस्तुत कर रहे हैं। आपने प्रधानमंत्री तक के अनेक राजनैतिक व सरकारी पदों पर रहते हुए भी आर्यसमाज के सिद्धान्तों के विरुद्ध कभी कोई कार्य नहीं किया। न कभी आपने किसी मूर्ति पर माला चढ़ाई और न हि कोई पौराणिक कृत्य किया। प्रधानमंत्री रहते हुए एक बार आप मध्य प्रदेश के अमरकण्टक स्थान पर गये थे। पौराणिक पण्डितों ने वहां आपको पौराणिक मूर्तिपूजा करने को कहा तो आपने स्पष्ट मना करते हुए उन्हें कहा कि क्या आपको पता नहीं कि मैं आर्यसमाजी हूं? मैं यह कार्य नहीं कर सकता।
चौधरी चरण सिंह जी मोरारजी देसाई की सरकार में गृहमंत्री थे। एक बार आपको इलाहाबाद में एक पुल का उद्घाटन करने जाना पड़ा। पुल के उद्घाटन के लिए वहां पण्डे पुजारी पूजा के थाल लेकर आपके पास आये। उन्होंने आपसे कहा कि पूजा करनी है। आपने उन्हें स्पष्ट इनकार कर दिया। आपके द्वारा वहां आर्यसमाज के पुरोहित को बुलाया गया। उसने वहां वैदिक रीति से यज्ञ कर पुल का उद्घाटन किया। श्री धर्मपाल शास्त्री जी बतातें हैं कि उस अवसर पर शायद् वहां अमेठी के आर्य विद्वान पं. दीनानाथ शास्त्री उपस्थित थे। आपने बताया कि स्वतन्त्रता आन्दोलन में चौधरी चरणसिंह जी व आपके पिता साथ-साथ रहे व जेल भी साथ साथ गये। इस कारण आपसे निकटता बनी और चौधरी चरण सिंह जी विधायक और संसदीय सचित आदि पदों पर रहते हुए भी आपके धर पर आते रहते थे। इस कारण आपके व आपके परिवार के उनसे गहरे पारिवारिक सम्बन्ध बन गये थे।
सन् 1965 में जब आर्यसमाज धामावाला देहरादून का उत्सव हुआ तो आर्यसमाज के मंत्री पं. विद्याभास्कर शास्त्री जी ने आपको चौधरी चरणसिंह जी को आमंत्रित करने का निवेदन किया। पं. विद्याभास्कर के चाचा देवरिया में रहते थे और चौधरी साहब के भक्त थे। शास्त्री जी ने दो महीने पहले चौधरी साहब को उत्सव में पधारने के लिए पत्र लिखा। आपको उत्तर मिला कि अभी उत्सव में दो महीने हैं अतः उत्सव से कुछ दिन पहले पत्र लिखें। शास्त्री जी ने आपको उत्सव से लगभग 28 दिन पहले दूसरा पत्र लिखा। आपको उत्तर मिला कि उत्सव दीपावली पर है और चौधरी चरण सिंह जी दीपावली घर पर रहकर मनाना चाहते हैं। इसका समाधान करते हुए पंडित धर्मपाल शास्त्री ने चौधरी साहब को लिखा कि आप दीपावली से एक दिन पहले आ जायें। व्याख्यान दें और रात्रि को देहरादून से रेल से चलकर दीपावली के दिन लखनऊ पहुंच जायें। इस प्रस्ताव को चौधरी साहब ने स्वीकार कर लिया। वह देहरादून आर्यसमाज के दीपावली, 1965 के उत्सव में आये। यहां ‘ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज’ विषय पर आपने डेढ़ घण्टे का व्याख्यान दिया। आप देहरादून की आर्य संस्था महादेवी कन्या महाविद्यालय देखने भी गये थे। श्री धर्मपाल शास्त्री, चौधरी चरणसिंह जी की सन् 1987 में मृत्यु पर्यन्त उनके सम्पर्क में रहे। आप उनके घर में यज्ञ कराते थे। चौधरी चरण सिंह जी के पुत्र श्री अजीत सिंह का विवाह संस्कार भी पं. धर्मपाल शास्त्री जी ने ही कराया था। यह भी उल्लेख कर दें कि चौधरी साहब अपने साथ सदैव दलित रसोईयां ही रखते थे। पं. क्षितिज वेदालंकार ने उनके प्रधानमंत्रित्व काल की एक स्वानुभूत घटना लिखी थी। वह आर्यसमाज के उत्सव में चौधरी चरण सिंह जी को आमंत्रित करने गये थे। उन्होंने उनके निजी सचिव से बात की। उन्हें बताया गया कि प्रधानमंत्री जी ने किसी से भी मिलने के मना किया हुआ है। जब पं. क्षितीज वेदालंकार लौटने लगे तो देर बाद उन्हें पुनः बुलाया गया। चौधरी चरण सिंह जी ने अपने निजी सचिव के साथ उनकी बातें साथ वाले कमरे में बैठे हुए सुन लीं थीं। उन्होंने कहा कि मैं कार्यक्रम में अवश्य आऊंगा। यह तो मेरे गुरु का काम है। प्रधानमंत्री के पद पर रहकर इस प्रकार का उदाहरण प्रस्तुत करना उनकी ऋषि दयानन्द के प्रति गहरी निष्ठा का प्रमाण है। आर्यसमाज के सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा की कुछ अन्य घटनायें भी हमें ज्ञात हुई हैं जिसे अन्य लेख में प्रस्तुत करेंगे।
श्री धर्मपाल शास्त्री के आर्यसमाज के प्रख्यात विद्वान एवं नेता पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी से भी निकट संबंध रहे। पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी से उनके यह संबंध उन दिनों से थे जब वह अपनी शिक्षा पूरी कर युवावस्था में आर्यसमाज के उपदेशक बने थे। आज भी विदेश में रह रहे उनके छोटे पुत्र से आप पांच बार मिले हैं जो पिता के मित्र होने के कारण उनको सम्मान देते हैं। बड़े पुत्र की प्रवृत्ति शायद् आर्यसमाज के प्रति क्षीण है अथवा नहीं है। हमें पिता-पुत्र की विचारधारा में यह विरोधाभाष कुछ अजीब लगता है। पं. धर्मपाल शास्त्री जी व पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी में दो भाईयों जैसे संबंध थे। आप दोनों एक साथ आर्यसमाज के उत्सवों व प्रचार के अन्य कार्यक्रमों में साथ साथ जाते थे। सांसद व आर्यसमाज के उपदेशक पं. शिवकुमार शास्त्री भी पं. प्रकाशवीर शास्त्री के गहरे मित्र थे और धर्मपाल शास्त्री से भी उनका गहरा मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहा। पं. प्रकाशवीर शास्त्री देहरादून आते रहते थे। प्रायः सर्किट हाउस में ठहरते तो धर्मपाल शास्त्री जी को अपने पास बुला लेते थे। एक बार पंडित प्रकाशवीर शास्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू की देहरादून में निवास करने वाली बहिन श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित से मिलने आपको भी अपने साथ ले गये। श्रमती विजय लक्ष्मी पाककला में निपुण थी। आपने तब चाय, पकोड़े आदि व्यंजनों से आप दोनों का स्वागत किया था। श्रीमती पंडित रूस में भारत की राजदूत रहने के साथ संयुक्त राष्ट्र की तीन वर्ष तक अध्यक्षा भी रहीं। आपने बताया कि एक बार भारत का एक प्रतिनिधि मण्डल श्री अलगू राय शास्त्री के नेतृत्व में यूएनओ गया। वह वहां श्रीमती पंडित से मिले। श्रीमती पंडित ने उनसे उनकी भोजन व्यवस्था के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ठीक है। उनकी शारीरिक भाषा अर्थात् बाडी लैंग्वेज से वह समझ गईं कि भोजन व्यवस्था ठीक नहीं है। उन्होंने श्री अलगू राय शास्त्री को कहा कि आप जब चाहे भोजन के लिए उनके घर आ जाया करें। श्रीमती पंडित ने पं. प्रकाशवीर शास्त्री जी को यह बात बताते हुए कहा था कि वह कई बार उनके यहां आये थे और उन्होंने उनको भारतीय भोजन कराया था। आपने यह भी बताया कि श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित और पं. जवाहरलाल नेहरु के परस्पर विचार नहीं मिलते थे। यह बात भी इन लोगों की परस्पर चर्चा के मध्य सामने आयी थी।
हमने आर्यसमाज के एक वयोवृद्ध विद्वान प्रचारक पंडित धर्मपाल शास्त्री के जीवन व उनके सम्पर्क में आये आर्यसमाजी विचारधारा की कुछ प्रमुख हस्तियों के बारे में संस्मरणों को प्रस्तुत किया है। हमें लगता है कि इन सभी घटनाओं का संरक्षण आर्यसमाज के लिए उपयोगी हो सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक हमसे सहमत होंगे और लेख को पसन्द करेंगे। इति।